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भक्त श्रीतुकारामजी चैतन्य की मार्मिक कथा
भक्त श्रीतुकारामजी चैतन्य की अधबुत कहानी - Full Story of भक्त श्रीतुकारामजी चैतन्य (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्त श्रीतुकारामजी चैतन्य]- भक्तमाल


श्रीतुकारामजीका जन्म दक्षिणके देहू नामक ग्राममें भगवद्भक्तोंके एक पवित्र कुलमें संवत् 1665 वि0 में हुआ था। इनके माता-पिताका नाम कनकाबाई और बोलोजी था। तेरह वर्षकी अवस्थामें इनका विवाह हो गया। वधूका नाम रखुमाई रखा गया। पर विवाहके बाद मालूम हुआ कि बहूको दमेकी बीमारी है। इसलिये माता-पिताने तुरंत ही इनका दूसरा विवाह कर दिया। दूसरी बहूका नाम पड़ा जिजाई। श्रीतुकारामजीके दो और भाई थे, बड़ेका नाम था सावजी और छोटेका नाम था कान्हजी । बोलोजी जब वृद्ध हुए, तब उन्होंने अपनी घर-गृहस्थी और अपना काम-काज अपने बड़े पुत्रको सौंपना चाहा, पर वे विरक्त थे, अतः तुकारामजीके ऊपर ही सारा भार आ पड़ा। उस समय इनकी अवस्था सतरह वर्षकी थी। ये बड़ी दक्षताके साथ काम सम्हालने लगे।

चार वर्षतक सिलसिला ठीक चला। इसके बाद तुकारामजीपर सङ्कट पर सङ्कट आने लगे। सबसे पहले माता-पिताने साथ छोड़ा, जिससे ये अनाथ हो गये। उसके बाद बड़े भाई सावजीकी स्त्रीकादेहान्त हो गया, जिसके कारण मानो सावजीका सारा प्रपञ्चपाश कट गया और वे पूर्ण विरक्त होकर तीर्थयात्रा करने चले गये तथा उधर ही अपना जीवन बिता दिया। बड़े भाईका छत्र सिरपर न होनेसे तुकारामजीके कष्ट और भी बढ़ गये। घर-गृहस्थीके कामसे अब इनका भी मन उचटने लगा। इनकी इस उदासीनवृत्तिसे लाभ उठाकर इनके जो कर्जदार थे, उन्होंने रुपये देनेकी कल्पना ही नहीं की। और जो पावनेदार थे, वे पूरा । तकाजा करने लगे। पैतृक सम्पत्ति अस्त-व्यस्त हो गयी। परिवार बड़ा था- दो स्त्रियाँ थीं, एक बच्चा था, छोटा भाई था और बहनें थीं। इतने प्राणियोंको कमाकर खिलानेवाले अकेले तुकाराम थे, जिनका मन पंछी इस प्रपञ्च पिञ्जरसे उड़कर भागना चाहता था। इनकी जो दूकान थी, उससे लाभके बदले नुकसान ही होने लगा और ये और भी दूसरोंके कर्जदार बन गये। दीवाला निकलनेकी नौबत आ गयी। एक बार आत्मीयोंने सहायता देकर इनकी बात रखी। दो-एक बार ससुरने भी इनकी सहायता की; परंतु इनके उखड़े पैर फिर नहींजमे । पारिवारिक सौख्य भी इन्हें नहींके बराबर था पहली स्त्री तो इनकी बड़ी सौम्य थी, पर दूसरी रात-दिन किच-किच लगाये रहती थी। घरमें यह दशा और बाहर पावनेदारोंका तकाजा। आखिर दीवाला निकल ही गया। तुकारामकी सारी साख धूलमें मिल गयी। इनका दिल टूट गया। फिर भी एक बार हिम्मत करके मिर्चा खरीदकर उसे बेचनेके लिये ये कोंकण गये। परंतु वहाँ भी लोगोंने इन्हें खूब ठगा। जो कुछ दाम वसूल हुए थे, उन्हें भी एक धूर्तने पीतलके कड़ेको, जिसपर सोनेका मुलम्मामात्र चढ़ा था, सोना बतलाकर, उसके बदले में ले लिया और वह चम्पत हो गया।

ये बड़े ही क्षमाशील और सहिष्णु थे। एक बार इनके खेतमें कुछ गन्ने पके थे ये उनका गट्ठर बाँधकर ला रहे थे। रास्तेमें बच्चे पीछे हो गये। उन्होंने गन्ने माँगने शुरू किये थे प्रसन्नता देते गये। अन्तमें एक गन्ना बचा, उसीको लेकर वे घर आये। भूखी पत्नीको बड़ा क्रोध आया। उसने गन्ना छीनकर इनकी पीठपर दे मारा। गन्ना टूट गया। ये हँस पड़े। बोले-'तुम बड़ी साध्वी हो हम दोनोंके लिये मुझे गन्नेके दो टुकड़े करने पड़ते, तुमने बिना कहे ही कर दिये।' इससे इनकी क्षमाशीलताका पता लगता है।

एक बार जिजाईने अपने नामसे रुक्का लिखकर इन्हें दो सौ रुपये दिलाये, जिनसे इन्होंने नमक खरीदा और ढाई सौ रुपये बनाये। परंतु ज्यों ही उन्हें लेकर चले कि रास्ते में एक दुःखिया मिला। उसे देखकर इन्हें दया आ गयी और सब रुपये उसे देकर निश्चिन्त हो गये। उन्हीं दिनों पूना प्रान्तमें भयङ्कर अकाल पड़ा। अन्न पानी के बिना सहस्रों मनुष्योंने तड़प-तड़पकर प्राण त्याग दिये। इसके बाद तुकारामजीकी ज्येष्ठ पत्नी मर गयी। और स्त्रीके पीछे इनका बेटा भी चल बसा। दुःख और शोककी हद हो गयी।

दुःखके इस प्रचण्ड दावानलसे तुकाराम वैराग्य कञ्चन होकर ही निकल सके। अब इन्होंने योग क्षेमका सारा भार भगवान्पर रखकर भगवद्भजन करनेका निश्चयकर लिया । घरमें जो कुछ रुक्के रखे हुए थे, उनमेंसे आधे तो इन्होंने अपने छोटे भाईको दे दिये और कहा- 'देखो, बहुतोंके यहाँ रकम पड़ी हुई है। इन रुक्कोंसे तुम चाहे | वसूल करो या जो कुछ भी करो। तुम्हारी जीविका तुम्हारे हाथमें है।' इसके बाद तुकारामजीने बाकी आधे रुक्कोंको अपने वैराग्यमें बाधक समझा और उन्हें इन्द्रायणीके दहमें फेंक दिया। अब इन्हें किसीकी चिन्ता नहीं रही। ये भगवद्भजनमें, कीर्तनमें या कहीं एकान्त ध्यानमें ही प्रायः रहने लगे। प्रातःकाल नित्यकर्मसे निवृत्त होकर ये विट्ठलभगवान्के मन्दिरमें जाते और वहीं पूजापाठ तथा सेवा करते। वहाँसे फिर इन्द्रायणीके उस पार कभी भागनाथ पर्वतपर और कभी गोण्डा या भाराडारा पर्वतपर चढ़कर वहीं एकान्त स्थलमें ज्ञानेश्वरी या एकनाथी भागवतका पारायण करते और फिर दिनभर नाम-स्मरण करते रहते। सन्ध्या होनेपर गाँवमें लौटकर हरिकीर्तन सुनते, जिसमें लगभग आधी रात बीत जाती । इसी समय इनके घरका ही, श्रीविश्वम्भर बाबाका बनवाया हुआ श्रीविट्ठलमन्दिर बहुत जीर्ण-शीर्ण हो गया था। उसकी इन्होंने अपने हाथोंसे मरम्मत की। इस प्रकारकी कठिन साधनाओंके फलस्वरूप श्रीतुकारामजीकी चित्तवृत्ति अखण्ड नाम-स्मरणमें लीन होने लगी। भगवत्कृपासे कीर्तन करते समय इनके मुखसे अभङ्ग वाणी निकलने लगी। बड़े-बड़े विद्वान् ब्राह्मण और साधु संत इनकी प्रकाण्ड ज्ञानमयी कविताओंको इनके मुखसे स्फुरित होते देखकर इनके चरणोंमें नत होने लगे।

पूनासे नौ मील दूर बाघोली नामक स्थानमें एक वेद-वेदान्तके प्रकाण्ड पण्डित तथा कर्मनिष्ठ ब्राह्मण रहते थे। उनको श्रीतुकारामजीकी यह बात ठीक न जँची। तुकाराम जैसे शूद्र जातिवालेके मुखसे श्रुत्यर्थबोधक मराठी अभङ्ग निकलें और आब्राह्मण सब वर्णोंके लोग | उसे संत जानकर मानें तथा पूजें, यह बात उन्हें जरा भी पसंद न आयी। उन्होंने देहूके हाकिमसे तुकारामजीको देहू छोड़कर कहीं चले जानेकी आज्ञा दिलायी। इसपर तुकारामजी पण्डित रामेश्वर भट्टके पास गये और उनसेबोले-'मेरे मुखसे जो ये अभङ्ग निकलते हैं, सो भगवान् पाण्डुरङ्गकी आज्ञासे ही निकलते हैं। आप ब्राह्मण है, ईश्वरवत् हैं, आपकी आज्ञा है तो मैं अभङ्ग बनाना छोड़ दूँगा; पर जो अभङ्ग बन चुके हैं और लिखे रखे हैं, उनका क्या करूँ?' भट्टजीने कहा-'उन्हें नदीमें डुबा दो।' ब्राह्मणकी आज्ञा शिरोधार्यकर तुकारामजीने देहूं लौटकर ऐसा ही किया। अभङ्गकी सारी बहियाँ इन्द्रायणीके दहमें डुबो दी गयीं पर विद्वान् ब्राह्मणोंके द्वारा तुकारामजीके भगवत्प्रेमोद्वार निषिद्ध माने जायें, इससे तुकारामजीके हृदयपर बड़ी चोट लगी। उन्होंने अन-जल त्याग दिया और श्रीविट्ठलमन्दिरके सामने एक शिलापर बैठ गये कि या तो भगवान् हो मिलेंगे या इस जीवनका ही अन्त होगा। इस प्रकार हठीले भक्त तुकारामजी श्रीपाण्डुरङ्गके साक्षात् दर्शनकी लालसा लगाये, उस शिलापर बिना कुछ खाये पिये तेरह दिन और तेरह रात पड़े रहे। अन्तमें भक्तपराधीन भगवान्का आसन हिला। तुकारामजीके हृदयमें तो वे थे ही, अब वे बालवेश धारण करके तुकारामजीके समक्ष प्रकट हो गये। तुकारामजी उनके चरणोंमें गिर पड़े। भगवान्ने उन्हें दोनों हाथोंसे उठाकर छातीसे लगा लिया। तत्पश्चात् भगवान्ने तुकारामजीको बतलाया कि 'मेरे तुम्हारे अभौकी बहियोंको इन्द्रायणीके दहमें सुरक्षित रखा था। आज उन्हें तुम्हारे भक्तोंको दे आया हूँ।' यह कहकर भगवान् फिर तुकारामजी के हृदयमें अन्तर्धान हो गये।

इस सगुण साक्षात्कारके पश्चात् तुकारामजी महाराजका शरीर पंद्रह वर्षतक इस भूतलपर रहा और जबतक रहा, तबतक इनके मुखसे सतत अमृतयारधाराकी वर्षा होती रही। इनके स्वानुभवसिद्ध उपदेशोंको सुन-सुनकर लोग कृतार्थ हो जाते थे। सब प्रकारके लोग इनके पास आते थे और सभीको ये अधिकारानुसार उपदेश देते तथा साधन बतलाते थे। जिस समय इन्द्रायणीमें अभङ्गोंकी बहियाँ दुआ दी गयीं थीं, उसके कई दिनों बाद वे ही पण्डित रामेश्वरभट्ट पूनमें श्रीनागनाथजीका दर्शन करनेजा रहे थे। रास्तेमें वे अनगढ़शाह औलियाकी बावली में नहानेके लिये उतरे। नहाकर जो ऊपर आये तो एकाएक उनके सारे शरीरमें भयानक जलन पैदा हो गयी। वे रोने पीटने और चिल्लाने लगे शिष्योंने बहुत उपचार किया, पर कोई लाभ नहीं हुआ। अन्तमें जब ज्ञानेश्वर 1 महाराजने स्वप्रमें उन्हें तुकारामजीकी शरण जानेके लिये कहा, तब वे दौड़कर श्रीतुकारामजीकी शरण गये। इस प्रकार रामेश्वरभट्ट जैसे प्रकाण्ड पण्डित, कर्मनिष्ठ और तेजस्वी ब्राह्मण भी तुकारामजीको महात्मा मानकर उनका शिष्य होनेमें अपना कल्याण और गौरव मानने लगे। फिर भी श्रीतुकारामजी पण्डित रामेश्वरभट्टको देवता जानकर प्रणाम करते थे और उन्हें प्रणाम करनेसे रोकते थे श्रीतुकारामजी महाराजके सिद्ध उपदेशके अधिकारी बहुत लोग थे। छत्रपति शिवाजी महाराज तुकारामजीको अपना गुरु बनाना चाहते थे; पर उनके नियत गुरु समर्थ श्रीरामदास स्वामी हैं, यह अन्तर्दृष्टिसे जानकर तुकारामजीने उन्हें उन्होंकी शरणमें जानेका उपदेश दिया। फिर भी शिवाजी महाराज इनकी हरिकथाएँ बराबर सुना करते थे।

श्रीतुकाराम महाराजके जीवनमें लोगोंने अनेकों चमत्कार भी देखे। स्थानाभावके कारण उनके चमत्कारोंका उल्लेख यहाँ नहीं किया जाता। सं0 1706 चैत्र कृष्ण 2 के दिन प्रातः काल श्रीतुकारामजी महाराज इस लोकसे विदा हो गये। उनका मृत शरीर किसीने नहीं देखा, वह मृत हुआ भी नहीं भगवान् स्वयं उन्हें सदेह विमानमें बैठाकर अपने वैकुण्ठधाममें ले गये। इस प्रकार वैकुण्ठ सिधारनेके बाद भी श्रीतुकारामजी महाराज कई बार भगवद्भक्तोंके सामने प्रकट हुए। देहू और लोहगाव तुकारामजी महाराजके अनेक स्मारक हैं; परंतु ये स्मारक तो जड हैं, उनका जीता-जागता और सबसे बड़ा स्मारक अभङ्ग समुदाय है। उनकी यह अभङ्ग वाणी जगत्की अमूल्य और अमर आध्यात्मिक सम्पत्ति है। यह श्रीतुकारामजी महाराजकी वाङ्मयी मूर्ति है।



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