सो अनन्य जाकै असि मति न टरै हनुमंत ।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ॥
हैदराबाद (दक्षिण) - के नरसीब्राह्मणी ग्राममें एक भगवद्भक्त छीपी (दर्जी) दामा सेठ नामके रहते थे। इनकी पत्नीका नाम था गोणाई। इन्हीं भाग्यवान् दम्पतिके यहाँ रविवार कार्तिक शुक्ल प्रतिपद् संवत् 1327 वि0 को सूर्योदयके समय नामदेवजीका जन्म हुआ। यह कुल ही परम भागवत था। भगवान् विट्ठलके एकनिष्ठ उपासक यदुसेठजीकी पाँचवीं पीढ़ीमें दामाजी हुए थे। पूर्वजोंकी भगवन्निष्ठा, सदाचार, सरल प्रकृति, अतिथि सेवा आदि सब गुण उनमें थे। माता-पिता जो कुछ करते हैं, बालक भी वही सीखता है। नामदेवको शैशवसे ही विट्ठलके श्रीविग्रहकी पूजा, विट्ठलके गुण-गान, 'विट्ठल' नामका जप आदि देखने-सुननेको निरन्तर मिला। वे स्वयं विट्ठलमय हो गये ।
एक समय दामा सेठको घरसे कहीं बाहर जाना पड़ा। उन्होंने नामदेवपर ही घरमें विट्ठलकी पूजाका भार सौंपा। नामदेवने सरल हृदयसे पूजा की और भगवान्को कटोरे में दूधका नैवेद्य अर्पित करके नेत्र बंद कर लिये । कुछ देरमें नेत्र खोलकर देखते हैं कि दूध तो वैसा ही रखा है। बालक नामदेवने सोचा कि 'मेरे ही किसी अपराधसे विट्ठल प्रभु दूध नहीं पीते हैं।' वे बड़ी दीनतासे नाना प्रकारसे प्रार्थना करने लगे और जब उससे भी काम न चला तो रोते-रोते बोले-'विठोबा ! यदि तुमने आज दूध नहीं पिया तो मैं जीवनभर दूध नहीं पीऊँगा।' बालक नामदेवके लिये वह पत्थरकी मूर्ति नहींथी। वे तो साक्षात् पण्ढरीनाथ थे, जो पता नहीं क्यों रूठकर दूध नहीं पी रहे थे। बच्चेकी प्रतिज्ञा सुनते ही वे दयामय साक्षात् प्रकट हो गये। उन्होंने दूध पिया। उसी दिनसे नामदेवके हाथसे वे बराबर दूध पी लिया करते थे।
छोटी उम्र में ही जातीय प्रथाके अनुसार नामदेवजीका विवाह गोविन्द सेठ सदावर्तेकी कन्या राजाईके साथ हो गया था। पिताके परलोक-गमनके अनन्तर घरका भारइन्हीं पर पड़ा। स्त्री तथा माता चाहती थीं कि ये व्यापार में लगें; किंतु इन्होंने तो हरि कीर्तनका- व्यवसाय कर लिया था। नरसीब्राह्मणी गाँव छोड़कर ये पण्ढरपुर आ बसे। यहाँ गोरा कुम्हार, साँवता माली आदि भक्तोंसे इनकी प्रीति हो गयी। चन्द्रभागा नदीका स्नान, भक्त पुण्डलीक तथा उनके भगवान् पाण्डुरंगके दर्शन और विट्ठलके गुणका कीर्तन नामदेवकी उपासनाका यही स्वरूप था । नामदेवजीके अभङ्गोंमें विट्ठलकी महिमा है, तत्त्वज्ञान है, भक्ति है और विट्ठलके प्रति आभारका अपार भाव है।
श्रीज्ञानेश्वर महाराज नामदेवजीको तीर्थयात्रामें अपने साथ ले जाना चाहते थे। नामदेवजीने कहा- 'आप पाण्डुरंगसे आज्ञा दिला दें तो चलूँगा। भगवान्ने ज्ञानेश्वरजीसे कहा- 'नामदेव मेरा बड़ा लाड़ला है। मैं उसे अपने से क्षणभरके लिये भी दूर नहीं करना चाहता। तुम इसे ले तो जा सकते हो, पर इसकी सम्हाल रखना।' स्वयं पाण्डुरंगने ज्ञानेश्वरको नामदेवका हाथ पकड़ा दिया।
नामदेवजी ज्ञानेश्वर महाराजके साथ तीर्थयात्राको निकले। भगवच्चर्चा करते हुए वे चले तो जा रहे थे; पर | उनका चित्त पाण्डुरंगके वियोगसे व्याकुल था । ज्ञानेश्वरजीने भगवान्की सर्वव्यापकता बताते हुए समझाना चाहा तो वे बोले-'आपकी बात तो ठीक है; किंतु पुण्डलीकके पास खड़े पाण्डुरंगको देखे बिना मुझे कल नहीं पड़ती।'
ज्ञानेश्वर महाराजके पूछने पर नामदेवने भजनके सम्बन्धमें कहा- 'मेरे भाग्य में ज्ञान कहाँ है। मैं न ज्ञानी हूँ, न बहुश्रुत। मुझे तो विठोबाकी कृपाका ही भरोसा है। मुझे तो नाम सङ्कीर्तन ही प्रिय लगता है। यही भजन है। गुण-दोष न देखकर सबसे सच्ची नम्रताका व्यवहार करना ही वन्दन है । समस्त विश्वमें एकमात्र विट्ठलको देखना और हृदयमें उनके चरणोंका स्मरण करते रहना ही उत्तम ध्यान है। मुखसे उच्चारण किये जाते हुए नाममें मनको दृढ़तापूर्वक लगाकर तल्लीन हो जाना ही श्रवण है। भगवच्चरणोंका दृढ़ अनुसन्धान निदिध्यासन है। | सर्वभावसे एकमात्र विट्ठलका ही ध्यान, समस्त प्राणियों मेंउन्हींका दर्शन, सब औरसे आसक्ति हटाकर उनका ही चिन्तन भक्ति है। अनुरागसे एकान्तमें गोविन्दका ध्यान करनेके सिवा अन्य कहीं भी विश्राम नहीं है।'
प्रभास, द्वारका आदि तीर्थोके दर्शन करते हुए ये दोनों महापुरुष लौट रहे थे। मार्गमें बीकानेरके पास कोलायत गाँव पहुँचकर दोनोंको बड़ी प्यास लगी। पासमें एक कुँआ तो था, पर वह सूख चुका था। ज्ञानेश्वरी सिद्धयोगी थे। उन्होंने लगा सिद्धसे कुएँके भीतर पृथ्वीमें प्रवेश करके जल दिया और नामदेवजीके. लिये जल ऊपर ले आये नामदेवजीने वह जल पीना 1 स्वीकार नहीं किया। वे भावमग्र होकर कह रहे थे 'मेरे विठ्ठलको क्या मेरी चिन्ता नहीं है, जो मैं इस प्रकार जल पीऊँ?" सहसा कुआँ अपने-आप जलसे भर गया। ऊपरसे जल बहने लगा। नामदेवने इस प्रकार जल पिया।
कुछ दिनोंमें यात्रा करके वे पण्ढरपुर लौट आये। अपने हृदयधन पाण्डुरंगके दर्शन करके आनन्दमें भरकर कहने लगे- 'मेरे मनमें भ्रम था, इसीलिये तो आपने मुझे भटकाया। संसारमें अनेक तीर्थ हैं, पर मेरा मन तो चन्द्रभागाकी ओर ही लगा रहता है। आपके बिना अन्य देवकी ओर मेरे चरण चलना नहीं चाहते। जहाँ गरुड़ चिङ्कित पताकाएँ नहीं हैं, वह स्थान कैसा जहाँ वैष्णवोंका मेला न हो, जहाँ अखण्ड हरिकथा न चलती हो, वह क्षेत्र भी कैसा ।
ज्ञानेश्वर महाराजके समाधि लेनेपर नामदेवजी उत्तर भारतमें गये। नामदेवजीके जीवनका पूर्वार्ध पण्ढरपुरमें और उत्तरार्ध पंजाब आदिमें भक्तिका प्रचार करते बीता। विसोबा खेचरसे इन्हें पूर्ण ज्ञानका बोध हुआ था, अतः उन्हें ये गुरु मानते थे जो मनुष्य सर्वत्र भगवान्का ही दर्शन करता है वही धन्य है। वही सच्चा भगवद्भक्त है। नामदेवजी प्रत्येक पदार्थमें केवल भगवान्को ही देखते थे। इनकी इस दुर्लभ स्थितिका पता उनके जीवनकी अनेक घटनाओंसे लगता है।
एक बार नामदेवजीकी कुटियामें एक ओर आग लग गयी। आप प्रेममें मस्त होकर दूसरी ओरको वस्तुएँ भी अनिमें फेंकते हुए कहने लगे-'स्वामी आज तोआप लाल-लाल लपटोंका रूप बनाये बड़े अच्छे पधारे; किंतु एक ही ओर क्यों? दूसरी ओरकी इन वस्तुओंने क्या अपराध किया है, जो इनपर आपकी कृपा नहीं हुई? आप इन्हें भी स्वीकार करें। कुछ देरमें आग बुझ गयी। कुटिया जल गयी वर्षाऋतुमें, पर नामदेवको कोई चिन्ता ही नहीं। उनकी चिन्ता करनेवाले श्रीविट्ठल स्वयं मजदूर बनकर पधारे और उन्होंने कुटिया बनाकर छप्पर छा दिया। तबसे पाण्डुरंग 'नामदेवकी छान छा देनेवाले' प्रसिद्ध हुए।
एक बार नामदेवजी किसी गाँवके सूने मकान में ठहरने लगे। लोगोंने बहुत मना किया कि इसमें अत्यन्त निष्ठुर ब्रह्मराक्षस रहता है। आप बोले- 'मेरे विट्ठल ही तो भूत भी बने होंगे। आधी रातको भूत आया। उसका शरीर बड़ा भारी था। नामदेवजी उसे देखकर भावमग्र होकर नृत्य करने और गाने लगे
भले पधारे लंबकनाथ ।
धरनी पाँव स्वर्ग लौं माधा, जोजन भरके लॉंबे हाथ
सिव सनकादिक पार न पावें अनगिन साज सजायें साथ।
नामदेव के तुमही स्वामी, कीजै प्रभुजी मोहि सनाथ ॥
अब भला, वहाँ प्रेतका प्रेतत्व कहाँ कैसे टिक सकता था। वहाँ तो शङ्ख-चक्र-गदा-पद्मधारी श्रीपाण्डुरंग नामदेवके सामने प्रत्यक्ष खड़े थे, मन्द मन्द मुसकराते हुए।
एक बार नामदेवजीने जंगलमें पेड़के नीचे रोटी बनायी, भोजन बनाकर लघुशङ्का करने गये। लौटकर देखते हैं तो एक कुत्ता मुखमें रोटी दबाये भागा जा रहा है। आपने घीकी कटोरी उठायी और दौड़े उसके पीछे यह पुकारते हुए 'प्रभो! ये रोटियाँ रूखी हैं। आप रूखी रोटी न खायें। मुझे घी चुपड़ लेने दें, फिर भोग लगायें।' भगवान् उस कुत्तेके शरीरसे ही प्रकट हुए अपने चतुर्भुजरूपमें नामदेव उनके चरणोंपर गिर पड़े।
महाराष्ट्रमें वारकरी पन्यके एक प्रकारसे नामदेवजी ही संस्थापक हैं। अनेक लोग उनकी प्रेरणासे भक्तिके पावनपथमें प्रवृत्त हुए। 80 वर्षको अवस्थामें संवत् 1407 वि0 में नश्वर देह त्यागकर ये परमधाम पधारे !
so anany jaakai asi mati n tarai hanumant .
main sevak sacharaachar roop svaami bhagavant ..
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bhale padhaare lanbakanaath .
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siv sanakaadik paar n paaven anagin saaj sajaayen saatha.
naamadev ke tumahee svaamee, keejai prabhujee mohi sanaath ..
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