श्रीभगवान्की भक्ति ही वास्तविक सम्पत्ति है, इसका वही प्राणी पूर्ण अधिकारी होता है, जो भगवान्के रूप लावण्य-सौन्दर्य-माधुर्य और लीलारसका आस्वादन कर आत्मकल्याणकी पवित्र साधनामें निरन्तर तल्लीन रहता है। श्रीदशरथनन्दन रामके असीम सौन्दर्यसागर में निमग्न रहनेवाले संतशिरोमणि रसिकभक्त श्रीरामवल्लभाशरणजी महाराजके जीवनमें इसी तरहकी दिव्य सम्पत्तिके अवतरणने भक्तिके प्रमुख क्षेत्र भगवान्की लीलाभूमिमें, अवधमें, भगवती सरयूके पवित्र तटपर आस्तिकताका पाञ्चजन्य फूँका था।
पं0 श्रीरामवल्लभाशरणजी महाराजका जन्म संवत् 1915 वि0 में आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशीको बुन्देलखण्डके पन्नाराजमें रणेह ग्राममें हुआ था। उनके पिता रामलालजी और माता रमादेवीपर श्रीभगवान् और संतोंकी बड़ी कृपा थी। श्रीरामवल्लभाशरणजीके बचपनका नाम धनुषधारीथा, वे जन्मजात भक्त थे। उनकी बाल्यावस्थाका अधिकांश पाँडी ग्राममें बीता। एक समय रणेहसे वे अपने पिता माताके साथ कहीं जा रहे थे; सघन वनमें एक | महात्माका साक्षात्कार हुआ। उन्होंने बालक धनुषधारीको फिर दर्शन देनेका आशीर्वाद दिया। कुछ समयके बाद उन्होंने फिर दर्शन दिया।
बालक धनुषधारीने पौंडी ग्राममें अपने माता पिताकी छत्र-छाया में श्रीहनुमान्जीके मन्दिरमें नित्य दर्शनकर, उनकी पूजा और उपासना करके उनसे रामभक्तिका वरदान माँगा। उन्होंने काशी जाकर विद्याध्ययन करना चाहा, पर श्रीहनुमानजीने समाधि अवस्थामें उन्हें न जानेका आदेश दिया। वे संवत् 1933 चैत्र शुक्ल 9 श्रीरामनवमीके दिन मन्दिरके अध्यक्ष संतप्रवर रामवचनदासजीसे राममन्त्रराजकी दीक्षा लेकर एक अपरिचितकी तरह ग्रामकी सीमापर पूर्ण वैराग्य, तपऔर ब्रह्मचर्यके साथ एकान्त सेवन करने लगे। श्रीहनुमान्जीकी कृपासे उनका श्रीरामकी दिव्य लीलाओंके प्रति पूर्ण अनुराग हो गया, रामभक्तिके प्रचारको उन्होंने अपने जीवनका उद्देश्य स्थिर किया। संवत् 1935 वि0 में उन्होंने निवृत्तिमार्गकी दीक्षा लेकर अपना भक्तिपथ प्रशस्त कर लिया।
उसी समय महात्माजीने इनका दूसरा नाम 'श्रीरामवल्लभाशरण' रखा। पौंडीमें अयोध्याके प्रसिद्ध रामायणी रामदासजीके श्रीमुखसे रामकथाका रसास्वादन करके वे अपने गुरुके आदेशसे उनके साथ ही तीर्थभ्रमणके लिये निकल पड़े। वे रामदासजीके सत्सङ्ग और सम्पर्क से अत्यन्त प्रभावित थे। चित्रकूट भ्रमण कालमें एक दिन सहसा आकाशमें काले बादल छा गये, जलवृष्टि होने लगी। भगवान् श्रीरामकी चरणधूलिसे अङ्कित शिलाखण्डोंको चूमनेवाले पर्वतीय झरनेमें वे स्नान करने लगे कि एक विशालकाय बन्दरने उनका हाथ पकड़कर जलधारासे अलग खींच लिया। उसी समय एक शिला जलकी धारासे टूटकर उसी जगह आकर गिरी, जहाँ श्रीरामवल्लभाशरणजी स्नान कर रहे थे। इधर वह वानर अदृश्य हो गया। अब इनको रहस्य मालूम हुआ कि इस प्रकार हाथ पकड़कर जलधारासे हटाकर प्राण बचानेवाले श्रीहनुमानजी ही थे। यों श्रीहनुमान्जीके दर्शनकर उन्होंने अपने-आपको परम कृतार्थ माना।
प्रयागसे आगे बढ़नेपर नैबाजारके वैष्णवभक्त जानकी दासको धन्य कर वे अवधवासी महात्मा हरिहरदासजी के साथ काशी आये। काशीमें स्वप्रमें भगवान् शङ्करजीने दर्शन देकर उनको अयोध्या जानेका आदेश दिया। संवत् 1938 वि0 की अक्षय नवमीको उन्होंने जन्म-जन्मसे चिरपरिचित श्रीअयोध्याधाममें प्रवेश करके रामभक्तिकी भागीरथीमें आत्माभिषेक किया, अपने प्राणेश्वरकी राजधानीकी परिक्रमा की। उनके अङ्ग अङ्गमें दिव्यता समा गयी, नयनोंमें सरयूकी पवित्र तरङ्गों और कनकभवनके दर्शनकी अभिरामताका रास होने लगा। कान सीतारामकी अमृतध्वनिसे पूर्ण चैतन्य हो उठे रसनाने रामके वैदिक रूपकी जयध्वनि की, हाथ रामकी चरणधूलिसे मस्तकको अलङ्कृत करनेके लिये बढ़े तो आजीवन बढ़े ही रह गये, पैर परिक्रमाके लिये उठे तो उठे ही रह गये,जनकनन्दिनीके चरणारविन्दपर मस्तक वन्दनाके लिये नत हुआ तो साकेत प्रवेशपर्यन्त नत ही रह गया। पं0 श्रीरामवल्लभाशरणजी महाराजकी साधना, आराधना और उपासना अवधकी दिव्यताकी श्रीवृद्धिमें सफल हो गयी।
श्री अयोध्यामें उन्हें बाल्यावस्थामें दर्शन देनेवाले चिरपरिचित संत श्रीविद्यादासजी महाराजके दर्शन हुए। वे उनके अन्तरङ्ग शिष्य हो गये। इस समय पण्डितजीका जीवन सर्वथा भजनमय था। आठों पहर भजन-सत्सङ्गमें ही बीतते थे। श्रीविद्यादासजीके प्रति आदरबुद्धिसे उन्हींके आदेश से श्रीरामवल्लभाशरणजीने रामकथामृत-लहरीमें समस्त अयोध्याको संप्लावित कर दिया, कभी विनयपत्रिका और गीतावलीकी व्याख्या चलती थी तो कभी रामचरितमानस में संत, परमहंस और भक्तमण्डली विहार करती थी। भगवल्लीला-चिन्तनमें श्रीरामवल्लभाशरणजी महाराज इतने उन्मत्त रहते थे कि कभी-कभी वे बाह्यज्ञानशून्य हो जाते थे। एक समय दोपहरको वे कुएँपर जल भर रहे थे, अचानक गुनगुना उठे, 'कहु कपि कब रघुनाथ कृपा करि हरिहैं निज वियोग सम्भव दुख।' ठहरे भक्त ही, जानकीकी विरह - लीलाका चित्र सामने आ गया। राघवेन्द्रकी प्राणप्रिया राक्षसराजके अशोक वनमें तड़पती हो और भक्त यों ही खड़ा रहे पैर लड़खड़ा ही तो गये, कुएँ में गिर पड़े; पर आश्चर्य तो यह था कि बाहर निकाले जानेपर वस्त्रतक नहीं भीगा था। श्रीरामकी लीलामें उनकी अचल अनुरक्ति थी। वे रामलीलामण्डलीके शृङ्गार समलङ्कृत स्वरूपोंमें पूर्ण भागवती निष्ठा रखते थे।
उनकी भक्तिनिष्ठा, कथा-सुधा और अध्यात्मविद्याकी पूर्ण सम्पन्नतासे आकृष्ट होकर भक्तों और शिष्योंकी संख्या बढ़ने लगी। उनकी कथाकारितासे प्रसन्न होकर पौडीसे महात्मा रामवचनदासजी भी चले आये। पं0 श्रीरामवल्लभाशरणजी महाराजने उनके प्रति अपनी पवित्र गुरुनिष्ठा नितान्त अक्षुण्ण रखी।
संवत् 1951 वि0 में महात्मा विद्यादासजी और रामवचनदासजी महराजकी साकेत प्राप्तिके बाद पं0 श्रीरामवल्लभाशरणजीका मन बहुत खिन्न हो गया। भगवान् श्रीरामके रंगीले सखा भक्त सियारामशरणजी और रसरंगमणिके साथ विशेष आग्रहके फलस्वरूप वे कुछ दिनोंके लिये चित्रकूट चले आये। वहाँ श्रीहनुमान्जीके दर्शन देनेपरउनसे जन्म-जन्मके लिये रामभक्ति माँगी। चित्रकूटसे वृन्दावन आये, रासेश्वर श्रीनन्दनन्दनकी दिव्य झाँकीका रसास्वादन कर वे अयोध्या लौट आये। वे स्थायी रूपसे जानकीघाटपर रहने लगे। वे कैंकर्यनिष्ठाके संत थे। श्रीरामके चरणकमलोंकी सेवामें उनका जीवन समर्पित था
एक समय श्रीसरयूने अयोध्या छोड़कर तीन मीलकी दूरीपर अपनी धारा स्थिर कर ली। संतमण्डलीके प्रार्थना करनेपर पं0 श्रीरामवल्लभाशरणजीने उनसे अयोध्याके हीसन्निकट रहनेकी कृपायाचना की, सरयूने धारा बदल दी, उनका जल अयोध्याका स्पर्श करने लगा।
संवत् 1998 वि0 की कार्तिक शुक्ला दशमीको उन्होंने दिव्य साकेत धामकी यात्रा की। अन्तिम समय सीतारामकी जयध्वनि-लहरीमें कनक भवनाधिपति श्रीराघवेन्द्र और जनकनन्दिनीका चरणामृत पानकर उन्होंने अखण्ड समाधि ली। महात्मा पं0 श्रीरामवल्लभाशरणजी महाराज आदर्श संत, लीलारसिक परम भगवद्भक्त थे।
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