महाराष्ट्रमें तेरहवीं शताब्दीमें भयंकर अकाल पड़ा था। आजतक उस अकालको लोग दुर्गादेवीके नामसे स्मरण करते हैं । अन्नके अभावसे हजारों मनुष्य तड़प तड़पकर मर गये। वृक्षोंकी छाल और पत्तेतक नहीं बचे । कष्टकी कोई सीमा नहीं थी। जो लोग जीवित बचे थे, उनको भी देखकर भय लगे-ऐसे वे हो गये थे। देहमें रक्त-मांसका नामतक नहीं, जैसे सूखे कंकालपर चमड़ा चिपका दिया गया हो। भूखोंके आर्तनादसे रात दिन दिशाएँ रोया करती थीं।
उन दिनों गोवल-कुण्डा बेदरशाही राज्यके अन्तर्गत मंगलबेड्या प्रान्तका शासनभार श्रीदामाजी पंतके ऊपर था। दामाजी पंत और उनकी स्त्री दोनों ही भगवान्के अनन्य भक्त थे। पाण्डुरंगके चिन्तनमें उनका चित्त लगारहता था । श्रीहरिका स्मरण करते हुए निष्कामभावसे कर्तव्य कर्म करना उनका व्रत था। दीन-दुःखियोंकी हर प्रकार वे सेवा-सहायता करते थे। शत्रुको भी कष्टमें पड़ा देखकर व्याकुल हो जानेवाले दामाजी पंत अपनी अकालपीड़ित प्रजाका करुण-क्रन्दन सहन न कर सके। अन्नके लिये तड़प-तड़पकर प्राण देनेवाले प्राणियोंका आर्त चीत्कार उनसे सुना नहीं गया। राज्य भण्डारमें अन्न भरा पड़ा था। दयाके सम्मुख बादशाहका भय कैसा । अन्नभण्डारके ताले खोल दिये गये। भूखसे व्याकुल हजारों मनुष्य मरनेसे बच गये।
सब कहीं उदार, पुण्यात्मा पुरुषोंकी अकारण निन्दा करनेवाले होते हैं। दामाजीके सहायक नायब सूबेदारने देखा कि 'अवसर अच्छा है। यदि दामाजीको बादशाहहटा दें तो मैं प्रधान सूबेदार बन सकूँगा ।' उसने बादशाहको लिखकर सूचना भेजी- 'दामाजी पंतने अपनी कीर्तिके लिये सरकारी अन्न भण्डार लुच्चे-लफंगोंको लुटा दिया।'
नायब सूबेदारका पत्र पाते ही बादशाह क्रोधसे आग-बबूला हो गया। उसने सेनापतिको एक हजार सैनिकोंके साथ दामाजीको गिरफ्तार करके ले आने की आज्ञा दी। मुसलमान सेनापति जब मंगलबेड्या पहुँचा, उस समय दामाजी श्रीपाण्डुरंगकी पूजामें लगे थे। सेनापति उन्हें जोर-जोरसे पुकारने लगा। दामाजीकी धर्मपत्नीने तेजस्विताके साथ कहा- 'अधीर होनेकी आवश्यकता नहीं, वे पूजामें बैठे हैं। जबतक उनका नित्यकर्म पूरा न हो जाय, लाख प्रयत्न करनेपर भी तबतक मैं किसीको उनके पास नहीं जाने दूँगी।' सेनापति पतिव्रता नारीके तेजसे अभिभूत हो गया। उसका अभिमान लुप्त हो गया। वह प्रतीक्षा करने लगा।
दामाजीकी पूजा समाप्त होनेपर स्त्रीने उन्हें सेनापतिके आनेका समाचार दिया। दामाजी समझ गये कि अन्न लुटवा देनेका समाचार पाकर बादशाहने उन्हें गिरफ्तार करनेको सैनिक भेजे हैं। भयका लेशतक उनके चित्तमें नहीं था। पत्नीसे उन्होंने कहा- 'चिन्ता करनेकी कोई बात नहीं है। हमने अपने कर्तव्यका पालन ही किया है। बादशाह कठोर से कठोर दण्ड दें, इसके लिये तो हम पहलेसे तैयार थे। भगवान् पाण्डुरंगका प्रत्येक विधान दयासे पूर्ण होता है। जीवके मंगलके लिये ही उनका विधान है। उनकी प्रसन्नता ही अभीष्ट है।
पत्नीको आश्वासन देकर वे बाहर आये। सेनापतिका अधिकार-गर्व दामाजीकी तेजपूर्ण, शान्त, सौम्य मुखाकृति देखते ही दूर हो गया। उसने नम्रतापूर्वक कहा-'बादशाहने आपको शीघ्र बुला लानेके लिये मुझे भेजा है।' दामाजीने सेनापतिसे कहा-'पत्नीको आश्वासन देकर मैं साथ चलता हूँ।'
दामाजीकी भगवद्भक्ता पतिव्रता स्त्रीने पतिकी गिरफ्तारीका समाचार सुना। वह बड़ी स्थिरतासे बोली-'नाथ! भगवान् पण्ढरीनाथ जो कुछ करते हैं, उसमें हमारा हित ही होता है। उन दयामयने आपकोएकान्तसेवनका अवसर दिया है। अब आप केवल उनका ही चिन्तन करेंगे। मुझे तो इतना ही दुःख है कि यह दासी स्वामीकी चरणसेवा पति रहेगी।' पत्नीसे विदा लेकर वे बाहर आ गये। सेनापतिने उनके हाथोंमें हथकड़ी डाल दी। उनको बंदी करके वे ले चले।
दामाजीको न तो बंदी होनेका दुःख है और न पदच्युत होनेकी चिन्ता वे तो पाण्डुरंग विठ्ठलकी धुनमें तन्मय हैं। कीर्तन करते चले जा रहे हैं। गोवल कुण्डाके मार्गमें ही पण्ढरपुर पड़ता था। दामाजीकी इच्छा भगवान्का दर्शन करनेकी हुई, सेनापतिने स्वीकृति दे दी। मन्दिरमें | प्रवेश करते ही दामाजीका शरीर रोमाहित हो गया। नेत्रोंसे टपाटप बूँदें गिरने लगीं। शरीरकी सुधि जाती रही। कुछ देरमें अपनेको सम्हालकर वे भावमग्न होकर भगवान्को स्तुति करने लगे।
विलम्ब हो जानेसे सेनापति उन्हें पुकार रहा था। दामाजी भगवान्को साष्टाङ्ग प्रणाम करके उनकी मोहिनी मूर्ति हृदयमें धारण किये बाहर आ गये। उन्हें लेकर सेनापति आगे चल पड़ा।
उधर बेदरका बादशाह कैदी सूबेदारकी प्रतीक्षा कर रहा था। देर होनेसे उसका क्रोध बढ़ रहा था। इतनेमें एक काले रंगका किशोर अवस्थाका ग्रामीण पुरुष हाथमें । छोटी-सी लकड़ी लिये, कन्धेपर काली कम्बल डाले निर्भयतापूर्वक दरबारमें चला आया। उसने जोहार करके कहा - 'बादशाह सलामत ! यह चाकर मंगलबेड्यासे अपने स्वामी दामाजी पंतके पाससे आ रहा है।'
दामाजीका नाम सुनते ही बादशाहने उत्तेजित होकर पूछा- 'क्या नाम है तेरा?' उत्तर मिला- 'मेरा नाम तो बिट्टू है, सरकार! दामाजीके अन्नसे पला मैं चमार हूँ। यह अद्भुत सुन्दर रूप, यह हृदयको स्पर्श करती मधुर वाणी - बादशाह एकटक देख रहा था उस बिको बादशाहका क्रोध कबका दूर हो गया था। उन्होंने पूछा-'यहाँ क्यों आये हो?"
उस ग्रामीणने कहा-'सरकार। अपराध क्षमा हो।अकालमें आपकी प्यारी प्रजा भूखों मर रही थी। मेरे स्वामीने आपके कोठारका गाय उसकी प्राण-रक्षाके लिये बाँट दिया। मैं उस गल्लेका मूल्य देने आया हूँ। आपकृपा करके पूरा मूल्य खजानेमें जमा करा लें और मुझे रसोद दिलवानेको दया करें।'
बादशाह तो ठक् से हो गया। अब वह मन-ही मन बड़ा लज्जित हुआ। पश्चात्ताप करने लगा- 'मैंने दामाजी जैसे सच्चे सेवकपर बिना सोचे-समझे बेईमानीका दोष लगाया और उसे गिरफ्तार करनेको फौज भेज दो पश्चात्तापके साथ बिका अद्भुत अनूप रूप हृदयमें एक विचित्र हलचल मचाये था।
बादशाहको व्याकुल, अन्यमनस्क देखकर बिट्टूने एक थैली बगलसे निकालकर सामने धर दी और बोला- 'सरकार! मुझे देर हो रही है। ये रुपये जमा कराके मुझे शीघ्र रसीद दिलवा दें।'
बादशाहका जी नहीं चाहता कि बिट्टू सामनेसे एक पलको भी हटे; किंतु किया क्या जाय ? बिट्टू एक साधारण चमार सही, पर उसकी इच्छा के विपरीत मुखतक खोलने का साहस नहीं दीखता बादशाहको अपनेमें उन्होंने खजांचीके पास उसे भेज दिया। बेचारा खजांची तो हैरान रह गया। वह उस नन्ही थैलीसे जितनी बार रुपये उलटता, उतनी ही बार थैली फिर भर जाती। इस जादूगर बिट्टूसे पिण्ड छुड़ाया उसने हिसाबके पूरे रुपये गिनकर और रसीद लिखकर रसीद लेकर बिट्टू फिर बादशाह के सामने आया। बादशाहने उसपर हस्ताक्षर किये और शाही मुहर लगाकर रसीद दे दी बिडूने कहा- 'मेरे स्वामी चिन्ता करते होंगे। अब मुझे आज्ञा दीजिये।' अभिवादन करके वह नौ दो ग्यारह हो गया। बादशाहने दीवानको आज्ञा दी कि तुम शीघ्रतापूर्वक जाओ और दामाजी पंतको बड़े आदरके साथ ले आओ।'
इधर दामाजी पंत पण्डरपुरसे आगे चले आये थे। 1 एक दिन प्रात:काल स्नानादि करके गीता-पाठ करनेके 3 लिये उन्होंने ग्रन्थ खोला तो उसमें एक सुन्दर कागज निकल आया। उसमें लिखा था-'दामाजी पंतसे अपने अन्न भण्डारके पूरे रुपये चुकती भर पाये।' उसपर शाही मुहर और बादशाहके हाथकी सही थी। दामाजीको बड़ा 1 आश्चर्य हुआ पर वे पूजा पाठमें लग गये। उनके पूजासेतेन उठते बादशाहके दूत आ पहुंचे नवीन अ लेकर। सेनापतिने उनकी हथकड़ियाँ खोल दीं। उनको सम्मानपूर्वक सवारीपर बैठाया गया।
उधर बादशाहकी विचित्र दशा हो रही थी। बिटुके जाते ही वे जैसे पागल हो गये। 'बि बि की पुकार मचा दी उन्होंने चारों ओर घुड़सवार दौड़ाये गये, पर क्या बिट्टू इस प्रकार मिला करता है ? जब सवार निराश होकर लौट आये, तब तो बादशाहकी व्याकुलता सीमा पार कर गयी। 'बिट्टू कहाँ है? कहाँ है वह बिट्ट ?" कहते पैदल ही वे राजधानीसे बाहर दौड़ पड़े। उसी समय दामाजी सामनेसे आ रहे थे। बादशाह दौड़कर उनके गलेसे लिपट गये और बड़ी कातरतासे कहने लगे-'दामाजी ! दामाजी जल्दी बताओ, बताओ, मु पापीको बताओ वह प्यारा बिट्टू कहाँ है? मेरे प्राण निकले जा रहे हैं, दामाजी उस बिके सुन्दर मुखको देखे बिना मैं अभी मर जाऊँगा ! देर मत करो! बता दो!
मैं तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ। मुझे बिहूका पता बता दो।" दामाजी तो हक्के-बक्के से हो गये। वे बोले-'हुजूर! कौन बिट्टू ?'
बादशाहने कहा- 'दामाजी ! छिपाओ मत ! हाथ जोड़ता हूँ। अपने उस बिट्टू महारका पता जल्दी बता दो। वही साँवरा साँवरा, लँगोटी लगाये, हाथमें लकुटी लिये तुम्हारे | पाससे रुपये लेकर आनेवाला मेरा बिट्टू, कहाँ है वह ?' सहसा दामाजीके सामनेसे एक पर्दा हट गया। वे सारा रहस्य समझ गये। रोते-रोते वे बोले-' आप धन्य हैं! त्रिभुवनके स्वामीने आपको दर्शन दिये। मुझ अभागेके लिये वे सर्वेश्वर एक दरिद्र चमार बने और एक सामान्य मनुष्यका अभिवादन करने आये नाथ! मैंने जिसका अन्न लुटवाया था, वह मेरे प्राण लेनेके अतिरिक और क्या कर सकता था ? दयाधाम! सर्वेश्वर! आपने इतना कष्ट क्यों किया ?'
दामाजी प्रेममें उन्मत्त होकर 'पाण्डुरंग पांडुरंग!" पुकारते हुए मूर्छित हो गये। भक्तवत्सल भगवान्ने प्रकट होकर उन्हें उठाया। बादशाह भी उन सौन्दर्य- सागरके पुनः दर्शन करके कृतार्थ हो गया।
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