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श्रीश्रीचैतन्यमहाप्रभु की मार्मिक कथा
श्रीश्रीचैतन्यमहाप्रभु की अधबुत कहानी - Full Story of श्रीश्रीचैतन्यमहाप्रभु (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [श्रीश्रीचैतन्यमहाप्रभु]- भक्तमाल


श्रीचैतन्यमहाप्रभुका प्राकट्य शक संवत् 1400 की फाल्गुन शुक्ला 15 को दिनके समय सिंहलग्रमें पश्चिमी बंगालके नवद्वीप नामक ग्राममें हुआ था। इनके पिताका | नाम जगन्नाथ मिश्र और माताका नाम शचीदेवी था। ये । भगवान् श्रीकृष्णके अनन्य भक्त थे। इन्हें लोग श्रीराधाका अवतार मानते है। वङ्गालके वैष्णव तो इन्हें साक्षात् | पूर्णब्रह्म ही मानते हैं। इनके जीवनके अन्तिम छः वर्ष राधाभावमें ही बीते। उन दिनों इनके अंदर महाभावके सारे लक्षण प्रकट हुए थे। जिस समय ये श्रीकृष्णके विरहमें उन्मत्त होकर रोने और चीखने लगते थे, उस समय पत्थरका हृदय भी पिघल जाता था। इनके व्यक्तित्वका लोगोंपर ऐसा विलक्षण प्रभाव पड़ा कि श्रीवासुदेव सार्वभौम और प्रकाशानन्द सरस्वती जैसे अद्वैत वेदान्ती भी इनके थोड़ी देरके सङ्गसे श्रीकृष्णप्रेमी बन गये। यही नहीं, इनके विरोधी भी इनके भक्त बन गये और जगाई-मधाई-जैसे महान् दुराचारी भी संत बन गये। कई बड़े-बड़े संन्यासी भी इनके अनुयायी हो गये। यद्यपि इनका प्रधान उद्देश्य भगवद्भक्ति और भगवन्नामका प्रचार करना और जगत् में प्रेम और शान्तिका साम्राज्य स्थापित करना था, तथापि इन्होंने दूसरे धर्मों और दूसरे साधनोंको कभी निन्दा नहीं की। इनके भक्तिसिद्धान्तमें द्वैत और अद्वैतका बड़ा सुन्दर समन्वय हुआ है। इन्होंने कलिमलग्रसित जीवोंके उद्धारके लिये भगवन्नामके जप और कीर्तनको ही मुख्य और सरल उपाय माना है। इनकी दक्षिण यात्रामें गोदावरीके तटपर इनका इनके शिष्य राय रामानन्दके साथ बड़ा विलक्षण संवाद हुआ, जिसमें इन्होंने राधाभावको सबसे ऊँचा भाव बतलाया। इन्होंने अपने शिक्षाष्टकमें अपने उपदेशोंका सार भर दिया है। यहाँ शिक्षाष्टकको अर्थसहित मन लगाकर पढ़िये ।

घेतोदर्पणमार्जन भवमहादावाग्निनिर्वापणं

श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम् ।

आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं

सर्वात्मस्वपनं परं विजयते श्रीकृष्णसंकीर्तनम् ॥

भगवान् श्रीकृष्णके नाम और गुणोंका कीर्तन सर्वोपरि
हैं, उसकी तुलनामें और कोई साधन नहीं ठहर सकता। वह चित्तरूपी दर्पणको स्वच्छ कर देता है, संसाररूपी घोर दावानलको बुझा देता है, कल्याणरूपी कुमुदको अपने किरण-जालसे विकसित करनेवाला तथा आनन्दके समुद्रको बढ़ा देनेवाला चन्द्रमा है, विद्यारूपिणी वधूको जीवन देनेवाला है, पद-पदपर पूर्ण अमृतका आस्वादन करानेवाला तथा सम्पूर्ण आत्माको शान्ति एवं आनन्दकी धारामें डुबा देनेवाला है।

नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-

स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः ।

एतादृशी तव कृपा भगवन् ममापि

दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ॥

भगवन्! आपने अपने अनेकों नाम प्रकट करके उनमें अपनी सम्पूर्ण भागवती शक्ति डाल दी - उन्हें अपने ही समान सर्वशक्तिमान् बना दिया और उन्हें स्मरण करनेका कोई समयविशेष भी निर्धारित नहीं किया- हम जब चाहें, तभी उन्हें याद कर सकते हैं। प्रभो! आपकी तो इतनी कृपा है; परंतु मेरा दुर्भाग्य भी इतना प्रबल है कि आपके नाम-स्मरणमें मेरी रुचि - मेरी प्रीति नहीं हुई।

तृणादपि

सुनीचेन

तरोरिव सहिष्णुना ।

अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥ तिनकेसे भी अत्यन्त छोटा, वृक्षसे भी अधिक सहनशील, स्वयं मानरहित किंतु दूसरोंके लिये मानप्रद बनकर भगवान् श्रीहरिका नित्य निरन्तर कीर्तन करना चाहिये।

न धनं न जनं न सुन्दरीं कवितां वा जगदीश कामये।

मम जन्मनि जन्मनीश्वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि ॥

हे जगदीश्वर ! मुझे न धन-बल चाहिये न जनबल, न सुन्दरी स्त्री और न कवित्व-शक्ति अथवा सर्वज्ञत्व ही चाहिये। मेरी तो जन्म-जन्मान्तरमें आप परमेश्वरके चरणोंमें अहैतुकी भक्ति-अकारण प्रीति बनी रहे।

अयि नन्दतनूज किङ्करं पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ ।

कृपया तव पादपङ्कजस्थितधूलीसदृशं विचिन्तय ॥

अहो नन्दनन्दन घोर संसार-सागरमें पड़े हुए सेवकको कृपापूर्वक अपने चरणकमलोंमें लगे हुए एक रजःकणके तुल्य समझ लो

नयनं गलदसुधारणा बदन गद्गदरुद्धया गिरा।

पुलकैनिचितं वपुः कदा तव नामग्रहणे भविष्यति ।।

प्रभो वह दिन कब होगा, जब तुम्हारा नाम लेनेपर मेरे नेत्र निरन्तर बहते हुए आंसुओंको धारासे सदा भोगे रहेंगे, मेरा कण्ठ गद्गद हो जानेके कारण मेरे मुखसे रुक-रुककर वाणी निकलेगी तथा मेरा शरीर रोमाशसे व्याप्त हो जायगा ?

युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्।

शून्यायितं जगत् सर्व गोविन्दविरहेण मे ॥

अहो! श्रीगोविन्दके विरहमें मेरा एक-एक पल युगके समान बीत रहा है, नेत्रोंमें पावस ऋतु छा गयी है सारा संसार सूना हो गया है।

आश्लिष्य वा पादरतो पिनष्ठु मा -

मदर्शनान्मर्महतां करोतु वा l

यथा तथा वा विदधातु लम्पटो

मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः ।

वह लम्पट चाहे मुझे गलेसे लगाये अथवा पैरोंसे लिपटी हुई मुझको चरणोंके तले दबाकर पीस डाले अथवा मेरी आँखोंसे ओझल रहकर मुझे मर्माहत करे। वह जो कुछ भी करे, मेरा प्राणनाथ तो वही है, दूसरा कोई नहीं।

श्रीचैतन्य भगवन्नामके बड़े ही रसिक, अनुभवी और प्रेमी थे। इन्होंने बतलाया है -

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥

- 'यह महामन्त्र सबसे अधिक लाभकारी और भगवत्प्रेमको बढ़ानेवाला है। भगवन्नामका बिना श्रद्धाके उच्चारण करनेसे भी मनुष्य संसारके दुःखोंसे छूटकर भगवान्‌के परम धामका अधिकारी बन जाता है।'

श्रीचैतन्यमहाप्रभुने हमें यह बताया है कि भक्तोंको भगवन्नामके उच्चारणके साथ दैवीसम्पत्तिका भी अर्जन करना चाहिये। दैवीसम्पत्तिके प्रधान लक्षण उन्होंने बताये हैं- दया, अहिंसा, मत्सरशून्यता, सत्य, समता, उदारता,मृदुता शौच, अनासक्ति, परोपकार, समता, निष्काम चित्तकी स्थिरता, इन्द्रियदमन, युक्ताहारविहार, गम्भीरता, परदुखकातरता मैत्री तेज धैर्य इत्यादि श्रीचैतन्यमहाप्रभु आवरणको पवित्रतापर बहुत जोर देते थे। उन्होंने अपने संन्यासी शिष्योंके लिये यह नियम बना दिया था कि | कोई स्त्रीसे बाततक न करे। एक बार इनके शिष्य छोटे हरिदासने माधवी नामकी एक वृद्धा खीसे बात कर ली थी, जो स्वयं महाप्रभुकी भक्त थी। केवल इस अपराधके | लिये उन्होंने हरिदासका सदाके लिये परित्याग कर दिया, यद्यपि उनका चरित्र सर्वथा निर्दोष था।

श्रीचैतन्यमहाप्रभु चौबीस वर्षकी अवस्थातक गृहस्थाश्रममें रहे। इनका नाम 'निमाई' पण्डित था ये न्यायके बड़े पण्डित थे। इन्होंने न्यायशास्त्रपर एक अपूर्व ग्रन्थ लिखा था, जिसे देखकर इनके एक मित्रको बड़ी ईर्ष्या हुई। क्योंकि उन्हें यह भय हुआ कि इनके ग्रन्थके प्रकाशमें आनेपर उनके ग्रन्थका आदर कम हो जायगा। इसपर श्रीचैतन्यने अपने ग्रन्थको गङ्गाजीमें यहा दिया। कैसा अपूर्व त्याग है। पहली पत्नी लक्ष्मीदेवीका देहान्त हो जाने के बाद इन्होंने दूसरा विवाह श्रीविष्णुप्रियाजीके | साथ किया था। परंतु कहते हैं, इनका अपनी पत्नीके प्रति सदा पवित्र भाव रहा। चौबीस वर्षकी अवस्थामें इन्होंने केशय भारती नामक संन्यासी महात्मासे संन्यासकी दीक्षा ग्रहण की। इन्होंने संन्यास इसलिये नहीं लिया कि भगवत्प्रासिके लिये संन्यास लेना अनिवार्य है इनका उद्देश्य काशी आदि तीर्थोके संन्यासियोंको भक्तिमार्गमें लगाना था। बिना पूर्ण वैराग्य हुए ये किसीको संन्यासकी दीक्षा नहीं देते थे इसीलिये इन्होंने पहली बार अपने शिष्य रघुनाथदासको संन्यास लेनेसे मना किया था।

इनके जोवनमें अनेकों अलौकिक घटनाएँ हुई, जो किसी मनुष्यके लिये सम्भव नहीं और जिनसे इनका ईश्वरत्व प्रकट होता है। इन्होंने एक बार श्री अद्वैतप्रभुको विश्वरूपका दर्शन कराया था तथा नित्यानन्दप्रभुको एक बार शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म, शाङ्गधनुष तथा मुरली लिये हुए षड्भुज नारायणके रूपमें, दूसरी बार दो हाथोंमें मुरली और दो हाथोंमें शत्रु-चक्र लिये हुए चतुर्भुजरूपमें | और तीसरी बार द्विभुज श्रीकृष्ण के रूपमें दर्शन दियाथा। इनकी माता शचीदेवीने इनके अभिहृदय | श्रीनित्यानन्दप्रभु और इनको बलराम और श्रीकृष्णके रूपमें देखा था। गोदावरीके तटपर राय रामानन्दके सामने ये रसराज (श्रीकृष्ण) और महाभाव ( श्रीराधा)-के युगलरूपमें प्रकट हुए, जिसे देखकर राय रामानन्द अपने शरीरको नहीं सम्हाल सके और मूर्छित होकर गिर पड़े। अपने जीवन के शेष भागमें, जब ये नीलाचलमें रहते थे, एक बार ये बंद कमरेमेंसे बाहर निकल आये थे। उस समय इनके शरीरके जोड़ खुल गये, जिससे इनके अवयव बहुत लंबे हो गये। एक दिन इनके अवयव कछुएके अवयवोंकी भाँति सिकुड़ गये और ये मिट्टीके लोके समान पृथ्वीपर पड़े रहे। इसके अतिरिक्त इन्होंने कई साधारण चमत्कार भी दिखलाये। उदाहरणतः श्रीचैतन्य चरितामृतमें लिखा है कि इन्होंने कई कोढ़ियों और अन्य असाध्य रोगोंसे पीड़ित रोगियोंको रोगमुक्तकर दिया। दक्षिणमें जब ये अपने भक्त नरहरि सरकार ठाकुरके गाँव श्रीखण्डमें पहुँचे, तब नित्यानन्दप्रभुको मधुकी आवश्यकता हुई। इन्होंने उस समय एक सरोवरके जलको शहदके रूपमें पलट दिया, जिससे आजतक वह तालाब मधुपुष्करिणीके नामसे विख्यात है। इनके उपदेशों और चरित्रोंका प्रभाव आज भी लोगोंपर खूब है।

श्रीचैतन्यमहाप्रभुके प्रधान प्रधान अनुयायियोंके नाम हैं— श्रीनित्यानन्दप्रभु श्रीअद्वैतप्रभु, राय रामानन्द, श्रीरूपगोस्वामी, श्रीसनातन गोस्वामी, रघुनाथभट्ट, श्रीजीवगोस्वामी, गोपालभट्ट, रघुनाथदास, हरिदास साधु और नरहरि सरकार ठाकुर।

श्रीचैतन्यमहाप्रभुका जीवन प्रेममय है, उसे जाननेके लिये अँगरेजीकी Lord Gourang और बङ्गलाके श्रीचैतन्य चरितामृत, श्रीचैतन्य भागवत और अमिय निमाईचरित तथा हिन्दीके श्रीचैतन्य चरितावली (गीताप्रेस, गोरखपुरसे प्रकाशित) नामक ग्रन्थोंको पढ़ना चाहिये।



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shreechaitanyamahaaprabhuka praakaty shak sanvat 1400 kee phaalgun shukla 15 ko dinake samay sinhalagramen pashchimee bangaalake navadveep naamak graamamen hua thaa. inake pitaaka | naam jagannaath mishr aur maataaka naam shacheedevee thaa. ye . bhagavaan shreekrishnake anany bhakt the. inhen log shreeraadhaaka avataar maanate hai. vangaalake vaishnav to inhen saakshaat | poornabrahm hee maanate hain. inake jeevanake antim chhah varsh raadhaabhaavamen hee beete. un dinon inake andar mahaabhaavake saare lakshan prakat hue the. jis samay ye shreekrishnake virahamen unmatt hokar rone aur cheekhane lagate the, us samay pattharaka hriday bhee pighal jaata thaa. inake vyaktitvaka logonpar aisa vilakshan prabhaav pada़a ki shreevaasudev saarvabhaum aur prakaashaanand sarasvatee jaise advait vedaantee bhee inake thoda़ee derake sangase shreekrishnapremee ban gaye. yahee naheen, inake virodhee bhee inake bhakt ban gaye aur jagaaee-madhaaee-jaise mahaan duraachaaree bhee sant ban gaye. kaee bada़e-bada़e sannyaasee bhee inake anuyaayee ho gaye. yadyapi inaka pradhaan uddeshy bhagavadbhakti aur bhagavannaamaka prachaar karana aur jagat men prem aur shaantika saamraajy sthaapit karana tha, tathaapi inhonne doosare dharmon aur doosare saadhanonko kabhee ninda naheen kee. inake bhaktisiddhaantamen dvait aur advaitaka bada़a sundar samanvay hua hai. inhonne kalimalagrasit jeevonke uddhaarake liye bhagavannaamake jap aur keertanako hee mukhy aur saral upaay maana hai. inakee dakshin yaatraamen godaavareeke tatapar inaka inake shishy raay raamaanandake saath bada़a vilakshan sanvaad hua, jisamen inhonne raadhaabhaavako sabase ooncha bhaav batalaayaa. inhonne apane shikshaashtakamen apane upadeshonka saar bhar diya hai. yahaan shikshaashtakako arthasahit man lagaakar padha़iye .

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madarshanaanmarmahataan karotu va l

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matpraananaathastu s ev naaparah .

vah lampat chaahe mujhe galese lagaaye athava paironse lipatee huee mujhako charanonke tale dabaakar pees daale athava meree aankhonse ojhal rahakar mujhe marmaahat kare. vah jo kuchh bhee kare, mera praananaath to vahee hai, doosara koee naheen.

shreechaitany bhagavannaamake bada़e hee rasik, anubhavee aur premee the. inhonne batalaaya hai -

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hare raam hare raam raam raam hare hare ..

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shreechaitanyamahaaprabhuke pradhaan pradhaan anuyaayiyonke naam hain— shreenityaanandaprabhu shreeadvaitaprabhu, raay raamaanand, shreeroopagosvaamee, shreesanaatan gosvaamee, raghunaathabhatt, shreejeevagosvaamee, gopaalabhatt, raghunaathadaas, haridaas saadhu aur narahari sarakaar thaakura.

shreechaitanyamahaaprabhuka jeevan premamay hai, use jaananeke liye angarejeekee Lord Gourang aur bangalaake shreechaitany charitaamrit, shreechaitany bhaagavat aur amiy nimaaeecharit tatha hindeeke shreechaitany charitaavalee (geetaapres, gorakhapurase prakaashita) naamak granthonko padha़na chaahiye.

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एक दिन वो भोले भंडारी बन कर के ब्रिज की
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