आचार्य भगवान् श्रीरामानन्दाचार्यजी महाराजकी आज्ञा पाकर भक्त मुनिजी चित्रकूटको चल दिये। गङ्गाजीके किनारे-किनारे चलकर प्रयागराज पहुँचे। वहाँसे चित्रकूट गये। चित्रकूटमें विमलसलिलप्रवाहिनी श्रीमन्दाकिनीजीके किनारे, एक टीलेपर आप खड़े हुए। वहाँ प्राचीन संतकी गुफा थी। उसमेंसे मधुर ध्वनि निकली और वह उनके श्रवणोंमें जा पहुँची। इधर-उधर देखनेपर गुफाका द्वार मिला। टटिया हटाकर भीतर चले गये, भीतर एक महात्माके दर्शन हुए, प्रणाम किया, आशीर्वाद मिला। महात्माजीने कहा कि 'इस सीढ़ीसे गुफामें चले जाओ।' आज्ञानुसार उसी मार्गसे वे भीतर घुस गये। अंदर जानेपर एक बहुत अच्छे साफ-सुथरे प्राङ्गणमें जा पहुँचे, जो अत्यन्त प्रकाशमान था। वहाँ देखते हैं कि सुन्दर आसन लगे हुए हैं, उनमेंसे चार आसनोंपर चार भक्त मुनि योगसमाधिमें लीन विराजमान हैं। शेष आसन खाली थे। सोचने लगे कि शायद मुनिजन कहीं गये हुए हैं। प्रत्येक आसनपर जलभरा कमण्डलु और कन्द मूल-फल रखे हुए थे। बीचमें एक बड़ा सुन्दर तालाब,पुष्पवाटिका है, जिसमें नाना प्रकारके फूल खिले हुए हैं, भ्रमर गूँज रहे हैं। यह देखकर आप बहुत प्रसन्न हुए। आपने सरोवरमें स्नानकर पुष्पचयन किया और अपने 'भगवान् विजयराघवजी की पूजा की। एक आसनपर जा बैठे, धूनी जगायी, भगवान्को भोग लगाकर प्रसाद पाया। उस गुफामें जितने भक्तमुनि भजन करते, वे सब ऐकान्तिक थे। किसीसे कोई मुनि बातचीत नहीं करता था। कन्द-फूल-फल सबके आसनोंपर पहुँच जाता था। वे वहाँ रहकर भजन करने लगे, मन रम गया और आनन्दमें निमग्न रहते हुए बहुत दिन बीत गये। एक दिन अपने भगवान्की पूजाके लिये तुलसी और फूल लेनेके लिये वाटिकामें गये, तब कुञ्जप्रसारिणीके पास पहुँचते ही उनका शरीर पत्थरके विग्रहतुल्य हो गया। उसीमें मस्त हुए बहुत दिन हो गये। एक दिन एकाएक सोलह योगिनियोंका एक मण्डल उस कुञ्जप्रसारिणीके पास आकाशसे उतरा। उनकी हथेलीपर एक फूलोंसे भरा हुआ दिव्य थाल था । सबने भक्त मुनिकी भव्यमूर्तिपर पुष्प चढ़ाये, नमस्कार किया और अपना-अपना थालरखकर मनोहर मधुरस्वरसे वे स्तुतिगान करने लगीं। स्तुतिके समाप्त होते ही उस भव्यमूर्ति में चेतना दौड़ आयी, स्तब्धता दूर हो गयी और सहज समाधि भङ्ग हुई वे लड़खड़ाकर गिर पड़े, कुछ देरमें सँभले, तब सब योगिनियाँ चली गयीं। साधारण स्थितिमें आ जानेपर उन्हें अपने विजयराघव' भगवान् की पूजाका स्मरण हो आया। फूल, तुलसीदल उतारनेको आगे बढ़े। अब कोई किसी तरहकी रुकावट भी नहीं। अब तो श्रीकुञ्जप्रसारिणीजीने अपना रूप ही बदल दिया और वे एक वृद्ध तपस्विनीके रूपमें परिणत हो गयीं, मुनिने चरण छूकर सादर प्रणाम किया। तपस्विनीने उनके सिरपर हाथ फेरकर कहा-'बेटा! जा भजन-पूजन कर। ' बूढ़ी माताके वचनोंमें वात्सल्य भरा था उससे सन्तुष्ट होकर वे आगे बढ़े, तुलसीदलादि लेकर आसनपर गये भगवान्की पूजादिसे निवृत्त होकर फलोंका भोग 1 लगाया और पाया। तत्पश्चात् पूर्वस्थितिपर विचार करने लगे-अहो! उस वाटिकामें न जाने कितने वर्ष पाषाणवत् होकर मुझे बीते तब कहाँ योगिनियोंद्वारा उद्धार हुआ और यहाँ आनेपर देखा कि भगवान्के ऊपर जो चन्दन चढ़ा गये थे, वह वैसा हो गीला लगा हुआ है, सूखातक नहीं मालूम दे रहा है कि अभी-अभी वाटिकामें गये दे और लौटकर आये हैं। यहाँको दृष्टिसे दो क्षण लगे हैं और वहाँकी दृष्टिसे न जाने कितने वर्ष लग गये। महान् आक्षर्यकी बात है। चलकर उन बूढ़े महात्मासे पूछना चाहिये, जिन्होंने मुझे यहाँपर कृपा करके निवास दियाहै। उनके पास गये और प्रणाम करके बैठ गये। महात्माने पूछा- 'कहिये। इस गुफामें क्या कुछअनुभव हुआ है?" मुनिजी बोले- भगवन्! विचित्र अनुभव हुआ है। तदनन्तर फुलवारीको सब घटना सुना दी औररहस्य पूछा।
महात्माजीने कहा- 'इस गुफाका क्षेत्र प्रकृति से परे है, यहाँकी सब वस्तुएँ अप्राकृत हैं। प्राकृतिक देश कालकी सरणि यहाँ काम नहीं करती। अस्तु! क्षणभरका परिमाण बढ़कर वर्षोंतक पहुँच गया तो इसमें आश्चर्यको कोई बात नहीं। इसमें जगत्के अन्तर्गत स्वप्न एवं सुषुप्तावस्थाके भोग हुए हैं। दृक्तलकी ज्योति यदि कण्ठ और हृदयमें उत्तर आयी तो इसमें आश्चर्य ही क्या है।ऐसा हुए बिना भीतर प्रकाश कैसे फैले और अन्तर्जगत् कैसे प्रकाशित हो इस भगवद्धामकी महिमा निराली है। यहाँ असम्भवका आकार गुप्त हो जाता है। ज्ञान और विज्ञानके धरातलपर भगवच्चरण-चिह्न अङ्कित हैं; ऐसा साफ दर्पण है कि इसमें अपनी मुखाकृति स्पष्ट दिखायी देती है। यहाँ बिना प्रयास आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है। भगवान् के सौलभ्यगुणका यहाँ सहज विकास है। वृद्धा तपस्विनीजीके उपदेशानुसार भजन-पूजन करते रहो, तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हो जायगा।'
मुनिजी वहाँसे उठे और आसनपर आकर वाटिकामें तुलसी उतारनेके लिये गये। देखते हैं कि फुलवारीमें आज एक भी तुलसीका बिरवा नहीं है खूब ढूँढा एक भी नहीं। बड़े आश्चर्यमें पड़ गये और विचार करने लगे। चारों ओर दृष्टि घुमाकर देखने लगे तो दूरपर एक तुलसी-वनिका दिखायी दी। उसने मुनिराजके चित्तको खींच लिया; परंतु वहाँ जानेका मार्ग पथरीला विकट और सङ्कीर्ण था। भगवान्का नाम लेकर चल पड़े। सुन्दर पावन नामको ध्वनि सुनकर माता दिव्य भूमिकाको दया आ गयी, उसने सुमनमय मार्ग कर दिया। मुनिजी आनन्दपूर्वक तुलसी-वनिकामें पहुँच गये। वहाँ एक कन्या मिली। उसने तुलसीदल उतारनेसे मना किया, बढ़ा हुआ हाथ एकदम रुक गया। मूनिने पूछा- 'वत्से इस पनिकाका स्वामी कौन है? तू क्यों भगवत्सेवाके लिये श्रीतुलसीदल उतारने से रोकती है? अच्छा एक ही दल ले लेने दे।
कन्याने हँसकर कहा— बाबाजी ! यह तुलसीवनिका माता अनुसूयाजीकी है। उनकी आज्ञा ऐसी ही है। देखिये, यहाँके पक्षी और मृग भी इसमें प्रवेश करनेका साहस नहीं करते। माताकी आज्ञा सबको मान्य होनी चाहिये।' मुनिजीने कहा- 'मुझे महामाताजीके पास ले चलो,
मैं स्वयं उन्हींसे एक तुलसीदल माँग लूँगा। विश्वास है कि वे एक पत्ता तुलसीदल देना स्वीकार कर लेंगी।' कन्या उन्हें भूगर्भके मार्गसे ले गयी। वहाँ एक मठ दिव्य मन्दाकिनीके तटपर था। उसे दिखाकर कहा कि 'आप माताके स्थान में पहुँच गये, मैं जाती हूँ दर्शन होनेपर प्रार्थना कर लीजियेगा तब मैं एक दल तुलसी दे दूंगी।' यह कहकर वह गुप्त हो गयी। मुनिजी माताजी के दर्शनकी इच्छा करते हुए इधर-उधर विचरने लगे।इतनेमें दो तेंदुए सामने अकड़ते हुए बड़ी तेजी के साथ आते हुए दिखायी दिये। इन मुनिकी और उनकी दृष्टि थी। धीरे-धीरे वे पासकी घनी झाड़ीमें चले गये डर लगा हुआ था कि कहीं छिपकर आक्रमण न करें, किंतु ऐसा नहीं हुआ। थोड़ी देरमें एक जोड़ा मोरका मठपर दिखायी दिया। वह थोड़ी देर रहकर चला गया। कुछ समय बाद दो परेवा पंख जोड़े आकाशमार्ग से उड़ते हुए उतरे और मुनिके कंधेपर बैठ गये। उनका ऐसा करना मुनिको अच्छा नहीं लगा। उन्होंने दोनोंको पकड़कर पृथ्वीपर छोड़ दिया। वे स्वाभाविक ध्वनि करने लगे। उसे सुनकर मुनिने उन्हें अपने हथेलीपर बैठा लिया। वे सिरपर चढ़ गये और फुरसे उड़ गये।
मुनिराज सोचने लगे- 'दो चीते, दो मोर और दो कपोत क्यों आये? कम या अधिक नहीं।' सन्ध्या हो गयी। थकावट सी मालूम देने लगी, चन्द्रमाकी चाँदनी फैल गयी, मन्द मन्द पवन चलने लगा, नींद आ गयी। स्वप्रमें भगवान् अत्रि और माता अनुसूयाजीके दर्शन हुए। माताजीने कहा- 'वत्स! हमारे दर्शनार्थ तुम विकल थे; अतएव तेंदुआ, मोर और कपोतके रूपमें हमने तुम्हें दर्शन दिया, पर तुम लख न सके। कलिकालमें सहसा प्रत्यक्ष दर्शनका नियम नहीं है। किसी-न-किसी व्याजसे प्रथम दर्शन होते हैं। अच्छा! अब तुम मल्लिकाकुजमें जाकर रहो। कन्यासे कह देना कि 'माताने तुलसीवनका स्वामी बना दिया है। श्रीतुलसी-वनिका वह स्थान है, जहाँ महर्षिजीके पास भगवान् राम-लक्ष्मण दोनों भाई बैठे थे। श्रीवैदेहीजी मल्लिकाकुञ्जमें ही मुझसे मिलने आयी थीं।'
स्वप्रमें माताकी झाँकी बंद हुई कि आँख खुल गयी। प्रातःसमय उठकर विदा होनेके लिये महात्माजीके पास आये और स्वप्रका सब वृत्तान्त कह सुनाया। महात्माजीने वहाँ जानेकी आज्ञा दे दी। मुनिराजने मल्लिकाकुञ्जमें जाकर निवास किया। दूसरे दिन जब आप नित्यकृत्य से निवृत हुए और भगवच्चिन्तनमें होनेवाले ही थे कि एक सुन्दर भीलकुमार कंधेपर धनुष लटकाये और कन्द-मूल-फल लिये हुए आया। टोकरी सामने रखकर बोला- बड़े परिश्रमसे ये मूल फलादि लाया हूँ, इनको अपने भगवान् 'विजयराघव' को भोग लगाकर पाइये।'भोग लगाकर कन्द, मूल और फल तीनोंमेंसे भगवत्प्रसाद दिया। उसने बड़े चावसे प्रसाद पाया, तब मुनिजीने भी प्रेमपूर्वक प्रसाद पाया।
भीलकुमारने पूछा-'इन दोनों जो आपको प्रिय लगे हों, बताइये थे ही प्रतिदिन ले आया करूँगा।" मुनिजीने कहा- तीनों मधुर, स्वादिष्ट और तृप्तिकर हैं। मैं तीनोंको समानरूपसे चाहता हूँ, मुझे तीनों दे जाया कीजिये।
उसने 'बहुत अच्छा' कहा। प्रणाम करके चला गया। मुनिजी विश्राम करने लगे। सोनेका कोई समय न था, तो भी नींद आ गयी। स्वप्नमें देखते क्या हैं कि श्रीसीता-राम-लक्ष्मण स्फटिक शिलापर बैठे हुए वही फल भोग लगा रहे हैं।
श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणसे कहा-इन बाबाको भी कन्द-मूल फल देना चाहिये। श्रीलक्ष्मणजी उठना ही चाहते थे कि बाबाजीने हाथ जोड़कर कहा- 'आपलोग पा लें तो पत्तलपर जो प्रसादी बच जायगी, उसे ही मैं पाकर आनन्दित हो जाऊंगा।' भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने कहा कि-'आप जैसे मुनिको हम अपना उच्छिष्ट कैसे दे सकते हैं। यह तो बड़े असमंजसकी बात है।"
मुनिने कहा- 'भगवन्! मैं तो नित्य आपका ही उच्छिष्ट पाता हूँ कोई नयी बात नहीं है भोग लगाते हुए ध्यानमें आयी हुई दिव्य मूर्ति और इस प्रत्यक्ष दर्शनमें तो जरा-सा भी अन्तर नहीं दिखायी देता।'
श्रीवैदेहीजीने कहा-'बाबा भक्त मुनि हैं, इनको प्रसाद देना चाहिये।' श्रीसुमित्रानन्दनजीने कहा- 'मनसा वाचा कर्मणा जिसे दूसरी गति नहीं है, उसे अवश्य प्रसादके लिये सत्पात्र समझना चाहिये।' श्रीकौसल्यानन्दनजीने कहा-जब सबकी ऐसी ही अनुकम्पा है, सम्मति है तो प्रसाद दे दो।'
श्रीलक्ष्मणजीने शीघ्र तीनों पत्तलें उठाकर मुनिको दे दीं। बाबा निहाल हो गये, बड़े प्रेमसे पाने लगे। करुणासे हृदय भर गया, नेत्रोंसे प्रेमरूपी आँसुओंकी धारा बह निकली। उसीसे हाथ-मुँह धुल गया। कृतज्ञ हो चरणस्पर्श करनेको जैसे उठे कि निद्रा भङ्ग हो गयी। वे भक्त मुनि हमारे स्वामी नरहर्यानन्दजी ही थे, जिन्होंने गोस्वामी तुलसीदासको रामचरितमानस पढ़ाया था।
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