सुदूर अरबदेशमें खस नामक एक सम्भ्रान्त कुटुम्ब था। उसका सरदार व्यापारचतुर और सर्वनिधिसम्पन्न पुरुष था। उसके हसीना नामकी एक सुशीला, स्वभावतः मधुरभाषिणी कन्या थी इस हसीनाकी एक समवयस्का हमीदा नामकी सखी थी, जो उसके प्रत्येक रहस्यसे अवगत भी प्रति सायंकाल ये दोनों समीपवर्ती रम्योद्यानमें जाकर पुष्पचयन करती, मीठे-मीठे फल खातों और बालसुलभ क्रीड़ा किया करती थीं तत्पश्चात् गृहमें आकर अपने सुयोग्य पिताके मुखसे 'अमरिल कैस" नामक धर्मग्रन्थको प्रेमपूर्वक सुना करती थीं। इस प्रकार इन दोनोंके मनोंमें बाल्यकालसे ही ईश्वरानुराग उत्पन्न होने लगा था। एक समय संसार भ्रमण करते हुए कोई हरिचरणानुरागी भारतीय संत अरबदेशमें जा पहुँचे, वहाँ भाग्यवश उनकी भेंट हसीनाके पितासे हुई। संतने उसका सत्कार स्वीकार किया और वहाँ सत्सङ्ग होने लगा। | बात ही बातमें उन्होंने परम रमणीय व्रजधामकी महिमा | साथ ही वृन्दावनविहारीके परमा वर्णन किया। हसीना भीतर बैठी हुई यह सब सुन रही थी। उसपर इस मधुर चर्चाका बड़ा प्रभाव पड़ा। महात्माजीने अन्यत्र प्रस्थान किया। इधर हसीना हृदयसागरमें प्रेम तर उठने लगी, वह सौन्दर्य- माधुर्य सुधा रस - सागर सच्चिदानन्दघन श्रीनन्दनन्दनके सुन्दर दर्शनोंके लिये व्याकुल हो उठी। दिन रात उन्हाँका ध्यान, उन्हींका चिन्तन । पिताने उसकी यह दशा देखकर एक दिन अत्यन्त प्रेमसे पूछा- 'बेटी मुझे क्या होगा है ? न तुझे गरमीकी चिन्ता और न वर्षाका ज्ञान, भू और प्यास तेरा यह शरीर कितना दुर्बल हो गया है। कोई प्रेतबाधा तो नहीं है?' पिताके वचन सुनकर हसीनाने केवल इतना ही कहा-'जबसे वे रसिकशिरोमणि संत भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके मधुर गुणानुवाद सुना हैं, तबसे उन्हीं (श्रीकृष्ण) - के दर्शनके लिये मेरा चित्त व्याकुल हो रहा है, मुझे दिन-रात उन्हींका ध्यान है। मेरा एक-एक क्षण उनके दर्शनके बिना युगके समान बीत रहा है। अब तो जब उन श्यामसुन्दरके दर्शन होंगे, तभी मेरी आत्माको प्रसन्नता होगी। अतएव पिताजी! आप इस शरीरको भारतवर्षान्तर्गत दिव्य वृन्दावनथानमें शीघ्र पहुँचा दीजिये, अन्यथा मेरे प्राण अब शीघ्र ही प्रयाण करना चाहते हैं।'
उस समय धर्मके नामपर कोई दुराग्रह नहीं था। हसीनाके पिताने अपनी पुत्रीकी अभिलापाका अभिनन्दन किया और कहा कि 'अच्छा सङ्ग मिलते ही हम तुम्हें वहाँ भेज देंगे।'
भाग्यवश उन्हीं दिनों एक काफिला (व्यापारी यात्रियोंका समूह) बगदादको जा रहा था, हसीना के पिताने सोचा- यह अच्छा अवसर हाथ आया। हसीनाको उसके भाई अब्दुल्ला और सखी हमीदाके साथ भेजनेकी तैयारियाँ होने लगीं। दोनों कन्याएँ अपने-अपने पिताका चरणस्पर्श करके और उनसे आशीर्वाद प्राप्तकर अपने प्राणोंके प्राण श्रीकृष्णके दर्शनार्थ अत्यन्त हर्षपूर्वक उस काफिलेके साथ चलीं। वहीं रास्तेमें एक नदीतटपर उन लोगोंने डेरा डाला। दिन सुन्दर शरद ऋतुके थे; परमाह्लादिनी चन्द्रज्योत्स्ना खिल रही थी, अनेक प्रकारके वन्य कुसुमोंके सौरभसे मन प्रसन्न हो रहा था; जहाँ देखिये, वहीं आनन्दमय दृश्य दिखलायी देता था। उस समय से दोनों सखियाँ उस तरङ्गिणीके तटपर एकान्त स्थानमें प्राकृतिक छटा देखने चली गयीं। सुन्दर लता और मनोहर वृक्षोंको देखकर उन्हें व्रजलताओंका स्मरण हो आया। हसीनाने अपनी प्रिय सहेली हमीदासे कहा कि 'एक बार इस एकान्त स्थलमें, जहाँ चारों ओर शान्तिका साम्राज्य है, कृपा करके उन संतके द्वारा सुनाया हुआ व्रजकी शोभाका मधुर वर्णन तो करो। अहा हा! यही वह शरद् थी, जब परमानुरागिणी महाभागा व्रजगोपिकाओं के अङ्ग मदनमोहन श्रीकृष्णने रामेश्वरी श्रीराधिकाको साथ लेकर महारास किया था।' उस हमीदाने, जो भावुकताकी मूर्तही थी, श्रीकृष्ण अङ्ग अङ्गको छवि और परम गुरु गोलोककी अनन्त माधुरीका विशद वर्णन जिससमय किया, उस समय वे दोनों तन्मयताकी अवस्थाको प्राप्त होकर मानो स्वयं ही उस रासकी नटी हो गयीं। सम्पूर्ण दृश्य उनके नेत्रोंके सम्मुख नाचने लगा। वे देखती क्या है कि प्रेमामृतमहासिन्धुस्वरूप सौन्दर्य माधुर्य-निधि भगवान् नन्दनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र रासेश्वरी ज्योतिर्मयी महाशक्ति श्रीराधिकाजीके साथ उसी सुन्दर माधुरीकुझमें विराजमान हैं। नव-नोल-नीरद वर्ण है, कटिमें सुन्दर काछनी काछे हैं, कानोंमें सुन्दर कुण्डल हैं, गलेमें दिव्य पुष्पोंकी, रत्नोंकी और गुंजाओंकी मालाएँ सुशोभित है। सिरपर मयूरपिच्छका मनोहर मुकुट है, घुंघराली काली अलकावली भ्रमरपंक्तियोंकी शोभाको परास्त कर रही है। अधरपल्लवपर मुरली शोभा पा रही है करोड़ों-करोड़ों कामदेवोंको लज्जित करनेवाली युगल सरकारकी रूपमाधुरी है। श्रीराधिकाजी सर्वाङ्गसुसज्जित है। नील वस्त्र धारण किये हुए हैं। परम भाग्यवती व्रज वनिताएँ उनकी सेवामें संलग्न तथा उनके योगिदुर्लभ दर्शन पाकर आनन्दविहल हो रही हैं। दोनों सखियोंने प्राणप्रियतमका मानस दर्शन किया और तदाकारवृत्ति होकर उसीमें स्थित हो गयीं। उस समय उन्हें बहिर्जगत्का ध्यान हो नहीं रहा।
इधर ये दोनों परमहंसोचित ध्यानमें निमग्न थीं, उधर काफिलेका समाचार पाकर एक बहुओंका दल अस्त्र शस्त्र लिये उस काफिलेपर टूट पड़ा। दोनों पक्षोंमें बहुत देरतक युद्ध होता रहा; डाकुओंने व्यापारियोंका बहुत सा भाग नष्ट कर दिया और उनका धन छीनकर इधर उधर वे छिप रहे केवल हसीनाका भाई और कुछ 1 स्त्रियाँ ही शेष बचीं। इन लोगोंका क्रन्दन सुनते ही उन दोनोंकी समाधि भंग हुई। वे तुरंत ही उस स्थानपर पहुँचीं, जहाँको पृथ्वी हत्याकाण्डसे रक्तरञ्जित हो रही थी ये सोचने लगा-हे भगवन्। इतनी ही देरमें यह क्या हो गया; हमलोगोंपर दैवकी यह कैसी अकृपा! परंतु ईश्वरकी लीला तो विचित्र होती है, इसीमें उनका हित निहित था। उन डाकुओंमें दो चार वहीं पास ही खड़े थे, इन दोनों सुन्दरियोंको देखकर उनके मुँहमें पानी भर आया। वे परस्पर कहने लगे, 'अहा सर्वोत्तम धन तो यही है। इन दोनोंको लेकर बगदादमें बेचेंगे, इनकीकीमत भी खूब मिलेगी।' उन्होंने इन दोनों अबलाओंको हठात् पकड़ लिया और हाजियोंका वेष बनाकर वे इधर-उधर चक्कर लगाने लगे। हसीनाने किसी युक्तिसे एक मालिनके द्वारा अपनी विपत्तिका समाचार उस देशके खलीफाको लिख भेजा खलीफाने वह पत्र पाकर तत्काल उन उदावेषधारियोंको पकड़ मँगाया और उन दोनोंका उद्धार कर महलमें भेज दिया। बेगमने उनको देखकर अत्यन्त स्नेहसे उनके नेत्र और मुख चूमकर अपनी गोदमें बिठाकर पूछा- 'बेटियो। तुमपर क्या आपत्ति आयी है? तुम्हारा कहाँ जानेका विचार था ? यहाँ कैसे आ पहुँची ?" उन्होंने अपनी बीती हुई सारी घटना आद्योपान्त कह सुनायी। उस करुणकथाको सुनकर बेगमका हृदय पसीज गया। बेगमने उन्हें घर लौट जानेको कहा; पर उन्होंने कहा कि 'हमारा मन तो श्यामसुन्दरके लिये उन्मत्त हो गया है। इससे अधिक विपत्तियाँ आयेंगी तो उन्हें भी हम सह लेंगी, पर वृन्दावन जरूर जायेंगी। उनको अपने सिद्धान्तपर अटल देखकर सहदया बेगमने उन दोनों कुमारियोंको युद्ध विशारद सिपाहियोंकी रक्षामें ब्रजभूमिको पहुँचा दिया। वे दोनों वहाँ पहुँचकर किसी एक मन्दिरके द्वारपर आयीं। उन्होंने उस भूमिको प्रणाम किया, देहलीपर मस्तक रखा और भीतर चौकमें प्रवेश किया। इतनेमें किसी व्यक्तिने पुजारीको समाचार दिया। वह आकर देखता है कि दो यवनकन्याएँ मन्दिरके प्राङ्गणमें आ गयी हैं; वह इनकी ओर कोपपूर्ण दृष्टिसे देखता हुआ बोला- 'तुमलोग कौन हो? इस मन्दिरमें तुम्हारा क्या काम है? तुमलोगोंने सारा मन्दिर अपवित्र कर दिया। निकल जाओ बाहर! वे बेचारी इस अग्निमूर्ति पुजारीको देखकर सहम गर्यो । पुजारीसे उन्होंने बहुत कुछ अनुनय-विनय की, परंतु जब पुजारीने नहीं माना, तब वे बेचारी दुःखी होकर लौट गर्यो; परंतु उनका मन तो श्रीकृष्णकी रूपमाधुरीमें लगा था। कालिन्दीके कूलपर पहुँचकर एक कदम्ब वृक्षकी छायामें बैठकर दोनों अपने प्यारे श्रीकृष्णका चिन्तन करने लगीं। दिन बीत गया, रात हो गयी, सब लोग अपने-अपने घरोंमें जाकर सो गये। आधी रातका समयहो गया। इतनेमें वे देखती हैं कि यमुनाजीमें एक सुन्दर र-छत्र, नौका चली आ रही है, जिसमें श्रीराधिकासहित भगवान् श्रीकृष्ण विराजमान हैं। सङ्गमें कुछ सखियाँ चमर मोरछल आदि लिये अपनी-अपनी सेवामें मग्न हैं। नौका आकर किनारे लगी। उसमेंसे एक सखीकी दृष्टि इन दोनों कन्याओंपर पड़ी, उसने नीचे उतरकर हसीनासे पूछा—'अहो ! तुमलोग अर्धनिशामें यहाँ बैठी हुई क्या कर रही हो? तुम कौन हो? यह तुम्हारे साथ कौन है? किस देशसे आयी हो? तुम्हारा क्या मनोरथ है? " हमीदाने विनम्र प्रणाम करके उस सखीसे कहा कि 'हम दोनों अशेष क्लेश सहन करती हुई अरबदेशसे वृन्दावनका माहात्म्य सुनकर भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन करने इस व्रजभूमिमें आयी हैं। मेरा नाम हमीदा है, यह मेरी स्वामिनी हसीना है। इनके पिता एक दिन अपने महलमें बैठे हुए थे, वहाँ भारतवर्षके कोई महात्मा घूमते हुए जा पहुँचे। उन्होंने अविद नन्दनन्दनको छविका वर्णन किया उसे सुनते ही हमलोगोंकी दशा विचित्र हो गयी और किसी तरह हम यहाँतक पहुँच गयीं। अब यह तो बतलाइये कि वे दीनानाथ हमलोगोंको दर्शन देकर कब कृतार्थ करेंगे ?! तत्काल ही उस सखीने उनकी सरलता और सत्य स्नेहपर मुग्ध होकर उनसे कहा कि 'ये जो मणिसंयुत स्वरचित सिंहासनपर विराजमान हैं, यही श्रीश्यामसुन्द हैं और इनकी बायीं ओर परम सुन्दरी महारानी श्रीराधिकाजी हैं। इन दोनोंके चारों ओर ये ललितादि सखियाँ अपने अपने सेवा कार्यमें संलग्न हैं। ये दीनदयालु हैं। पहले अपने भक्तोंकी परीक्षा कर लेते हैं, तब समय आनेपर तुरंत स्वयं ही सहायता के लिये दौड़ आते हैं। तुमलोगोंका सम्पूर्ण वृत्तान्त इन्हें ज्ञात है, इसीलिये तुमपर प्रसन्न होकर ये तुम्हें दर्शन देनेके लिये ही पधारे हैं।' इतना कहकर यह सखी उन दोनों को श्रीकृष्ण और श्रीराधिका के चरणकमलोंके समीप ले गयी, दोनों दोनोंके चरणोंपर | लोट गयीं। जीवनकी सुख-साध पूरी हुई, जीवन-जन्म सार्थक हो गया। फिर वे दोनों आवागमनसे रहित होकर निकुञ्जविहारीके नित्य विहारमें सम्मिलित हो गयाँ!
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