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बन्धु महान्ति की मार्मिक कथा
बन्धु महान्ति की अधबुत कहानी - Full Story of बन्धु महान्ति (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [बन्धु महान्ति]- भक्तमाल


स्वारथ के नेही जगत, सब कौ अपनी हाय ।

दीनबंधु बिनु दीनकी, को करि सके सहाय ॥

उड़ीसाके याजपुर गाँवमें बन्धु महान्तिका घर था। स्त्री, एक पुत्र और दो कन्याएँ थीं घरमें बन्धु बड़ा गरीब और बहुत सन्तोषी था। गाँवमें भीख माँगने जाता, एक दिनके कामभरको अन्न मिलते ही घर लौट आता। उसी अन्नसे अतिथि सेवा होती, बच्चोंको भोजन कराया जाता; कुछ बच जाता तो स्त्री-पुरुष खा लेते, नहीं तो भगवान्का नाम लेते हुए उपवास रह जाते। बन्धु अपनी अवस्थामें परम सन्तुष्ट था। श्रीजगन्नाथमें उसकी अविचल भक्ति थी। उसके हृदयमें जो आनन्दका स्रोत निरन्तर झरता था, वह महलोंमें रहनेवाले, संसारके विषय- लोलुप लोगोंको भला, स्वप्रमें भी कहाँ प्राप्त हो सकता है।

अचानक देशमें अकाल पड़ गया। खेतोंमें अन्न तो क्या घास भी नहीं उगी कुएँ-तालाब सूख गये। जब लोग स्वयं पेड़ोंके छाल-पत्ते खाकर किसी प्रकार प्राणधारण कर रहे हों, तब भिखारीको भिक्षा कैसे मिले? बन्धुका परिवार तीन दिनोंसे उपवास कर रहा है।बच्चोंका तड़पना-बिलबिलाना मातासे नहीं देखा जाता। उसने पतिसे कहा-'स्वामी! मेरे पिताके घर तो कोई रहा नहीं कि इस विपत्तिमें उससे कुछ सहायता मिलती, पर क्या आपके भी कोई बन्धु बान्धव नहीं हैं? यदि कोई परिचित भी हो तो उनके पास चलिये। बच्चोंको दो मुट्ठी अन्न तो मिलना चाहिये।'

बन्धुने कहा-'देवि! इस जगत्‌में मेरे और तो कोई ■ मित्र, परिचित या सम्बन्धी हैं नहीं; एक ही सुहृद् हैं। परन्तु वे यहाँसे पूरे पाँच दिनके रास्तेपर रहते हैं। हमलोग उनके पास पहुँच जायँ तो अवश्य ही हमारे समस्त दुःख सदाको दूर हो जायँगे। उनका नाम है। दीनबन्धु। मुझ-जैसे दीनोंपर वे बड़ा स्नेह रखते हैं।'

स्त्री तुरंत चलनेको प्रस्तुत हो गयी। भूखों मरनेकी अपेक्षा पाँच दिनका रास्ता चल लेना सुगम था । लड़केको बन्धुने कंधेपर लिया, छोटी लड़कीको उसकी माताने गोदमें उठाया, बड़ी लड़की पैदल साथ चली। सामान तो कुछ था ही नहीं, घास-पत्ते खाते वे किसी प्रकार सन्ध्याके समय श्रीजगन्नाथपुरी पहुँचे। सिंहद्वारपरबहुत भीड़ समझकर बन्धुने मन्दिरकी दक्षिण ओर पेजनाले (फेन बाहर निकलनेके नाले) पर सबको लाकर बैठा दिया और बोले-'देखो! हमलोग बड़े असमयमें यहाँ आये हैं। इस समय मेरे मित्रसे भेंट होना बड़ा कठिन है। दूर-दूरसे उनके और मित्र भी आये हैं। उनकी भीड़के मारे मन्दिरमें प्रवेश पाना ही कठिन है। आजकी रात तो पेज-पानी (नालेका फेन) पीकर बिताओ। कल अपने बन्धुसे मिलकर सारी बातें कहूँगा।"

बेचारी स्त्री इतना ही जानती थी कि यहाँ उसके पतिके कोई बहुत सम्पन्न मित्र हैं उनसे मिलनेपर बच्चोंके प्राण बच जायेंगे। उसे धन-दौलत नहीं चाहिये। दो मुट्ठी अन्न बच्चोंको मिल जाय तो अपने प्राणोंकी भी उसे चिन्ता नहीं उस पतिव्रताने फूटी हैडियासे उस नालेका फेन ही बच्चोंको पिलाया। स्वयं पिया अपने पतिदेवको पिलाकर

बन्धु महान्तिके हृदयकी दशा दूसरी ही थी। उनके मनमें न धनकी इच्छा थी न अत्रकी। वे घरसे अपने दीनबन्धुके यहाँ पापी पेटके लिये भीख माँगनेका विचार करके नहीं चले थे। वे सोचते आये थे प्रभुकी कितनी दया है। मुझे तथा मेरी स्त्री एवं बच्चोंको भी जगन्नाथजीके दर्शन होंगे। देह भी छूटा तो पावन पुरुषोत्तमपुरीमें छूटेगा। मरना तो सबको एक दिन है ही। भगवान् विश्वम्भर तो सब कहीं हैं, उनपर अविश्वास करके अनके लिये भला दर-दर कौन भटकेगा। नीलाचल आकर तो उनके दर्शनका परम लाभ पाना है। नाथ! तुमसे कहना क्या है। तुम तो स्वयं सब जानते हो मैं तो यही कहने आया हूँ कि मेरे मनमें कोई कामना हो तो उसे दूर कर दो।'

बन्धु महान्तिके लिये, उपवास किये हुए बच्चों तथा स्त्रीके लिये तो वह नालेका फेन ही अमृत जान पड़ा था। वे उसे पीकर सो गये। श्रीजगन्नाथमन्दिरमें रातकी सेवा समाप्त हो जानेपर मन्दिरद्वारपर रस्सी बाँधकर मुहर लगा दी गयी। मशालें जल गयीं सब लोग बाहर चले गये। सब द्वार बंद हो गये। सेवकगण सो गये सब सो गये; पर जिसका बन्धु पाँच दिनका रास्ता चलकर पेज नालेपर सपरिवार पड़ा था, जिसकी बन्धुतापर विश्वास करके वह इतनी दूर आया था, वे दीनबन्धु कैसे सोजाते। उन परम प्रभुके नेत्रोंमें निद्रा कहाँ। वे उठे भण्डारमें आये और अपने रत्न थालको छप्पन भोग प्रसादसे सजाकर एक ब्राह्मणके वेशमें मन्दिरके दक्षिण द्वारसे बाहर आकर पुकारने लगे- 'बन्धु ! ओ बन्धु !'

पुरीकी इस महानगरीमें एक अपरिचित अज्ञात 'बन्धु महान्ति' को भी कोई पुकार सकता है, यह बात बन्धु कैसे मान ले। पुरीमें और जाने कितने बन्धु हो सकते हैं। अतएव पुकार सुनकर भी उसने उत्तर नहीं दिया। अन्तमें जब पुकारनेवालेने 'याजपुरिया बन्धु !"" कहकर पुकारना प्रारम्भ किया, तब हड़बड़ाकर दौड़ा हुआ वह द्वारके पास आया। ब्राह्मणने स्वरमें उलाहना भरकर कहा-'मैं पुकारते-पुकारते थक गया, मेरे हाथ इस भारी थालको उठाये-उठाये दर्द करने लगे; पर तुम कैसे हो, जो सुनते नहीं। लो इसे, आज इतनेसे काम चलाओ। कलसे तुम्हारे रहनेकी और भोजनकी सब व्यवस्था हो जायगी। कोई चिन्ता मत करो।'

बन्धु महान्ति तो मुख देखता रह गया थाल ले लिया उसने उसे एक शब्द भी बोलनेका अवसर दिये बिना वे ब्राह्मण देवता मन्दिरमें चले गये। बन्धु तो जड़की भाँति सन्न रह गया। बहुत देरमें कुछ होश आया, तब मतवालेकी भाँति झूमता हुआ स्त्री-बच्चोंके पास पहुँचा। सबको जगाया उसने। सबने महाप्रसाद पाया। स्त्रीने थाल धोया। बन्धु उसे लौटाने गया तो देखा कि द्वार बंद है। थालको अपने फटे चिथड़ेमें लपेटकर सिरके नीचे रखकर वह सो गया।

प्रातःकाल भण्डारीने भण्डार खोला तो उसका होश हवा हो गया। सब वस्तुएँ बिखरी पड़ी थीं। भगवान्के रत्नथालका पता ही नहीं था। हल्ला मचा, लोग एकत्र हुए, | इधर-उधर दौड़-धूप होने लगी और अन्तमें बन्धु पकड़ा गया। कोतवालके सामने पहुँचाये जानेपर उसने रातकी सब बातें सच-सच कह दीं। परंतु उसकी बातपर कौन विश्वास करता। स्त्री-बच्चोंसहित हथकड़ी-बेड़ीसे जकड़कर वह कारागारमें बंद कर दिया गया। बन्धुपर मार पड़ी थी, सब उसे गालियाँ दे रहे थे, कारागारमें बंदी कर दिया गया था वह; किंतु इतनेपर भी उसे न दुःख हुआ न क्षोभ । वह कह रहा था- 'मेरे स्वामी! तुम मेरीपरीक्षा कर रहे हो? तुम्हीं बल दो तो तुम्हारी परीक्षामें कोई उत्तीर्ण हो सकता है। तुम्हारे सभी विधान मङ्गलमय हैं। मैं तो तुम्हारी प्रसन्नतामें ही प्रसन्न हूँ। ये लोग आकर मुझे धिक्कारते हैं, गालियाँ देते हैं—यह सब दण्ड तो मेरे ही किसी पूर्वकृत पापका फल है। तुम्हारी तो यह महान् कृपा है कि मेरे पापोंका फल भुगताकर मुझे शुद्ध कर रहे हो। नाथ! तुम्हीं एकमात्र मेरे शरण हो। मैं केवल तुम्हींको जानता हूँ।'

दिनभर बन्धु महान्ति कारागारमें रहे। रात्रि हुई। पुरीनरेश महाराज प्रतापरुद्र खरदा नामक स्थानमें अपने स्थानपर सोये थे। उन्होंने स्वप्नमें देखा कि श्रीजगन्नाथजी बहुत ही रुष्ट होकर कह रहे हैं- 'राजा! मेरा भक्त पाँच दिनोंसे भूखा-प्यासा याजपुरसे स्त्री-बच्चोंके साथ पैदल चलकर यहाँ आया; परंतु यहाँ तेरे किसी कर्मचारीने उसकी बात भी नहीं पूछी। वह भूखा पड़ा रहा तो मैं अपने रत्नथालमें उसे प्रसाद दे आया; रत्नथाल तो मेरा था, मैं अपने भक्तको दे आया। उसमें तेरा या और किसीका क्या? पर तेरे सेवकोंने उसे रत्नथालके लिये पीटा, सच सच बता देनेपर भी कारागारमें बंद कर दिया। अब तेरा भला इसमें है कि इसी समय जाकर उसे बंदी घरसे छोड़ और सम्मानपूर्वक मन्दिरके हिसाब-रक्षककेपदपर नियुक्त कर दे। उसका सारा प्रबन्ध अभी जाकर कर दे।'

भगवान् के अन्तर्धान होते ही राजाकी नींद टूट गयी। उसी समय घोड़े पर सवार होकर वे पुरी पहुँचे। स्वप्रकी सभी बातें सच्ची थीं। बन्धु महान्तिकी हथकड़ी-बेड़ी खोलकर वे हाथ जोड़कर बोले-'यहाँके लोगोंने आपको जो कष्ट दिया है, वह अपराध उनका नहीं, वह तो मेरा अपराध है। आप मुझे क्षमा करें।' राजाके नेत्रोंसे आँसू बहने लगे। बन्धुको बड़ा सङ्कोच हुआ। उन्होंने राजाको आश्वासन दिया। सम्मानपूर्वक राजा उन्हें अंदर ले गये । तीर्थजलसे स्नान कराकर उन्हें वस्त्राभूषण पहनाया। उनकी स्त्री तथा बच्चोंका भी बड़ा सत्कार किया। मन्दिरके दक्षिण ओर उनके रहनेका प्रबन्ध कर दिया। बन्धु महान्ति श्रीजगन्नाथमन्दिरके हिसाब-रक्षक पदपर नियुक्त हुए। सदाके लिये प्रसादकी लिखित सनद उन्हें प्राप्त हुई। इतना करके तब राजाने जाकर मन्दिरमें श्रीजगन्नाथजीका दर्शन करके अपराधकी क्षमा माँगी।

बन्धु अब श्रीजगन्नाथपुरी ही रहने लगे। दीनबन्धुकी कृपासे वे महापुरुष हो गये। श्रीजगन्नाथजीके आय व्ययका हिसाब अबतक श्रीबन्धु महान्तिके वंशज ही करते चले आते हैं।



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svaarath ke nehee jagat, sab kau apanee haay .

deenabandhu binu deenakee, ko kari sake sahaay ..

uda़eesaake yaajapur gaanvamen bandhu mahaantika ghar thaa. stree, ek putr aur do kanyaaen theen gharamen bandhu bada़a gareeb aur bahut santoshee thaa. gaanvamen bheekh maangane jaata, ek dinake kaamabharako ann milate hee ghar laut aataa. usee annase atithi seva hotee, bachchonko bhojan karaaya jaataa; kuchh bach jaata to stree-purush kha lete, naheen to bhagavaanka naam lete hue upavaas rah jaate. bandhu apanee avasthaamen param santusht thaa. shreejagannaathamen usakee avichal bhakti thee. usake hridayamen jo aanandaka srot nirantar jharata tha, vah mahalonmen rahanevaale, sansaarake vishaya- lolup logonko bhala, svapramen bhee kahaan praapt ho sakata hai.

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bandhune kahaa-'devi! is jagat‌men mere aur to koee ■ mitr, parichit ya sambandhee hain naheen; ek hee suhrid hain. parantu ve yahaanse poore paanch dinake raastepar rahate hain. hamalog unake paas pahunch jaayan to avashy hee hamaare samast duhkh sadaako door ho jaayange. unaka naam hai. deenabandhu. mujha-jaise deenonpar ve bada़a sneh rakhate hain.'

stree turant chalaneko prastut ho gayee. bhookhon maranekee apeksha paanch dinaka raasta chal lena sugam tha . lada़keko bandhune kandhepar liya, chhotee lada़keeko usakee maataane godamen uthaaya, bada़ee lada़kee paidal saath chalee. saamaan to kuchh tha hee naheen, ghaasa-patte khaate ve kisee prakaar sandhyaake samay shreejagannaathapuree pahunche. sinhadvaaraparabahut bheeda़ samajhakar bandhune mandirakee dakshin or pejanaale (phen baahar nikalaneke naale) par sabako laakar baitha diya aur bole-'dekho! hamalog bada़e asamayamen yahaan aaye hain. is samay mere mitrase bhent hona bada़a kathin hai. doora-doorase unake aur mitr bhee aaye hain. unakee bheeda़ke maare mandiramen pravesh paana hee kathin hai. aajakee raat to peja-paanee (naaleka phena) peekar bitaao. kal apane bandhuse milakar saaree baaten kahoongaa."

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pureekee is mahaanagareemen ek aparichit ajnaat 'bandhu mahaanti' ko bhee koee pukaar sakata hai, yah baat bandhu kaise maan le. pureemen aur jaane kitane bandhu ho sakate hain. ataev pukaar sunakar bhee usane uttar naheen diyaa. antamen jab pukaaranevaalene 'yaajapuriya bandhu !"" kahakar pukaarana praarambh kiya, tab hada़bada़aakar dauda़a hua vah dvaarake paas aayaa. braahmanane svaramen ulaahana bharakar kahaa-'main pukaarate-pukaarate thak gaya, mere haath is bhaaree thaalako uthaaye-uthaaye dard karane lage; par tum kaise ho, jo sunate naheen. lo ise, aaj itanese kaam chalaao. kalase tumhaare rahanekee aur bhojanakee sab vyavastha ho jaayagee. koee chinta mat karo.'

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bandhu ab shreejagannaathapuree hee rahane lage. deenabandhukee kripaase ve mahaapurush ho gaye. shreejagannaathajeeke aay vyayaka hisaab abatak shreebandhu mahaantike vanshaj hee karate chale aate hain.

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