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श्रीरामजनीजीका सौभाग्य

संत कृष्णदासके पैर क्षणभरके लिये रुक गये। तबलेकी गमगमाहट, पायलकी रुनझुन और सारंगीके मधुर स्वरके साथ गणिका रामजनीकी मधुर स्वर-लहरी थिरक रही थी।

कितना मधुर स्वर है इस वेश्या-पुत्रीका! वाणी जैसे अमृतमें डुबोयी गयी है। 'यदि यह हमारे गोवर्धनधरके सामने गाती तो इसका जीवन, इसका जन्म सफल संतने तुरंत सोच लिया। वे भगवान् के लिये वस्त्राभूषण लेने गोवर्धनसे दिल्ली आये थे। गलीमें गणिकाकी मधुर तानपर मुग्ध होकर उन्होंने यह निर्णय कर लिया।

'मेरे ठाकुरके पास चल सकोगी ?' सीढ़ीसे उतरते ही कृष्णदासने लावण्यमयी गणिकासे कहा । 'वे अनन्त सम्पत्ति सम्पन्न और उदार हैं। तुम्हारी दीनता सदाके लिये मिट जायगी।'

'हाँ, हाँ, अवश्य चलूँगी।' धनकी लोभिन गणिकाने उत्तर दिया।

'आपकी आज्ञाके लिये दासीके तन, मन और प्राण- सभी 'प्रस्तुत हैं।'

रामजनीने सोचा था, किसी धनवान् जमींदारके यहाँ चलना है। वस्त्राभूषणसे पूर्णतया सुसज्जित थी सौन्दर्य उसका निखर गया था, उसके अंग-अंगमें आकर्षण था, पुरुषको उन्मत्त बना देनेकी क्षमता थी। भजन रटाते बाबाजी उसे गोवर्धनके मन्दिरमें ले आये। वह चकित थी, पर चुप थी; रुपया तो उसे पहले ही मिल चुका था।

'भजन गाओ, देवि!' श्रीकृष्णदासने अत्यन्त प्रेमसे कहते हुए भगवान्का पट खोल दिया।

गणिका रामजनीने श्रीभगवान्‌को देखा-केवल एक बार देखा, न जाने कौन-सी सम्मोहक शक्ति थी उस प्रतिमामें! गणिका छक गयी, बिक गयी। उसका मन अपने वशमें नहीं रह पाया। टकटकी लगाये वह गोवर्धनधरकी ओर देखती रही, बहुत देरतक देखती रही।'प्रार्थना सुनाओ बेटी!' संतने गणिकाको सचेत किया! तब उसने समझा- मैं गानेके लिये यहाँ आयो हूँ। कृष्णदासजीने उसे एक पद बनाकर मुखस्थ करा दिया था। उसे ही वह गानेका उपक्रम करने लगी। तबलेपर थाप पड़ी, वह गमक उठा। सारंगी कॉप गयी। मंजीर झनझना उठा। मधुर वाद्योंका एक समाँ बँध गया। रामजनीने गाना आरम्भ किया- 'मो मन गिरिधर छबि पै अटक्यौ ।'

स्वरमें अनुपम मधुरता थी । श्रोता झूम उठे। श्रीकृष्णदासकी आँखें भर आयीं। रामजनीका मन तो सचमुच गिरिधर - छविमें अटक गया था। उसने इस पंक्तिको कई बार दुहराया। प्रत्येक बार उसमें नूतन रस छलकता दीखता था। गणिकाका तो प्राण स्वरोंमें तड़पता हुआ बोल रहा था। गीत आगे बढ़ा ललित त्रिभंग चाल पै चलि कै, चिबुक चारु गड़ि ठटक्यौ ॥ १ ॥

रामजनी श्यामसुन्दरके रंगमें रँगकर श्यामसुन्दर बन गयी थी। अपनी देहका ध्यान उसे नहीं था। त्रिभंगी चाल चलकर चिबुक पकड़कर ठिठकनेका अत्यन्त सुन्दर चित्रण नृत्यमें उसने किया। दर्शक मुग्ध थे सजल स्याम धन बरन लीन है, फिरि चित अनत न भटक्यौं।

जलसे लदे बादलका आकार बनाती हुई वह घनश्यामकी भुवनमोहिनी मूर्तिकी ओर देखने लगी। आँखें उसकी भर आयीं। बड़े साहससे उसने पदके अन्तिम अंशकी पूर्ति की

कृष्णदास किये प्रान निछावर, यह तन जग सिर पटक्यौ ॥ २ ॥ रामजनीका पार्थिव शरीर धम्मसे पृथ्वीपर गिर पड़ा। उसकी साँस बन्द हो गयी थी। भक्तगण उसके सौभाग्यकी प्रशंसा कर रहे थे।

साधु-संत और आचार-विचार रखनेवाले सब लोगोंने भगवान्‌के श्रीनामका कीर्तन करते हुए उसकी अन्त्येष्टि-क्रिया सम्पन्न की।

रामजनी धन्य थी। उसके सौभाग्यपर देवगणोंको भी ईर्ष्या होती थी।

[ श्रीशिवनाथजी दुबे]



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shreeraamajaneejeeka saubhaagya

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raamajanee dhany thee. usake saubhaagyapar devaganonko bhee eershya hotee thee.

[ shreeshivanaathajee dube]

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