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भक्त पुरन्दरदासजी की मार्मिक कथा
भक्त पुरन्दरदासजी की अधबुत कहानी - Full Story of भक्त पुरन्दरदासजी (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्त पुरन्दरदासजी]- भक्तमाल


पण्ढरपुरके पास पुरन्दरगढ़ एक नगर है। वहाँ वरदाप्प नायक नामक एक सम्पन्न ब्राह्मण रहते थे। शाके 1404 के लगभग उन्हें एक पुत्र हुआ, जिसका नाम श्रीनिवास नायक रखा गया। पिताकी मृत्युके पश्चात् श्रीनिवास नायक पिताकी अपार सम्पत्तिके स्वामी हुए। ये व्यापारमें बड़े कुशल थे। विजयनगर और गोलकुण्डाके राज्योंसे हीरा, मोती, माणिक्य आदि बहुमूल्य रत्नोंका व्यापार करके श्रीनिवासने अपनी सम्पत्ति बहुत बढ़ा ली। धन सबसे बड़ा मादक है। दूसरे सब नशीले द्रव्योंकी भाँति धनका भी यही स्वभाव है कि वह जितना मिलता है, उसकी प्यास उतनी बढ़ती जाती है। फलस्वरूप धनकी वृद्धिके साथ कंजूसी भी बढ़ती जाती है और उदारता, दया, क्षमा आदि सद्गुण प्रायः नष्ट होते जाते हैं। श्रीनिवास नायक जैसे-जैसे धन एकत्र करते गये, उनकी कृपणता बढ़ती गयी। उनको एक पैसा भी किसीको देना प्राण देनेके समान कष्टदायी हो गया। माँगनेवाला उन्हें अपना शत्रु ही दिखायी पड़ता था ।।

किस जीवके पूर्व जन्मके कर्म कैसे हैं, यह उसके वर्तमान कर्मोसे बिलकुल अनुमान नहीं किया जा सकता। भगवान्की कब किसपर अहैतुकी कृपा होगी, यह भी कोई जान नहीं सकता। श्रीनिवास नायक इस धनके विषमें सड़नेके लिये पृथ्वीपर नहीं आये थे। वे इस नरकके प्राणी नहीं थे। उनको इस कृपणताके कीचड़से निकालनेके लिये स्वयं दयामय प्रभु एक दरिद्र ब्राह्मणका वेश बनाकर एक दिन उनके यहाँ पहुँचे औरबड़ी दीनतासे प्रार्थना करने लगे-'मैं अत्यन्त कंगाल

हूँ। मेरी पुत्री विवाहयोग्य हो गयी है। आप सम्पन्न हैं,

मेरी कुछ सहायता कर दें।' श्रीनिवासने पिण्ड छुड़ानेके लिये कहा 'आज तो मुझे तनिक भी अवकाश नहीं। आप कल पधारें।' श्रीनिवासको क्या पता था कि यह ब्राह्मण सचमुच कल आयेगा; किंतु जब वह दूसरे दिन आया तो फिर श्रीनिवासने कल आनेको कहा। ब्राह्मण नित्य आता था और श्रीनिवास सदा उसे कल आनेको कहते थे। इस प्रकार छः महीने बीत गये। इस अद्भुत ब्राह्मणपर उन्हें बड़ा क्रोध आया। अन्तमें एक दिन रद्दी पैसोंसे भरी दो थैलियाँ उसके सामने पटककर वे बोले-इनमेंसे जो तुम्हें पसंद आये, वह एक पैसा ले लो और चले जाओ।' ब्राह्मणने थोड़ी देर से उनकी ओर देखा। थैलियोंको बिना छुए ही वे चले गये।।

ब्राह्मणदेवता श्रीनिवास नायकके घर पहुँचे। उनकी पत्नीसे अपनी दरिद्रता तथा नायकका व्यवहार सुनाकर उन्होंने सहायताकी याचना की। स्त्री उदार स्वभावकी थी। पतिके कृपण स्वभावसे उसे दुःख होता था । भगवानमें उसका विश्वास था और साधु ब्राह्मणोंके प्रति हृदयमें भक्ति थी परंतु पतिदेव इतने कंजूस थे कि पत्नी के हाथमें एक पैसा भी रहने नहीं देते थे। ब्राह्मणदेवताको उसने अपने पितासे प्राप्त नकफूल 'श्रीकृष्णार्पणमस्तु' कहकर दे दिया। श्रीनिवास नायकने समझा था कि दरिद्र ब्राह्मणसेपिण्ड छूटा, पर वह ब्राह्मण उन्होंकी दुकानपर फिर पहुँचा और नकफूल देकर चार सौ मुहरें माँगने लगा। पलीका नकफूल पहचानकर श्रीनिवासको अपनी स्त्रीपर बड़ा क्रोध आया जिस ब्राह्मणने छः महीने उन्हें तंग किया था, उसे इतना मूल्यवान् नकफूल दे देना कोई साधारण बात नहीं थी। ब्राह्मणको उन्होंने यह कहकर विदा कर दिया इसे मेरे पास रहने दीजिये, कल आपको मैं सौ मुहरें दूंगा।' ब्राह्मणके चले जानेपर नकफूलको तिजोरीमें बंद करके वे सीधे घर आये और स्त्रीसे पूछने लगे- 'तुम्हारा वह नकफूल कहाँ है, जिसे तुम सबेरेतक पहने थी?' बेचारी स्त्री क्या उत्तर देती? पतिके क्रोधी स्वभावको वह जानती थी। उसे चुप देखकर श्रीनिवास गरज उठे अभी लाकर नकफूल दे, नहीं तो जीते जी तुझे पृथ्वीमें गाड़ दूंगा।'

अब स्त्री क्या करे? नकफूल तो वह दान कर चुकी और पतिसे सच्ची बात कह नहीं सकती। भवके कारण उसके मुखसे निकल गया' नकफूल भीतर रखा है।" झटपट वह भीतर चली गयी। आत्महत्या करनेके अतिरिक्त उसे कोई दूसरा मार्ग नहीं सूझा। एक कटोरोमें विष घोलकर उसने भगवान् से प्रार्थना की- 'दयामय! मैंने तुम्हारी प्रसन्नता के लिये नकफूल को दिया था। यदि तुम मुझपर प्रसन्न हो तो मेरे पतिदेवकी बुद्धि शुद्ध कर दो। वे अबसे साधु-ब्राह्मणोंका सम्मान करें, उन्हें दान दें और तुम्हारा स्मरण करें। मुझे मृत्युका भय नहीं है। मैं तुम्हारे श्रीचरणोंमें आ रही हूँ।' प्रार्थना करके जैसे ही कटोरी उसने मुखको और बढ़ायी कोई वस्तु टपसे उसमें आ गिरी। देखा कि वह तो उसीका नकफूल है। बंद कमरेमें जहाँ एक पक्षीतक नहीं, वहाँ नकफूल कहाँसे आ गिरा ? श्रीनिवासकी स्त्री लक्ष्मीबाईके नेत्र भर आये। उसे भगवान्की कृपाका साक्षात्कार हुआ। भूमिपर मस्तक रखकर उसने प्रभुको प्रणाम किया।

श्रीनिवास नायक जानते थे कि नकफूल तो वे दूकानकी तिजोरीमें बंद करके आये हैं और उसकी चाभी उनके पास है। स्त्रीको डाँट फटकार कर अब वे सोच रहे थे कि सबेरे जब वह ब्राह्मण मुहरें लेने आयेगा तब उसे क्या उत्तर देना होगा? इतनेमें उनकी पत्नीनेनकफूल लाकर उनके हाथपर धर दिया। अब उनके आश्चर्यका ठिकाना नहीं रहा। नकफूल लेकर वे बिना कुछ कहे शीघ्रतासे दूकान गये। वहाँ तिजोरी ठीक बंद मिली पर खोलनेपर देखा कि नकफूल उसमें नहीं है। इस चमत्कारको देखकर सहसा श्रीनिवासके हृदयको धक्का लगा। बुद्धि कुछ और हो गयी। मस्तक झुकाये हुए वे घर आये और नकफूल पत्नीको देते हुए बड़ी गम्भीरतासे बोले- 'लक्ष्मी सच सच बताओ कि क्या बात है। मैं तो आश्चर्यमें पड़ गया हूँ। तुमने जिसे नकफूल दिया था, वे ब्राह्मण कौन हैं? तुम्हें यह फिर कैसे मिला?"

पतिके बदले भाव और कातर स्वरको सुनकर लक्ष्मीबाईने सारी बातें सच सच सुना दीं सब बातें सुनकर श्रीनिवास नायककी आँखोंसे झर-झर आँसू बहने लगे। वे हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे-' दयामय आपने मुझ अधमसे दरिद्र ब्राह्मण बनकर याचना की और मैं नीच आपको टालता रहा। मेरे लोभ, मेरे पापपर कुछ ध्यान न देकर आपने मेरी पत्नीके प्राण बचाये।' बड़ी तक वे जडकी भाँति खड़े-खड़े पत्नीकी और ! एकटक देखते रहे। इसके बाद उन्होंने उसी समय खान किया और तब स्त्रीके साथ भगवान्‌की पूजा की पश्चात् हाथमें तुलसीदल तथा जल लेकर अपनी समस्त सम्मति उन्होंने श्रीकृष्णार्पणमस्तु' कहकर भगवा चरणोंपर चढ़ा दी।

श्रीनिवास नायकने सवेरे ही दोनों कंगालों, ब्रोंको बुलाकर अपना सारा धन लुटा दिया। अपनी स्त्रीके लिये एक कौड़ी भी उन्होंने नहीं छोड़ी। पत्नीने एक सोनेकी डिबिया में सिन्दूर रखा था। पता लगनेपर वह डिबिया भी उन्होंने फिकवा दी। सच्चे अपरिग्रही होकर वे पण्डरपुर पहुँचे। यहाँ नामकीर्तन करते हुए वे द्वार-द्वार घूमते जो कुछ मिल जाता उसीसे उनके परिवारका काम चला था। गरीबीके कारण इनको बड़े-बड़े कष्ट झेलने पड़े, किंतु संग्रह करना इन्होंने सर्वथा छोड़ दिया था। बारह वर्षतक ये पढरपुर रहे। जब वहाँ यवनोंका उत्पात ब गया, तब विजयनगर चले गये।

विजयनगरनरेश श्रीकृष्णदेव राज-रत्नोंके व्यापारीश्रीनिवास नायकसे परिचित थे। अब उन्हीं श्रीनिवासको | हैं इस रूपमें देखकर राजाको आश्चर्य हुआ और इनमें श्रद्धा भी हुई। राजाके गुरु थे यतिश्रेष्ठ स्वामी व्यासरायजी । श्रीनिवासने इन्हींकी शरण ली। स्वामीजीने अपने इस दे सुयोग्य शिष्यको वेद, पुराण, स्मृति आदिका अध्ययन कराया। गुरुने श्रीनिवास नायकका नया नाम 'पुरन्दर विट्ठल' रखा और आगे चलकर ये ही 'पुरन्दरदास' इ कहलाये।

पुरन्दरदासजीमें भी इतनी प्रगाढ़ भगवद्भक्ति थी कि इनके गुरुदेव व्यासराय स्वामीने स्वयं इनकी महिमाका गान किया है। भिक्षान्न ही इनका आधार था। इनकी पत्नी लक्ष्मीबाई सदा सब प्रकार पतिकी सेवामें तत्पर रहती थीं। पतिदेव जो भिक्षा लाते थे, उसे स्वच्छ करके वे भगवान्का भोग बनातीं और अतिथि-अभ्यागतोंको तृप्त करके पति तथा पुत्रोंको भोजन कराके जो कुछ शेष रह जाता, उसीपर सन्तुष्ट रहतीं। यदि भिक्षान्नमेंसे कुछ बच जाता तो कलके लिये वह रखा नहीं जाता था। उसे तुंगभद्रा नदीमें जलचरोंके लिये डाल दिया जाता था। आज भी लोग व्यङ्ग्यमें दरिद्र घरोंको दक्षिणमें 'पुरन्दरदासका घर' कहतेहैं। ऐसा कंगाली एवं अपरिग्रहका आदर्श घर था इनका । एक बार पुरन्दरदासजी भिक्षा माँगने जब एक द्वारपर गये तो गृहस्वामिनीने द्वार बंद कर लिया। इन्होंने यह देखकर कहा 'भिक्षुकको देखकर जो द्वार बंद कर लेते हैं, वे घरके भीतरके पापको बाहर जानेसे रोक देते हैं।' गुरुकी कृपासे इनकी कवित्वशक्ति जाग्रत् हुई थी । | इनके पदोंमें लोकशिक्षा, वैराग्य, तत्त्वज्ञान और भगवद्भक्तिके गम्भीर भाव हैं। कर्नाटक-संगीतके ये उद्धारक कहे जाते हैं। इनके कीर्तनके पद दक्षिण भारतमें अत्यन्त प्रिय हैं। कहा जाता है कि इन्होंने पौने पाँच लाख श्लोक बनाये थे, पर अब उनका एक बड़ा भाग अप्राप्य है।

लगभग चालीस वर्षतक पुरन्दरदासजी तीर्थाटन करते रहे। अस्सी वर्षकी अवस्थामें सं0 1562 वि0 में वे भगवद्धाम पधारे। उनकी शिक्षा, उनके पद, उनके ग्रन्थ लोकमङ्गलकारी हैं। कन्नड़ भाषाका उनका साहित्य भक्तोंका प्रिय धन है। एक स्थानपर वे कहते हैं-'दूसरोकी सम्पत्ति और परायी स्त्री क्या अस्पृश्य नहीं हैं? क्या परमेश्वरकी विस्मृति अस्पृश्य नहीं है? इनका स्पर्श मत करो।

ऐसे वीतराग भगवान्‌के प्रियजन धन्य हैं।



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lagabhag chaalees varshatak purandaradaasajee teerthaatan karate rahe. assee varshakee avasthaamen san0 1562 vi0 men ve bhagavaddhaam padhaare. unakee shiksha, unake pad, unake granth lokamangalakaaree hain. kannada़ bhaashaaka unaka saahity bhaktonka priy dhan hai. ek sthaanapar ve kahate hain-'doosarokee sampatti aur paraayee stree kya asprishy naheen hain? kya parameshvarakee vismriti asprishy naheen hai? inaka sparsh mat karo.

aise veetaraag bhagavaan‌ke priyajan dhany hain.

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