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महात्मा जडभरत की मार्मिक कथा
महात्मा जडभरत की अधबुत कहानी - Full Story of महात्मा जडभरत (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [महात्मा जडभरत]- भक्तमाल


प्राचीन कालमें भरत नामके एक महान् प्रतापी एवं भगवद्भक्त राजा हो गये हैं, जिनके नामसे यह देश 'भारतवर्ष' कहलाता है। अन्त समयमें उनकी एक मृगशावकमें आसक्ति हो जानेके कारण उन्हें मृत्युके बाद मृगका शरीर मिला और मृगशरीर त्यागनेपर वे उत्तम ब्राह्मणकुलमें जडभरतके रूपमें अवतीर्ण हुए। जडभरतके पिता आङ्गिरस गोत्रके वेदपाठी ब्राह्मण थे और बड़े सदाचारी एवं आत्मज्ञानी थे। वे शम, दम, सन्तोष, क्षमा, नम्रता आदि गुणोंसे विभूषित थे और तप, दान तथा धर्माचरणमें रत रहते थे। भगवान्‌के अनुग्रहसे जडभरतको अपने पूर्वजन्मकी स्मृति बनी हुई थी। अतः वे फिर कहीं मोहजालमें न फँस जायँ, इस भावसे बचपनसे ही निःसङ्ग होकर रहने लगे। उन्होंने अपना स्वरूप जान बूझकर उन्मत्त, जड, अन्धे और बहिरेके समान बना लिया और इसी छद्मवेषमें वे निर्द्वन्द्व होकर विचरने लगे। उपनयनके योग्य होनेपर पिताने उनका यज्ञोपवीत संस्कार करवाया और वे उन्हें शौचाचारकी शिक्षा देने लगे। परंतु वह आत्मनिष्ठ बालक जान-बूझकर पिताकी शिक्षाके विपरीत ही आचरण करता। ब्राह्मणने उन्हें वेदाध्ययन करानेके विचारसे पहले चार महीनोंतक व्याहति, प्रणव और शिरके सहित त्रिपदा गायत्रीका अभ्यास कराया; परन्तु इतने दीर्घकालमें वे उन्हें स्वर आदिके सहित गायत्री मन्त्रका उच्चारण भी ठीक तरहसे नहीं करा सके। कुछ समय बाद जडभरतके पिता अपनेपुत्रको विद्वान् देखनेकी आशाको मनमें ही लेकर इस असार संसारसे चल बसे और इनकी माता इन्हें तथा इनकी बहिनको इनकी सौतेली माको सौंपकर स्वयं पतिका सहगमन कर पतिलोकको चली गयी।

पिताका परलोकवास हो जानेपर इनके सौतेले भाइयोंने, जिनका आत्मविद्याकी ओर कुछ भी ध्यान नहीं था और जो कर्मकाण्डको ही सब कुछ समझते थे, इन्हें जडबुद्धि एवं निकम्मा समझकर पढ़ानेका आग्रह ही | छोड़ दिया। जडभरतजी भी जब लोग इनके स्वरूपको न जानकर इन्हें जड, उन्मत्त आदि कहकर इनकी अवज्ञा करते, तब उन्हें जड और उन्मत्तका-सा ही उत्तर देते लोग इन्हें जो कोई भी काम करनेको कहते, उसे ये तुरंत कर देते। कभी बेगारमें, कभी मजदूरीपर, किसी समय भिक्षा माँगकर और कभी बिना उद्योग किये ही जो कुछ बुरा-भला अन्न इन्हें मिल जाता, उसीसे ये अपना निर्वाह कर लेते थे। स्वादकी बुद्धिसे तथा इन्द्रियोंकी तृप्तिके लिये कभी कुछ न खाते थे। क्योंकि उन्हें यह बोध हो गया था कि स्वयं अनुभवरूप आनन्दस्वरूप आत्मा मैं ही हूँ और मान-अपमान, जय-पराजय आदि द्वन्द्वोंसे उत्पन्न होनेवाले सुख-दुःखसे वे सर्वथा अतीत थे। वे सर्दी, गरमी, वायु तथा बरसातमें भी वृषभके समान सदा नग्न रहते। इससे उनका शरीर पुष्ट और दृढ़ हो गया था। वे भूमिपर शयन करते, शरीरमें कभी तेल आदि नहीं लगाते थे और स्नान भी नहीं करते थे, जिससे उनकेशरीरपर धूल जम गयी थी और उनके उस मलिन वेषके अंदर उनका ब्रह्मतेज उसी प्रकार छिप गया था, जैसे हरेपर मिट्टी जम जानेसे उसका तेज प्रकट नहीं होता। वे कमरमें एक मैला-सा वस्त्र लपेटे रहते और शरीर पर एक मैला-सा जनेऊ डाले रहते, जिससे लोग इन्हें जातिमात्रका ब्राह्मण अथवा अधम ब्राह्मण समझकर इनका तिरस्कार करते। परंतु ये इसकी तनिक भी परवा नहीं करते थे। इनके भाइयोंने जब देखा कि ये दूसरोंके यहाँ मजदूरी करके पेट पालते हैं, तब उन्होंने लोकलज्जासे इन्हें धानके खेतमें क्यारी इकसार करनेके कार्यमें नियुक्त कर दिया; किंतु कहाँ मिट्टी अधिक डालनी चाहिये और कहाँ कम डालनी चाहिये इसका इन्हें बिलकुल ध्यान नहीं रहता और भाइयोंके दिये हुए चावलके दानोंको, खलको, भूसीको, घुने हुए उड़द और बरतनमें लगी हुई अन्नको खुरचन आदिको बड़े प्रेमसे खा लेते।

एक दिन लुटेरोंके सरदारने सन्तानकी कामनासे देवी भद्रकालीको नरबलि देनेका सङ्कल्प किया। उसने इस कामके लिये किसी मनुष्यको पकड़कर मंगवाया, किंतु वह मरणभयसे इनके चंगुल से छूटकर भाग गया। उसे ढूँढ़नेके लिये उसके साथियोंने बहुत दौड़-धूप की, परंतु अंधेरी रातमें उसका कहीं पता न चला। अकस्मात् दैवयोगसे उनकी दृष्टि जडभरतजीपर पड़ी, जो एक टाँगपर खड़े होकर हरिन, सूअर आदि जानवरोंसे खेतकी रखवाली कर रहे थे। इन्हें देखकर वे लोग बहुत प्रसन्न हुए और "यह पुरुष पशु उत्तम लक्षणोंवाला है, इसे देवीकी भेंट चढ़ानेसे हमारे स्वामीका कार्य अवश्य सिद्ध होगा' यह समझकर वे लोग इन्हें रस्सीसे बांधकर देवीके मन्दिरमें ले गये। उन्होंने इन्हें विधिवत् स्नान कराकर कोरे वस्त्र पहनाये और आभूषण, पुष्पमाला और तिलक आदिसे अलंकृतकर भोजन कराया; फिर गान, स्तुति एवं मृदङ्ग तथा मजीरोंका शब्द करते हुए इन्हें देवीके आगे ले जाकर बिठा दिया। तदनन्तर पुरोहितने उस पुरुष पशुके रुधिररूप मद्यसे देवीको तृप्त करनेके लिये मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित किये हुए कराल खड्गको उठाया और चाहा कि एक ही हाथसे उनका काम तमाम कर दें। इतनेमें हो उसने देखा किमूर्ति बड़ा भयङ्कर शब्द हुआ और साक्षात् भद्रकालीने मूर्ति प्रकट होकर पुरोहितके हमसे तलवार छीन ली और उसीसे उन पापी दुष्टोंके सिर काट डाले।

एक दिनकी बात है, सिंधुसौवीर देशोंका राजा रहूगण तत्वज्ञान प्राप्त करने की इच्छासे कपिलमुनिके आपको जा रहा था। इसुमती नदीके तौरपर पालकी उठानेवालोंमें एक हारको कमी पड़ गयी। दैवयोग महात्मा जडभरती आ पहुँचे। कहारोंने देखा कि यह मनुष्य हट्टा-कट्टा, नौजवान और गठीले शरीरका है, अतः यह पालकी ढोनेमें बहुत उपयुक्त होगा।' इसलिये उन्होंने इनको जबरदस्ती पकड़कर अपनेगें शामिल कर लिया। पालकी उठाकर चलने में हिंसा न हो जाय, इस भयसे ये बाणभर आगेकी पृथ्वीको देखकर वहाँ कोई फोड़ा, चींटी आदि तो नहीं है-यह निश्चय करके आगे थे। इस कारण इनको गति दूसरे पालकी उठानेवालोंक साथ एक सरीखी नहीं हुई और पालकी टेढ़ी होने लगी। तब राजाको उन पालकी उठानेवालोंपर बड़ा क्रोध आया और वह उन्हें डाँटने लगा। इसपर उन्होंने कहा कि 'हमलोग तो ठीक चल रहे हैं, यह नया आदमी ठीक तरहसे नहीं चल रहा है।' यह सुनकर राजा रहूगण, यद्यपि उनका स्वभाव बहुत शान्त था, क्षत्रियस्वभावके | कारण कुछ तमतमा उठे और जडभरतजीके स्वरूपको न पहचान उन्हें बुरा-भला कहने लगे। जडभरतजी उनकी बातोंको बड़ी शान्तिपूर्वक सुनते रहे और अन्तमें उन्होंने उनको बालोंका बड़ा सुन्दर और ज्ञानपूर्ण उत्तर दिया। राजा रहूगण भी उत्तम श्रद्धाके कारण तत्त्वको जानने के अधिकारी थे जब उन्होंने इस प्रकारका सुन्दर उत्तर उस पालकी ढोनेवाले मनुष्यसे सुना, तब उनके मनमें यह निश्चय हो गया कि हो न हो ये कोई उपवेषधारी महात्मा हैं। अतः वे अपने बड़प्पनके अभिमानको त्यागकर तुरंत पालकोसे नीचे उतर पड़े और लगे उनके चरणों में गिरकर गिड़गिड़ाने और क्षमा माँगने। तब जडभरतजीने राजाको अध्यात्मतत्त्वका बड़ा सुन्दर उपदेश दिया, जिसे सुनकर राजा कृतकृत्य हो गये और अपनेको धन्य मानने लगे।



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मेरा यार यशुदा कुंवर हो चूका है
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किशोरी तेरे चरणन में, महारानी तेरे
किशोरी कुछ ऐसा इंतजाम हो जाए।
जुबा पे राधा राधा राधा नाम हो जाए॥
प्रीतम बोलो कब आओगे॥
बालम बोलो कब आओगे॥
अपने दिल का दरवाजा हम खोल के सोते है
सपने में आ जाना मईया,ये बोल के सोते है
श्री राधा हमारी गोरी गोरी, के नवल
यो तो कालो नहीं है मतवारो, जगत उज्य
बाँस की बाँसुरिया पे घणो इतरावे,
कोई सोना की जो होती, हीरा मोत्यां की जो
मेरे बांके बिहारी बड़े प्यारे लगते
कही नज़र न लगे इनको हमारी
शिव समा रहे मुझमें
और मैं शून्य हो रहा हूँ
ना मैं मीरा ना मैं राधा,
फिर भी श्याम को पाना है ।
बृज के नन्द लाला राधा के सांवरिया
सभी दुख: दूर हुए जब तेरा नाम लिया
नी मैं दूध काहे नाल रिडका चाटी चो
लै गया नन्द किशोर लै गया,
वृदावन जाने को जी चाहता है,
राधे राधे गाने को जी चाहता है,
जिंदगी एक किराये का घर है,
एक न एक दिन बदलना पड़ेगा॥
जीवन खतम हुआ तो जीने का ढंग आया
जब शमा बुझ गयी तो महफ़िल में रंग आया
दिल की हर धड़कन से तेरा नाम निकलता है
तेरे दर्शन को मोहन तेरा दास तरसता है
रंग डालो ना बीच बाजार
श्याम मैं तो मर जाऊंगी
यह मेरी अर्जी है,
मैं वैसी बन जाऊं जो तेरी मर्ज़ी है
मुझे चढ़ गया राधा रंग रंग, मुझे चढ़ गया
श्री राधा नाम का रंग रंग, श्री राधा नाम
सब दुख दूर हुए जब तेरा नाम लिया
कौन मिटाए उसे जिसको राखे पिया
ज़री की पगड़ी बाँधे, सुंदर आँखों वाला,
कितना सुंदर लागे बिहारी कितना लागे
मुझे चाहिए बस सहारा तुम्हारा,
के नैनों में गोविन्द नज़ारा तुम्हार
करदो करदो बेडा पार, राधे अलबेली सरकार।
राधे अलबेली सरकार, राधे अलबेली सरकार॥
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बहुत दिन बीत गए, बहुत युग बीत गए ॥
नटवर नागर नंदा, भजो रे मन गोविंदा
शयाम सुंदर मुख चंदा, भजो रे मन गोविंदा
सुबह सवेरे  लेकर तेरा नाम प्रभु,
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मीठे रस से भरी रे, राधा रानी लागे,
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