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भक्त वेङ्कटरमण की मार्मिक कथा
भक्त वेङ्कटरमण की अधबुत कहानी - Full Story of भक्त वेङ्कटरमण (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्त वेङ्कटरमण]- भक्तमाल


दक्षिण भारतमें तुङ्गभद्राके तटपर श्रीरङ्गपुरम् नामक एक छोटे से गाँवमें एक साधारण-से ब्राह्मण परिवारमें वेङ्कटका जन्म ठीक श्रीरामनवमीके दिन दोपहरको हुआ था। परिवार छोटा-सा ही था-माता-पिता, दो बहिनें और एक भाई वेङ्कटको इन सबका प्यार एक साथ मिला और परिवारके परम्परागत संस्कारोंकी छाप उसके कोमल हृदयपर पड़ती गयी। घरके आँगनमें तुलसी-चौतरा था और उसपर सिन्दूरसे पोती हुई श्रीमारुतिकी एक सुन्दर मूर्ति विराजमान थी। चौतरेके एक कोनेपर श्रीमारुतिकी एक विशाल ध्वजा थी, जो ऊँचे आकाशमें फहराती रहती थी। प्रत्येक मङ्गल और शनिवारको रात्रिमें श्रीमारुतिका उत्सव होता, कथा होती, कीर्तन होता और अन्तमें प्रसाद बँटता । वेङ्कटके पिता कथा बाँचते, कीर्तन कराते। माँ बच्चेको गोदमें लेकर बैठती और कीर्तनमें पीछे-पीछे बोलती। खूब ताल और स्वरके साथ कीर्तन होता। बालक वेङ्कट अभी माँके साथ-साथ तुतलाता हुआ कीर्तन करता ।वेङ्कट चौथे वर्षमें पदार्पण कर चुका था। अब अच्छी तरह स्वरके साथ कीर्तन करता था। कथामें भी वेङ्कटको विशेष रस आने लगा था। वह बड़े ध्यानसे कथा सुनता। ऐसा मालूम होता कि पूर्वजन्मके संस्कारोंके कारण उसे कथाकी सारी बातें अपने-आप खुलती जाती थीं। एक बार मङ्गलका दिन था। अध्यात्मरामायणके किष्किन्धाकाण्डकी कथा हो रही थी। भगवान् श्रीराम अपने प्रिय भाई लक्ष्मणको पूजाकी विधि बतला रहे हैं। प्रसङ्ग बहुत सुन्दर था। आज एक बात वेङ्कटको बहुत प्यारी लगी । कथारम्भके समय ही पिताने व्यासासनसे श्रीमारुतिके चरणोंमें वन्दना करते हुए एक श्लोक पढ़कर उसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने श्रोताओंको समझाया कि जहाँ-जहाँ प्रभु श्रीरघुनाथजीकी कथा और कीर्तन होता है, वहाँ श्रीहनुमान्जी महाराज अवश्यमेव रहते हैं और हाथ जोड़े, आँखोंमें आँसू भरे प्रेमपूर्वक कथा सुनते हैं। श्रीरघुनाथजीको जो प्रसन्न करना चाहे,वह श्रीहनुमानजीको प्रसन्न करे, उनका आशीर्वाद प्रसाद प्राप्त करे। इस प्रकार बड़ी सुगमतासे, बहुत थोड़े समयमें श्रीमारुतिकी कृपासे श्रीरघुनाथजीके चरणों में अविचल भक्ति प्राप्त होती है। श्रीहनुमान्जीकी उपासना व्यर्थ नहीं जाती।

बेङ्कटके हृदयमें यह बात बैठ गयी। उसने मन- -ही मन निश्चय किया कि अब श्रीमारुतिकी उपासना करके प्रभु श्रीरामचन्द्रजीका दिव्य दर्शन करूंगा, अवश्य करूंगा। श्रीमारुतिरायके सम्बन्धमें अधिकाधिक जाननेकी लालसा बेङ्कटरमणके हृदयमें बढ़ती गयी। रातको जब सब बा पी लेते, तब वह पिताके पास जाकर श्रीहनुमान्जीके सम्बन्धमें पूछता। वेङ्कटके पिता एक दिन अपने बच्चेको बड़े ही प्यारसे यह समझा रहे थे कि श्रीहनुमान्जीके स्वभावमें यह विशेषता है कि जो इनके सम्पर्क में आ जाता है, उसे ये किसी-न-किसी प्रकार भगवान्‌की सन्निधिमें पहुंचा ही देते हैं। विभीषणको इन्होंने भगवान् मिलाया, सुग्रीवको भगवान् से मिलाया, तुलसीदासको इन्होंने भगवान्से मिलाया। इनका एकमात्र काम है भगवान्की सेवा और भगवान्‌की शरण में जानेवालोंकी सहायता। इस बातको सुनकर वेङ्कटको बड़ा सुख मिला। वह समझने लगा कि अब तो मुझे भगवान्‌के दर्शन श्रीहनुमानजी की कृपासे अवश्य होंगे।

धीरे-धीरे वेङ्कट सयाना हुआ। नवें वर्षमें उसका विधिवत् यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। श्रीगुरुमुखसे उसे गायत्रीमन्त्र के साथ-साथ 'ॐ हरिः' की दीक्षा मिली। माता-पिताकी आज्ञा और आशीर्वादसे वह गुरुकुलमें शिक्षा प्राप्त करनेके लिये भेजा गया। गुरुके आश्रम में पूरे सोलह वर्ष व्यतीतकर वेङ्कट गुरुकी आज्ञासे समावर्तन संस्कारके अनन्तर घर लौटा। आश्रमकी छाप उसपर पड़ चुकी थी। अखण्ड ब्रह्मचर्यके तेजसे उसका मुखमण्डल जगमगा रहा था।

वेङ्कटरमणने अपने जीवनका मार्ग निश्चित कर लिया था। समस्त वेद-वेदाङ्ग, उपनिषद्, पुराण आदिको गहराई में दुबनेपर उसे ॐ हरि के ही दर्शन हुए।नैष्ठिक ब्रह्मचर्य और 'ॐ हरिः' का अखण्ड एकतार स्मरण। उसकी इस अनन्यनिष्ठाको देखकर घरवालोंने | उसके सम्मुख विवाहका प्रस्ताव ही नहीं रखा। पिताको बड़ी प्रसन्नता थी कि उनका पुत्र सन्मार्गपर बढ़ता चला जा रहा है। उन्होंने किसी प्रकारकी छेड़-छाड़ नहीं की। बेङ्कटरमण नित्यप्रति प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्तमें उठता, स्नान सन्ध्या- तर्पणसे निश्चिन्त होकर वेदोंकी कुछ ऋचाओंका तथा उपनिषदोंके कुछ मन्त्रोंका स्वरसे पाठ करता और फिर श्रीमारुतिको मूर्तिके सामने आसन लगाकर एकनिष्ठ होकर बैठ जाता और पूरे छः घंटे ॐ हरिः' का जप करता। दोपहरको घरमें जो कुछ तैयार होता, उसे प्रभुका मधुर प्रसाद समझकर प्राप्त करता और फिर कुछ स्वाध्याय करता। तीसरे पहर वह पुनः जपमें बैठ जाता और चार घंटोंतक श्वासके द्वारा ॐ हरिः" का जप करता। जपकी ओर उसकी प्रवृत्ति बढ़ती ही गयी। निश्चित समयमें तो वह विधिवत् जप करता ही था, शेष समय भी वह मन ही मन उसीकी बार-बार आवृत्ति करता रहता था। फल यह हुआ कि रातको सोते समय भी उसके द्वारा जप होता रहता था।

जपकी और मन ज्यों-ज्यों झुकता गया, एकान्तकी चाह भी त्यों-ही-त्यों बढ़ती गयी। कभी-कभी चाँदनी रात में तुङ्गभद्रा तटपर एकान्तमें बैठकर जब यह ॐ हरिः' की धुन लगाता तब ऐसा मालूम होता कि उसके रोम-रोम से ॐ हरिः ॐ हरि की कोमल किरणें निकल रही हैं और भीतर-बाहर यह मन्त्र दिव्य ललित अक्षरोंमें लहरा रहा है। पूरे ग्यारह वर्ष इस प्रकार इस मधुर साधनामें बीत गये; परंतु बेङ्कटको मालूम होता अभी कल ही इस मार्ग में प्रवृत्त हुआ हूँ।

आज श्रीहनुमान्जीकी जयन्ती थी। दिनभर वेङ्कटके घर बड़ी धूम-धाम रही। आधी राततक जागरण हुआ- खूब भजन हुआ, पद गाये गये, कथा हुई, श्रीमारुतिरायके नामका धुआंधार जयघोष हुआ, प्रसाद बँटा सब लोग घर गये। परंतु वेङ्कटरमणके मनमें एक विचित्र प्रकारका आन्दोलन छिड़ा हुआ था। उत्सव समाप्त होते हीपञ्चामृत लेकर वह धीरेसे घरसे सरका और नदीकी ओर बड़ा चैत्र शुक्ला पूर्णिमाकी आधी रात, तुङ्गभद्राका वालुकामय तट, वासन्ती बयारके झोंके, वन्य पुष्पोंकी परागसे मदमाती वायुकी अठखेलियाँ। बेङ्कट अपने इष्टदेव श्रीमारुतिके ध्यानमें बैठ गया। बैठते ही समाधि लग गयी और देखा कि असंख्य वानरोंकी सेना लेकर मारुतिराय आ रहे हैं- धीरे-धीरे सभी वानर जाने कहाँ और कब अन्तर्धान हो गये और रह गये केवल श्रीमारुतिराय। वे स्नेहसे भरी दृष्टिसे वेङ्कटकी ओर देख रहे थे बेटके सिरपर अपना दाहिना हाथ रखकर उसे आशीर्वाद दे रहे थे। वेङ्कटसे अब रहा नहीं गया। वह प्रभुके चरणोंमें गिर गया और आनन्दके भारसे मूर्छित हो गया। उस दिव्य मूर्छामि वेङ्कटको यह बोध हुआ कि श्रीहनुमानजी उसके हृदय-पटपर अपनी तर्जनी अँगुलीसे स्वर्णाक्षरोंमें 'ॐ हरिः' लिख रहे हैं। आज वेङ्कटरमणको श्रीमारुतिका दिव्य प्रसाद मिला।

अब प्रायः रात्रिको, जब सब सो जाते, वेङ्कट तुङ्गभद्राके तटपर एकान्तमें श्रीमारुति से मिलने लगा। उसे ऐसा लगता मानो श्रीमारुति पहलेसे ही उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके चरणोंमें मस्तक टेकता और आँसुओंसे उनके वक्षःस्थलको भिगो देता। फिर श्रीहनुमानजी उसे अपनी वात्सल्य धारामें डुबाकर अपने स्वामौके परम धाम श्रीसाकेतलोकमें ले जाते। वहाँ प्रभु श्रीरघुनाथजीके नित्य लीलाधाममें नित्य लोला विहारका दर्शन होता। वहाँका दृश्य बहुत ही दिव्य और परम मङ्गलमय था l

कल्पवृक्षके नीचे सोनेका महामण्डप है। उसके नीचे अत्यन्त सुन्दर मणिरत्नमय सिंहासन है उसपर भगवान् श्रीरामचन्द्र श्रीसीताजीसहित विराजित हैं। नवोन दूर्वादलके समान उनका श्यामवर्ण है। कमलदलके समान विशाल नेत्र हैं। बड़ा ही सुन्दर मुखमण्डल है। विशाल भालपर ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक सुशोभित है। घुंघराले काले केश हैं। मस्तकपर करोड़ों सूर्यके समान प्रकाशयुक्त मुकुट है। मुनिमनमोहन महान् लावण्य है। दिव्य अङ्गपरपीताम्बर विराजित है। गलेमें रनोंके हार और दिव्य पुष्पोंकी माला है। देहपर चन्दन लगा है। हाथों में बाण हैं। लाल-लाल होठ हैं। उनपर मीठी मुस्कानको छवि छा रही है। बायीं ओर माता श्रीसीताजी विराजित हैं। इनका उज्ज्वल स्वर्णवर्ण है। नीली साड़ी पहनी हुई है और हाथोंमें रक्त कमल धारण की हैं। दिव्य आभूषणोंसे सब अङ्ग विभूषित हैं। बड़ी हो अपूर्व और मनोरम झाँकी है।प्रभुकी यह दिव्य झाँकी पाकर वेङ्कटका जीवन धन्य हो गया !

यह लीला बिहार कितने दिन चलता रहा, वेङ्कटको कुछ पता नहीं। एक दिन अञ्जनीकुमार श्रीहनुमा प्रसन्न होकर उससे पूछा—'कहो वत्स! तुम क्या चाहते हो?' वेङ्कटसे कुछ बोला नहीं गया; परंतु फिर भी मन ही मन उसके भीतर यह लालसा जगी कि श्रीहनुमान्जीका जो परम प्रिय पदार्थ है, वहीं देखना चाहिये। श्रीहनुमानजी उसके मनकी समझ गये। उन्होंने कहा, 'अच्छा मेरा परम प्रिय पदार्थ जो मेरे प्राणोंसे भी प्रिय है, तुम देखो और सुनो।' यो कहकर वे दोनों हाथोंमें करताल लेकर मस्त होकर कीर्तन करने लगे-

जय सीताराम सीताराम सीताराम जय सीताराम।

जय सीताराम सीताराम सीताराम जय सीताराम ॥

भक्तराज हनुमान्का यह दिव्य कीर्तन त्रिभुवनको पावन करनेवाला है, वे सदा इसीका कीर्तन किया करते हैं। परंतु आजका यह कोर्तन केवल वेङ्कटरमण हो सुन रहे हैं और उनकी क्या अवस्था है, यह कोई बड़भागी भक्त ही बता सकता है। कीर्तनकी धुन गाढ़ी होती गयी और धीरे-धीरे शीतल, मधुर प्रकाशकी कोमल किरणें समीप आती दोखों साक्षात् प्रभु श्रीरघुनाथजी माता जानकीजीसहित वहाँ पधारे और अपने मन्द मन्द मृदुल हास्यमे अपने भक्त श्रीहनुमान्को और अपने भ भक्त को कृतकृत्य कर दिया। बेरके प्रा प्रभुके प्राणोंमें लीन हो गये



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