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भक्त ऋक्षराज जाम्बवान् की मार्मिक कथा
भक्त ऋक्षराज जाम्बवान् की अधबुत कहानी - Full Story of भक्त ऋक्षराज जाम्बवान् (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्त ऋक्षराज जाम्बवान्]- भक्तमाल


स्वारध साँच जीव कह एहा मन क्रम बचन रामपद नेहा ॥

भगवान् ब्रह्माने देखा कि सृष्टिकार्यमें लगे रहते पूरा समय भगवान्की सेवामें नहीं दिया जा सकता। अतः वे अपने एक रूपसे ऋक्षराज जाम्बवान् होकर पृथ्वीपर आ गये। भगवान्‌की सेवा, भगवान्‌के नित्यमङ्गलमय रूपका ध्यान, भगवानकी लीलाओंका चिन्तन-यही जाम्बवान्जी की दिनचर्या भी सत्ययुगमें जब भगवान् वामनने विराट्रूप धारण करके बलिको बाँध लिया, उस समय उस विराट्रूप प्रभुको देखकर ऋक्षराज जाम्बवन्तजीको बढ़ा ही आनन्द हुआ वे भेरी लेकर विराट् भगवान्‌का जयघोष करते हुए दिशाओंमें सर्वत्र महोत्सवको घोषणा कर आये और दो घड़ियोंमें ही दौड़ते हुए उन्होंने सात प्रदक्षिणाएँ विराट् भगवान्की कर लीं!

त्रेतामें जाम्बवन्तजी सुग्रीवके मन्त्री हो गये। आयु बुद्धि, बल एवं नीतिमें सबसे श्रेष्ठ होनेके कारण वे ही सबको उचित सम्मति देते थे। वानर जब सीतान्वेषणको निकले और समुद्र तटपर हताश होकर बैठ गये, तब जाम्बवन्तजीने हो हनुमानजीको उनके बलका स्मरण दिलाकर लङ्का जानेके लिये प्रेरित किया। भगवान् श्रीरामके युद्धकालमें तो जैसे ये प्रधान मन्त्री ही थे। सभी कार्योंमें भगवान् इनकी सम्मति लेते और उसका आदर करते थे। लङ्का युद्धमें मेघनादने अपनी मायासे सभीको व्याकुल कर दिया था, पर जाम्बवन्तजीको वह माया स्पर्श भी नहीं कर सकी। मेघनाद और रावण भी इनके मुष्टि-प्रहारसे मूर्छित हो जाते थे। जब भगवान् अयोध्या लौट आये और राज्याभिषेकके अनन्तर सबको विदा करने लगे, तब जाम्बवन्तजीने अयोध्यासे जाना तभी स्वीकार किया, जब प्रभुने उन्हें द्वापरमें फिर दर्शन देनेका वचन दिया।

जाम्बवन्तजीकी इच्छा थी कि कोई मुझे द्वन्द्वयुद्धमें सन्तुष्ट करे। लङ्काके युद्धमें रावण भी उनके सम्मुख टिक नहीं सका था। भगवान् तो भक्तवाञ्छाकल्पतरु हैं। अपनेभक्तकी इच्छा पूर्ण करना ही उनका व्रत है। द्वापरमें श्रीकृष्णचन्द्रका अवतार हुआ। द्वारका आनेपर यादवश्रेष्ठ सत्राजित्ने सूर्यकी आराधना करके स्यमन्तक मणि प्राप्त की। एक दिन श्रीकृष्णचन्द्रने सत्राजित्से कहा कि 'वह मणि महाराज उग्रसेनको दे दो।' किंतु लोभवश सत्राजित्ने यह बात स्वीकार नहीं की। संयोगवश उस मणिको गलेमें बाँधकर सत्राजित्का भाई प्रसेनजित् आखेटके लिये वनमें गया और वहाँ उसे सिंहने मार डाला। सिंह मणि लेकर गुफामें गया तो जाम्बवन्तजीने सिंहको मारकर मणि ले ली और गुफाके भीतर अपने बच्चेको खेलनेके लिये दे दी। द्वारकामें जब प्रसेन नहीं लौटा, तब सत्राजित्को शङ्का हुई कि 'श्रीकृष्णचन्द्रने मेरे भाईको मारकर मणि छीन ली है।' धीरे-धीरे यह बात फैलने लगी। इस अयशको दूर करनेके लिये श्रीकृष्णचन्द्र मणिका पता लगाने निकले। मरे घोड़ेको, फिर मृत सिंहको देखते हुए जाम्बवन्तकी गुफामें पहुँचे। एक | अपरिचित पुरुषको देख बच्चेकी धाय चिल्ला उठी। जाम्बवन्त इस चिल्लाहटको सुन क्रोधमें भरे दौड़े। | केशवके साथ उनका द्वन्द्वयुद्ध होने लगा। सत्ताईस दिन रात बिना विश्राम किये दोनों एक-दूसरेपर वज्रके समान घूंसे मारते रहे। अन्तमें जाम्बवन्तका शरीर मधुसूदनके घूँसोंसे शिथिल होने लगा। जाम्बवन्तजीने सोचा- 'मुझे पराजित कर सके, ऐसा कोई देवता या राक्षस तो हो नहीं सकता। अवश्य ये मेरे स्वामी श्रीराम ही हैं।' वे यह सोचकर रुक गये। भगवान्ने उसी समय उन्हें अपने धनुषधारी रामरूपका दर्शन दिया। जाम्बवन्तजी प्रभुके चरणोंपर गिर पड़े। श्रीकृष्णचन्द्रने अपना हाथ उनके शरीरपर फेरकर समस्त पीड़ा, श्रान्ति, क्लेशको दूर कर दिया। अपनी कन्या जाम्बवतीको ऋक्षराजने श्रीकृष्णचन्द्रके चरणों में समर्पित किया और उस मणिको भी दे दिया। इस प्रकार अपने जीवनको ही भगवान्‌के चरणोंमें उन्होंने अर्पित कर दिया।



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