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भक्त श्रीअरविन्द की मार्मिक कथा
भक्त श्रीअरविन्द की अधबुत कहानी - Full Story of भक्त श्रीअरविन्द (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्त श्रीअरविन्द]- भक्तमाल


श्रीअरविन्दके जीवन में ज्ञान भक्ति एवं कर्मका समन्वय था, उनकी खोज भागवत पूर्णता के लिये थी। प्रस्तुत लेखमें उनका भक्तरूप दिखानेका प्रयत्न किया जा रहा है। श्रीअरविन्दका जीवन सदैव एक पहेली रहा है। और उनकी जीवन-गाथा लिखना एक अत्यन्त दुष्कर कार्य है। अतएव हम उन्हींको कही और लिखी बातोंके सहारे उनके भक्त जीवनका यत्किञ्चित् उल्लेख करेंगे।

श्रीअरविन्दका जन्म कलकत्ते में 15 अगस्त सन् 1872 ई0 को हुआ था। सिविल सर्जन पिता अंग्रेजो सभ्यतापर लड्डू थे और अपनी सन्तानोंको भारतीयताको बुसे भी बचाना चाहते थे श्रीअरविन्द सात वर्षकी आयु ही शिक्षा के लिये विलायत भेज दिये गये। विलायतके वातावरणमें उन्होंने इक्कीस वर्षकी आयुतक शिक्षा पायो। प्रतिभाशाली श्री अरविन्द विदेशी भाषाओं में पारङ्गत हो गये। पिताकी आज्ञा मानकर आई0 सी0 एस0 को प्रतियोगितामें सम्मिलित हुए, किंतु पिताको आकाक्षा पूरी नहीं हुई। श्रीअरविन्दने अन्य विषयोंमें बहुत अच्छा स्थान पाया, परंतु घुड़सवारीको परीक्षाकी उन्होंने उपेक्षा को भारतके विदेशी शासकोंके हाथकी कठपुतली बननेसे वे बच गये।

विलायतसे भारत लौटनेपर श्री अरविन्दके जीवनको एक अन्य धाराका श्रीगणेश होता है। बम्बईके बंदरगाह पर पैर रखते ही उन्होंने एक अद्भुत शान्तिका अनुभव किया. जी उनपर छा गयी विदेशसे वापस आये भारत पुत्रको पावन भारत-भूमिपर भगवान् इससे अधिक अच्छी और क्या वस्तु दे सकते थे।

श्रीअरविन्दने बड़ोदा नरेशकी नौकरी स्वीकार की। बड़ोदा कालेज प्रोफेसर भी रहे। उनसे सब कोई प्र थे। उनकी आर्थिक उन्नति भी हो रही थी परंतु इसी समय देशकी पुकार उठी। यह भारतको नयी शताब्दीका आरम्भिक काल था। श्रीअरविन्द भी राजनीति प्राङ्गणमें कूद पड़े और उस क्षेत्रमें उन्होंने जो कार्य किया, उसकी अपनी एक लंबी कहानी है; परंतु उससे अभी हमाराप्रयोजन नहीं। यहाँ इस बातका प्रसङ्ग हमें इसलिये छेड़ना पड़ा कि यहाँसे उनके जीवनमें एक क्रान्ति और
आती है, जिसे ही देखनेकी हमारी इच्छा है। क्रान्तिकारियोंके कई काण्डोंके पश्चात् श्रीअरवि कलकत्ते में गिरफ्तार कर लिये गये। देशभक्तका जी से उठा। भगवान्को यह क्या सूझी कि सक्रिय रंगमञ्चपरसे वह हटा दिया गया। भगवान्का भक्त अपने प्रभु विश्वास खोने लगा, किंतु यह अवस्था क्षणिक थी। तीन दिन बाद अंदरसे एक आवाज आयी, 'ठहरो और देखो कि क्या होता है।' और कुछ दिनों बाद अलीपुरकी निर्जन कालकोठरी में भक्तको याद आयी कि गिरफ्तारीसे एक मास पूर्व उसे भगवान्‌का यह आदेश मिला था कि 'तुम्हें सारे कर्म छोड़कर एकान्तवास करना है और भगवान् से घनिष्ठतर भावसे संयोग प्राप्त करना है।' परंतु उस समय उसे अपना कार्य बहुत प्रिय था। उसके मनमें यह भाव भी था कि उसके बिना देशके कार्यको धक्का पहुँचेगा। अतएव अब भगवान्‌को ही मार्ग साफ करना पड़ा। श्रीअरविन्दको ऐसा बोध हुआ कि भगवान्ने उनसे फिर कहा, 'जिन बन्धनोंको तोड़नेकी शक्ति तुममें नहीं थी, उन्हें मैंने तुम्हारे लिये तोड़ दिया है। तुम्हारे करनेके लिये मैंने दूसरा काम चुन रखा है और उसीके लिये मैं तुम्हें यहाँ लाया हूँ।'

तब भगवान्ने श्रीअरविन्दके हाथोंमें गीता रख दो और उनकी शक्ति भक्तमें प्रवेश कर गयी। श्रीअरविन्दको अनुभवसे यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि अर्जुनसे श्रीकृष्णको क्या माँग थी। साथ ही साथ हिंदूधर्मके मूल सत्यका भी साक्षात्कार उन्हें हुआ। भगवान्ने जेलरोंके दिलको श्री अरविन्दकी ओर घुमा दिया और उन्हें घंटे-आध घंटे कालकोठरीसे बाहर टहलनेकी अनुमति मिल गयी। वैसे समय उन्हें सर्वत्र भगवान्‌की उपस्थितिकी अनुभूति हुई। 'मैंने अपनेको मनुष्योंसे अलग करनेवाले जेलकी ओर दृष्टि डाली और देखा कि अब मैं उसकी ऊँची दीवारोंके अंदर बंद नहीं हूँ; मुझे तो अब घेरे हुए थे वासुदेव। मेरीकालकोठरीके सामने जो पेड़ था, उसकी शाखाओंके नीचे मैं टहल रहा था; पर वहाँ अब पेड़ नहीं था। मुझे प्रतीत हुआ कि वह वासुदेव हैं। मैंने देखा कि यहाँ स्वयं श्रीकृष्ण खड़े हैं और मुझपर अपनी छाया किये हुए हैं। अपनी कालकोठरीके सीखचोंकी ओर देखा, उन खोंकी ओर देखा, जो दरवाजेका काम कर रहे थे और फिर वहाँ भी वासुदेवको देखा। स्वयं नारायण ही संतरी बनकर पहरा दे रहे थे। अब में उन मोटे कम्बलॉपर लेट गया, जो मुझे पलंगकी जगह मिले थे और यह अनुभव किया कि मेरे सखा, मेरे प्रेमास्पद श्रीकृष्ण ही मुझे अपनी बाहुओंमें लिये हुए हैं। मुझे जो गंभीरतर दृष्टि उन्होंने दी थी, उसका यह पहला प्रयोग था। मैंने जेलके कैदियों चोरों, हत्यारों और बदमाशोंकी ओर देखा और जब मैंने उनकी ओर देखा, तब वासुदेव दिखायी पड़े, उन मलिन आत्माओं और अपव्यवहृत शरीरोंमें मुझे नारायण मिले।'

अदालतमें जब मुकद्दमा चला, भगवान्‌ने फिर भक्तकी रक्षा की भगवान्ने कहा, 'जब तुम जेल भेजे गये थे, क्या तुम्हारा हृदय हताश नहीं हुआ था? क्या तुमने मुझे यह कहकर नहीं पुकारा था कि कहाँ है तुम्हारी रक्षा? अच्छा तो अब मजिस्ट्रेटकी ओर देखो, सरकारी वकीलकी ओर देखो' और श्रीअरविन्दको दोनोंमें प्रेमास्पद श्रीकृष्ण ही दिखलायी पड़े और जब भगवान् रखवाले हैं तो फिर संशय किस बातका कुछ ऐसी घटनाएँ घटीं कि मुकदमेका रुख ही बदल गया और श्रीअरविन्द कारागारसे मुक्त कर दिये गये।

यह कारा जीवन श्रीअरविन्दके लिये साक्षात् वरदान बन गया। भगवान् वासुदेवके दर्शन, उनका संरक्षण, उनके आदेशकी प्राप्ति, उनकी शक्ति एवं इच्छाका यन्त्र बनना श्रीअरविन्द अब दूसरे ही व्यक्ति थे अब उन्हें जगत्के सामने सृष्टिके सत्यको, भगवान्की वाणीको रखना था। अपने प्रसिद्ध उत्तरपाड़ा- अभिभाषण में उन्होंने यही वाणी कही थी।

किंतु भगवान्‌को अभी कई कार्य कराने थे। श्रीअरविन्दअन्तमें सन् 1990 में ब्रिटिश पुलिसके पीछा करने से तंग आकर भारत छोड़ पांडिचेरी चले गये। वहाँ उन्होंने अपना सारा जीवन भगवान्को इच्छाको पूर्ति और भगवान् की सेवामें लगा दिया। सन् 1950 के दिसम्बर की पाँचवीं तारीखको उन्होंने अपना भौतिक शरीर त्याग दिया।

श्री अरविन्द योगी कहे जाते हैं और योग शुष्क माना जाता है। कई लोगोंकी धारणा रही कि श्रीअरविन्दकी साधनामें भक्तिका कोई स्थान नहीं। परंतु जैसा कि श्रीअरविन्दने स्वयं उत्तर दिया, ऐसा सोचना नासमझी है। वरं उन्होंने भक्तिको उच्चतम स्थान दिया है। 'भगवान्के प्रति प्रेम, भक्ति, हृदयका अर्पण- ये सब आवश्यक हैं। हमारी जैसी भी स्थिति हो, हम भक्तिके सीधे मार्गपर चलकर भगवान्की ओर अग्रसर हो सकते हैं। क्या ही सुन्दर हो यदि भगवान्‌के लिये हमारा हृदय भी गोपीका हृदय बन जाये!' कितना अर्थपूर्ण है वह शब्द 'गोपी।' श्रीअरविन्द एक पत्रमें लिखते हैं-

"यदि हम 'गोपी' शब्दको समुचित अर्थमें लें तो यह कहेंगे कि गोपियों साधारण व्यक्ति नहीं हैं। वे एक असाधारण तीव्र आध्यात्मिक अनुरागकी मूर्ति स्वरूपा हैं-उस अनुरागकी, जो उनके प्रेम, व्यक्तिगत भक्ति तथा निःशेष आत्मदानकी चरमताके कारण असाधारण हो गया है। जिस किसीमें यह चीज हो, फिर उसकी (स्त्री हो या पुरुष) अन्य बातों में (विद्या, पाण्डित्य, अभिव्यञ्जना, बाह्य शुचिता आदिमें) कितनी ही दोन अवस्था हो, वह श्रीकृष्णकी खोज कर सकता है और उनके पास पहुँच सकता है-गोपी-प्रतीकका मुझे यही भाव मालूम होता है। निःसंदेह इस प्रतीकके और बहुत से महत्त्वपूर्ण भाव हैं, यह भाव तो बहुतों में से एक है।"

तो गोपीकी-जैसी ही हो हमारी भक्ति- अहैतुको, निश्छल, सच्ची, निरभिमान, निरहङ्कार, निष्काम! हमारे प्रियतम भगवान् जो कुछ चाहें उसीमें तृप्त, संतुष्ट एवं आनन्दित श्रीराधाकी नाई हो भगवान्के प्रति हमारी भक्ति।



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shreearavindake jeevan men jnaan bhakti evan karmaka samanvay tha, unakee khoj bhaagavat poornata ke liye thee. prastut lekhamen unaka bhaktaroop dikhaaneka prayatn kiya ja raha hai. shreearavindaka jeevan sadaiv ek pahelee raha hai. aur unakee jeevana-gaatha likhana ek atyant dushkar kaary hai. ataev ham unheenko kahee aur likhee baatonke sahaare unake bhakt jeevanaka yatkinchit ullekh karenge.

shreearavindaka janm kalakatte men 15 agast san 1872 ee0 ko hua thaa. sivil sarjan pita angrejo sabhyataapar laddoo the aur apanee santaanonko bhaarateeyataako buse bhee bachaana chaahate the shreearavind saat varshakee aayu hee shiksha ke liye vilaayat bhej diye gaye. vilaayatake vaataavaranamen unhonne ikkees varshakee aayutak shiksha paayo. pratibhaashaalee shree aravind videshee bhaashaaon men paarangat ho gaye. pitaakee aajna maanakar aaee0 see0 esa0 ko pratiyogitaamen sammilit hue, kintu pitaako aakaaksha pooree naheen huee. shreearavindane any vishayonmen bahut achchha sthaan paaya, parantu ghuda़savaareeko pareekshaakee unhonne upeksha ko bhaaratake videshee shaasakonke haathakee kathaputalee bananese ve bach gaye.

vilaayatase bhaarat lautanepar shree aravindake jeevanako ek any dhaaraaka shreeganesh hota hai. bambaeeke bandaragaah par pair rakhate hee unhonne ek adbhut shaantika anubhav kiyaa. jee unapar chha gayee videshase vaapas aaye bhaarat putrako paavan bhaarata-bhoomipar bhagavaan isase adhik achchhee aur kya vastu de sakate the.

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aatee hai, jise hee dekhanekee hamaaree ichchha hai. kraantikaariyonke kaee kaandonke pashchaat shreearavi kalakatte men giraphtaar kar liye gaye. deshabhaktaka jee se uthaa. bhagavaanko yah kya soojhee ki sakriy rangamanchaparase vah hata diya gayaa. bhagavaanka bhakt apane prabhu vishvaas khone laga, kintu yah avastha kshanik thee. teen din baad andarase ek aavaaj aayee, 'thaharo aur dekho ki kya hota hai.' aur kuchh dinon baad aleepurakee nirjan kaalakotharee men bhaktako yaad aayee ki giraphtaareese ek maas poorv use bhagavaan‌ka yah aadesh mila tha ki 'tumhen saare karm chhoda़kar ekaantavaas karana hai aur bhagavaan se ghanishthatar bhaavase sanyog praapt karana hai.' parantu us samay use apana kaary bahut priy thaa. usake manamen yah bhaav bhee tha ki usake bina deshake kaaryako dhakka pahunchegaa. ataev ab bhagavaan‌ko hee maarg saaph karana pada़aa. shreearavindako aisa bodh hua ki bhagavaanne unase phir kaha, 'jin bandhanonko toda़nekee shakti tumamen naheen thee, unhen mainne tumhaare liye toda़ diya hai. tumhaare karaneke liye mainne doosara kaam chun rakha hai aur useeke liye main tumhen yahaan laaya hoon.'

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adaalatamen jab mukaddama chala, bhagavaan‌ne phir bhaktakee raksha kee bhagavaanne kaha, 'jab tum jel bheje gaye the, kya tumhaara hriday hataash naheen hua thaa? kya tumane mujhe yah kahakar naheen pukaara tha ki kahaan hai tumhaaree rakshaa? achchha to ab majistretakee or dekho, sarakaaree vakeelakee or dekho' aur shreearavindako dononmen premaaspad shreekrishn hee dikhalaayee pada़e aur jab bhagavaan rakhavaale hain to phir sanshay kis baataka kuchh aisee ghatanaaen ghateen ki mukadameka rukh hee badal gaya aur shreearavind kaaraagaarase mukt kar diye gaye.

yah kaara jeevan shreearavindake liye saakshaat varadaan ban gayaa. bhagavaan vaasudevake darshan, unaka sanrakshan, unake aadeshakee praapti, unakee shakti evan ichchhaaka yantr banana shreearavind ab doosare hee vyakti the ab unhen jagatke saamane srishtike satyako, bhagavaankee vaaneeko rakhana thaa. apane prasiddh uttarapaada़aa- abhibhaashan men unhonne yahee vaanee kahee thee.

kintu bhagavaan‌ko abhee kaee kaary karaane the. shreearavindaantamen san 1990 men british pulisake peechha karane se tang aakar bhaarat chhoda़ paandicheree chale gaye. vahaan unhonne apana saara jeevan bhagavaanko ichchhaako poorti aur bhagavaan kee sevaamen laga diyaa. san 1950 ke disambar kee paanchaveen taareekhako unhonne apana bhautik shareer tyaag diyaa.

shree aravind yogee kahe jaate hain aur yog shushk maana jaata hai. kaee logonkee dhaarana rahee ki shreearavindakee saadhanaamen bhaktika koee sthaan naheen. parantu jaisa ki shreearavindane svayan uttar diya, aisa sochana naasamajhee hai. varan unhonne bhaktiko uchchatam sthaan diya hai. 'bhagavaanke prati prem, bhakti, hridayaka arpana- ye sab aavashyak hain. hamaaree jaisee bhee sthiti ho, ham bhaktike seedhe maargapar chalakar bhagavaankee or agrasar ho sakate hain. kya hee sundar ho yadi bhagavaan‌ke liye hamaara hriday bhee gopeeka hriday ban jaaye!' kitana arthapoorn hai vah shabd 'gopee.' shreearavind ek patramen likhate hain-

"yadi ham 'gopee' shabdako samuchit arthamen len to yah kahenge ki gopiyon saadhaaran vyakti naheen hain. ve ek asaadhaaran teevr aadhyaatmik anuraagakee moorti svaroopa hain-us anuraagakee, jo unake prem, vyaktigat bhakti tatha nihshesh aatmadaanakee charamataake kaaran asaadhaaran ho gaya hai. jis kiseemen yah cheej ho, phir usakee (stree ho ya purusha) any baaton men (vidya, paandity, abhivyanjana, baahy shuchita aadimen) kitanee hee don avastha ho, vah shreekrishnakee khoj kar sakata hai aur unake paas pahunch sakata hai-gopee-prateekaka mujhe yahee bhaav maaloom hota hai. nihsandeh is prateekake aur bahut se mahattvapoorn bhaav hain, yah bhaav to bahuton men se ek hai."

to gopeekee-jaisee hee ho hamaaree bhakti- ahaituko, nishchhal, sachchee, nirabhimaan, nirahankaar, nishkaama! hamaare priyatam bhagavaan jo kuchh chaahen useemen tript, santusht evan aanandit shreeraadhaakee naaee ho bhagavaanke prati hamaaree bhakti.

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श्याम बुलाये राधा नहीं आये,
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मैं बरसाने से आयी हूँ, मैं वृषभानु की
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बहुत बड़ा दरबार तेरो बहुत बड़ा दरबार,
चाकर रखलो राधा रानी तेरा बहुत बड़ा
राधा नाम की लगाई फुलवारी, के पत्ता
के पत्ता पत्ता श्याम बोलता, के पत्ता
हम प्रेम नगर के बंजारिन है
जप ताप और साधन क्या जाने
राधे राधे बोल, राधे राधे बोल,
बरसाने मे दोल, के मुख से राधे राधे बोल,
तीनो लोकन से न्यारी राधा रानी हमारी।
राधा रानी हमारी, राधा रानी हमारी॥
मैं तो तुम संग होरी खेलूंगी, मैं तो तुम
वा वा रे रासिया, वा वा रे छैला
बृज के नंदलाला राधा के सांवरिया,
सभी दुःख दूर हुए, जब तेरा नाम लिया।
मुझे चाहिए बस सहारा तुम्हारा,
के नैनों में गोविन्द नज़ारा तुम्हार
फाग खेलन बरसाने आये हैं, नटवर नंद
फाग खेलन बरसाने आये हैं, नटवर नंद
मेरा अवगुण भरा रे शरीर,
हरी जी कैसे तारोगे, प्रभु जी कैसे
अपनी वाणी में अमृत घोल
अपनी वाणी में अमृत घोल
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फिर डरने की क्या बात है
नी मैं दूध काहे नाल रिडका चाटी चो
लै गया नन्द किशोर लै गया,
कोई कहे गोविंदा, कोई गोपाला।
मैं तो कहुँ सांवरिया बाँसुरिया वाला॥
मोहे आन मिलो श्याम, बहुत दिन बीत गए।
बहुत दिन बीत गए, बहुत युग बीत गए ॥
राधे तु कितनी प्यारी है ॥
तेरे संग में बांके बिहारी कृष्ण
जय राधे राधे, राधे राधे
जय राधे राधे, राधे राधे
सांवरे से मिलने का, सत्संग ही बहाना है,
चलो सत्संग में चलें, हमें हरी गुण गाना
सुबह सवेरे  लेकर तेरा नाम प्रभु,
करते है हम शुरु आज का काम प्रभु,
जिनको जिनको सेठ बनाया वो क्या
उनसे तो प्यार है हमसे तकरार है ।
बोल कान्हा बोल गलत काम कैसे हो गया,
बिना शादी के तू राधे श्याम कैसे हो गया
हम हाथ उठाकर कह देंगे हम हो गये राधा
राधा राधा राधा राधा
तेरे बगैर सांवरिया जिया नही जाये
तुम आके बांह पकड लो तो कोई बात बने‌॥
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भवनिधि पार उतारौ,