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गर्जियादेवीकी आर्तपर कृपा

यह घटना कुछ समय पहलेकी है। जाड़ेके दिन थे। मैं अपने मकानसे मोटरसाईकिलसे एल०एच० शुगर फैक्ट्री काशीपुरके लिये एक जरूरी कामके लिये चला। मार्गमें वह चौराहा आया, जहाँसे सड़कें मुरादाबाद, पंतनगर, नैनीतालको और रामनगर, रानीखेत कार्बेट पार्कको जाती हैं। वहाँ मुझसे किसीने कहा- 'गर्जियादेवी चलो'- जो कि रानीखेत रोडपर है और काशीपुरसे लगभग तीस मील दूरीपर है। बलात् मेरी मोटरसाईकिल उधर मुड़ गयी और मैं चलता गया। रामनगर पहुँचकर एक थैले में प्रसादके लिये पेड़े-बताशे खरीदे और फिर चल पड़ा। रामनगरसे पहाड़ शुरू हो जाते हैं। सड़क पक्की है। गर्जियाके पाससे नीचे कोशी नदीतक लगभग एक मील पहाड़ी रास्ता है, उससे मैं नीचे उतरा।

गर्जियादेवी और कोशी नदीके बीचमें लगभग दो ढाई सौ फीट ऊँची चट्टान है। उसका घेरा लगभग सौ डेढ़ सौ फुट होगा, जो पानीके बीचमें स्थित है। बड़े-बड़े तूफान और बाड़े आर्थी, कोशी नदीको पक्की दीवारें बहकर कहाँ गयीं, कुछ भी पता न चला, पर देवीकी चट्टान अपनी जगह जहाँ-की-तहाँ अटल है। ऊपर चढ़नेके लिये चट्टानें काट-काटकर सीढ़ियाँ बनायी गयी हैं। लोग झूड़ पकड़ करके जाते हैं। कोई-कोई भक्त झूड़में अपनी किसी कामना सिद्धिके लिये गाँठ भी लगा जाते हैं और जब काम पूरा हो जाता है, तब आकर गाँठ खोलते और प्रसाद चढ़ाते हैं।

नदीमें जो कच्चा पुल बना लिया जाता है, उससे मैं ऊपर देवीजीके दर्शन करने, प्रसाद चढ़ाने गया। वहाँ बैठकर मैं स्तुति पढ़ने लगा। शाम होने जा रही थी। किसीने कहा-' अब जा'। मैं नीचे उतरकर मोटरसाईकिलके पास आया। रास्तेमें पहाड़ी बच्चे, पुरुष, स्त्रियाँ जो जंगलमें झोपड़ी बनाकर रहते हैं, उन सबको प्रसाद बाँटकर चला। जब मैं रोडपर आया और मोटरसाईकिल रोककर वहाँ भी प्रसाद बाँटने लगा, तभी किसीके कराहनेकी आवाज (बहुत धीमी) मेरे कानोंमें आयी। मेरे कान उधर गये और जिस ओरसे आवाज आ रही थी, उस ओर ही मैं जंगलमेंघुस गया। कुछ दूर जानेपर देखता क्या हूँ कि नीचे गढ़में एक नैपाली डुटियाल (जो जंगलमें लकड़ी कटाईका काम करते हैं) वहाँ पड़ा है और कराह रहा है- बीच बीचमें वह 'माँ दुर्गा माँ दुर्गा' बोल रहा था। मैंने पास जा करके पूछा- कैसे पड़े हो ? वह रोने लगा और पैरपरसे अपना कोट हटाकर दिखाया। उसका पैर कुल्हाड़ीसे घायल हो गया था और घावपर उसने अपना कोट डाल रखा था। मैंने फिर पूछा-कबसे पड़े हो ? उसने बताया परसों मुझे कुल्हाड़ी लगी, तभी से यहाँ पड़ा हूँ। मैंने कहा -

यहाँ तो शेर चीते घूमते रहते हैं। उसने बताया- मुझे किसीने नहीं खाया। माँ दुर्गाकी कृपासे ही अबतक बचा हूँ। मैं उसको किसी तरह सहारा देकर रानीखेतवाली पक्की रोडपर लाया और जो बाकी प्रसाद बचा था, वह उसको खिला दिया। दो पहाड़ी भाइयोंको पानी लानेके लिये पैसे दिये। वे पत्तोंके दोनोंमें पानी ले आये। उसे पानी पिलाया। अब समस्या उसको रामनगर अस्पताल ले जानेकी थी। अँधेरा हो गया था। उसी समय लकड़ीसे लदा एक ट्रक वहाँ आया। उसको मैंने रोका और जख्मीको ले चलने के लिये कहा। फिर उसको ट्रकपर डालकर रामनगर लाया और वहाँसे अस्पताल ले गया। वहाँ मेरे एक मित्र डॉक्टर पाण्डेयजी मिले। उनसे सारी बातें कहीं-उन्होंने उसे भर्ती करके कहा- 'अब आप जाइये।' एक सप्ताह बाद जब मैं उसे देखने गया, तबतक वह बहुत कुछ अच्छा हो चुका था। कुछ दिनोंमें वह बिलकुल ठीक हो करके अपने घर चला गया।

इस विषयमें मेरा यह दृढ़ मत है और उपर्युक्त स्वानुभव भी साक्ष्य है कि जो कोई भी माँ दुर्गाको सच्चे हृदयसे पुकारता और आर्त भावसे करुण-प्रार्थना करता है, उसके कष्ट वे अवश्य दूर करती हैं। 'देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद।' वे कभी स्वयं और कभी अपने किसी निज जनको निमित्त बनाकर अपने कृपापात्रका अभीष्ट कार्य (आर्त-हित) इस प्रकार पूर्ण कर देती हैं।

[डॉ० श्रीरामशरणजी सारस्वत ]



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garjiyaadeveekee aartapar kripaa

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[daॉ0 shreeraamasharanajee saarasvat ]

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