आजसे बारह सौ वर्ष पूर्व तुर्किस्तानके बसरा नामक नगरमें रबियाका जन्म एक गरीब मुसलमानके घर हुआ था। रबिया उसकी चौथी कन्या थी। रवियाकी मा तो उसके बचपनमें ही मर गयी थी। पिता भी रबियाको बारह वर्षकी उम्रमें ही अनाथिनी कर चल बसा। रविया बड़े ही कष्टके साथ अपना जीवन निर्वाह करती। एक समय देशमें भयानक अकाल पड़ा, जिससे बहनोंका सङ्ग भी छूट गया। किसी दुष्टने रबियाको फुसलाकर एक धनीके हाथ बेच दिया। धनी बड़ा ही स्वार्थी और निर्दय स्वभावका मनुष्य था। पैसोंसे खरीदी हुई गुलाम रबियापर तरह-तरहके जुल्म होने लगे। गाली और मार तो मामूली बात थी। रबिया कष्टसे पीड़ित होकर अकेले में ईश्वरके सामने रो-रोकर चुपचाप अपना दुखड़ा सुनाया करती। जगत्में एक ईश्वरके सिवा उसे सान्त्वना देनेवाला कोई नहीं था। गरीब अनाथका उस अनाथ नाथके अतिरिक्त और होता भी कौन है।
मालिकके जुल्मसे घबराकर उससे पिण्ड छुड़ानेके लिये रबिया एक दिन छिपकर भाग निकली, परंतु ईश्वरका विधान कुछ और था। थोड़ी दूर जाते ही वह ठोकर खाकर गिर पड़ी, जिससे उसका दाहिना हाथ टूट गया। विपत्तिपर नयी विपत्ति आयी। अमावस्याकी घोर निशाके बाद ही शुक्लपक्षका अरुणोदय होता है। विपत्तिको सीमा होनेपर ही सुखके दिन लौटा करते हैं। रबिया इस नयी विपत्तिसे विचलित होकर रो पड़ी और उसने दोनोंके एकमात्र बन्धु भगवान्की शरण लेकर कहा-'ऐ मेरे मेहरबान मालिक। मैं बिना मा-बापकी अनाथ लड़की जन्म ही पड़ी हुई दिन रात यहाँ कैदीकी तरह मरती पचती किसी कदर जिंदगी बिता रही थी। रहा-सहा हाथ भी टूट गया। क्या तुम मुझपर खुश नहीं होओगे? कहो, मेरे मालिक! तुम मुझसे क्यों नाराज हो?'
रबियाकी कातर वाणी गगनमण्डलको भेदकर उस अलौकिक लोकमें पहुँच तुरंत भगवान्के दिव्य श्रवणेन्द्रियोंमें प्रवेशकर हृदयमें जा पहुँची। रबियाने दिव्य स्वरोंमें सुना,मानो भगवान् स्वयं कह रहे हैं-'बेटी! चिन्ता न कर। तेरे सारे सङ्कट शीघ्र ही दूर हो जायेंगे। तेरी महिमा पृथ्वीभरमें छा जायगी देवता भी तेरा आदर करेंगे।' सच्ची करुण-प्रार्थनाका उत्तर तत्काल ही मिला करता है।
इस दिव्य वाणीको सुनकर रबियाका हृदय आनन्दसे उछल पड़ा। उसको अब पूरी उम्मीद और हिम्मत हो गयी। उसने सोचा कि 'जब प्रभु मुझपर प्रसन्न हैं और अपनी दयाका दान दे रहे हैं, तब कष्टोंको कोमल कुसुमकि स्पर्शको भाँति हृदयसे सहन कर लेना कौन बड़ी बात है।' रबिया अपने हाथको चोटके दर्दको भूलकर प्रसन्न चित्तसे मालिकके घर लौट आयी। पर आजसे उसका जीवन पलट गया। काम-काज करते हुए भी उसका ध्यान प्रभुके चरणोंमें रहने लगा। वह रातों जगकर प्रार्थना करने लगी। भजनके प्रभावसे उसका तेज बढ़ गया। एक दिन आधी रातके समय रबिया अपनी एकान्त कोठरीमें घुटने टेके बैठी हुई करुण स्वरसे प्रार्थना कर रही थी। भगवत्प्रेरणासे उसी समय उसके मालिककी भी नींद टूटी। उसने बड़ी मीठी करुणोत्पादक आवाज सुनी और वह तुरंत उठकर अन्दाज लगा रबियाकी कोठरीके दरवाजेपर आ गया। परदेकी ओटसे उसने देखा कोठरीमें अलौकिक प्रकाश छाया हुआ है। रबिया अनिमेष नेत्रोंसे बैठी विनय कर रही है। उसने रविपाके ये शब्द सुने-'ऐ मेरे मालिक! मैं अब सिर्फ तेरा ही हुक्म उठाना चाहती हूँ; लेकिन क्या करूँ? जितना चाहती हूँ, उतना हो नहीं पाता। मैं खरीदी हुई गुलाम हूँ। मुझे गुलामीसे फुरसत ही कहाँ मिलती है।'
दीन-दुनियाके मालिकने रबियाकी प्रार्थना सुन ली और उसीकी प्रेरणासे रबियाके मालिकका मन उसी क्षण पलट गया। यह रवियाकी तेजःपुञ्जमयी मञ्जुल मूर्ति देख और उसकी भक्ति करुणापूर्ण प्रार्थना सुनकर चकित हो गया। वह धीरे-धीरे रबियाके समीप आ गया। उसने देखा, रबियाके भक्तिभावपूर्ण मुखमण्डल और चमकीले ललाटपर दिव्य ज्योति छायी हुई है उसी स्वर्गीयज्योतिसे मानो सारे घरमें उजियाला हो रहा है। इस दृश्यको देखकर वह भय और आश्चर्यमें डूब गया। उसने सोचा कि ऐसी पवित्र और पूजनीय देवीको गुलामीमें रखकर मैंने बड़ा ही अन्याय- बड़ा ही पाप किया है। ऐसी प्रभुकी सेविका देवीकी सेवा तो मुझको करनी चाहिये। रबियाके प्रति उसके मनमें बड़ी भारी श्रद्धा उत्पन्न हो गयी। उसने विनीत भावसे कहा-'देवि! मैं अबतक तुझे पहचान नहीं सका था। आज भगवत्कृपासे मैंने तेरा प्रभाव जाना। अब तुझे मेरी सेवा नहीं करनी पड़ेगी। तू सुखपूर्वक मेरे घरमें रह मैं ही तेरी सेवा करूंगा।'
रबियाने कहा - 'स्वामिन्! मैं आपके द्वारा सेवा कराना नहीं चाहती। आपने इतने दिनोंतक मुझे घरमें रखकर खानेको दिया, यही मुझपर बड़ा उपकार है। अब आर दया करके मुझको दूसरी जगह चले जानेकी स्वतन्त्रता दे दें तो मैं किसी निर्जन स्थानमें जाकर आनन्दसे भगवान्का भजन करूँ।' मालिकने रबियाकी बात मान ली। अब रबिया गुलामीसे छूटकर अपना सारा समय भजन ध्यानमें बने लगी। उसके हृदयमें प्रेमसिन्धु छलकने लगा। संसारकी आसक्तिका तो कहीं नाम निशान भी नहीं रह गया। रबियाने अपना जीवन सम्पूर्णरूपसे प्रेममय परमात्माके चरणोंमें अर्पण कर दिया। रवियाके जीवनकी कुछ उपदेशप्रद घटनाओंका मनन कीजिये
एक बार रबिया उदास बैठी हुई थी, दर्शनके लिये आनेवाले लोगोंमेंसे एकने पूछा, 'आज आप उदास क्यों हैं?' रबियाने जवाब दिया-'आज सबेरे मेरा मन स्वर्गकी ओर चला गया था, इसके लिये मेरे आन्तरिक परम सखाने मुझे फटकारा है। मैं इसी कारण उदास हूँ कि सखाको छोड़कर मेरा पाजी मन दूसरी ओर क्यों गया।' रविवा ईश्वरको सखाके रूपसे भजती थी।
एक समय रबिया बहुत बीमार थी, सूफियान नामक एक साधक उससे मिलने गया। रबियाकी बीमारीकी हालत देखकर सूफियानको बड़ा खेद हुआ, परंतु वह संकोचके कारण कुछ भी कह नहीं सका। तब रबियाने उससे कहा- भाई तुम कुछ कहना चाहते हो तो कहो।" सूफियानने कहा- देवि! आप प्रभुसे प्रार्थना कीजिये,प्रभु आपकी बीमारीको जरूर मिटा देंगे।'
रबियाने मुसकराते हुए जवाब दिया- 'सूफियान ! क्या तुम इस बातको नहीं जानते कि बीमारी किसकी इच्छा और इशारेसे होती है? क्या इस बीमारीमें मेरे प्रभुका हाथ नहीं है?"
सूफियान - 'हाँ, उसकी इच्छा बिना तो क्या होता है।' रबिया- 'जब यह बात है, तब तुम मुझसे यह कैसे कह रहे हो कि मैं उसकी इच्छाके विरुद्ध बीमारीसे छूटनेके लिये उससे प्रार्थना करूँ।' जो मेरा परम सखा है, जिसका प्रत्येक विधान प्रेमसे भरा होता है, उसकी इच्छाके विरुद्ध कार्य करना क्या प्रेमीके लिये कभी उचित है?' कैसा सुन्दर आत्मसमर्पण है!
एक बार संत हुसैन बसरीने रबियासे पूछा- 'क्या आप विवाह करना चाहती हैं?' रवियाने जवाब दिया, 'विवाह शरीरसे होता है, परंतु मेरे शरीर कहाँ है। मैं तो मनके साथ इस तनको प्रभुके हाथों अर्पण कर चुकी हूँ, यह शरीर अब उसीके अधीन है और उसीके कार्य में लगा हुआ है। विवाह किसके साथ किस प्रकार करूँ?'
रबियाने अपना सब कुछ प्रभुको अर्पण कर दिया। था, उसके समीप एक प्रभुके सिवा ऐसी कोई वस्तु नहीं थी, जिसे वह 'मेरी' कहती या समझती हो। एक बार हुसैन बसरीने पूछा- देवि! आपने ऐसी ऊँची स्थिति किस तरह प्राप्त की?'
रबिया- 'जो कुछ मिला था, सो सब खोकर उसे पाया है।'
हुसैन- 'आप जिस ईश्वरकी उपासना करती हैं,
क्या आपने उस ईश्वरको कभी देखा है?' रबिया-' देखती नहीं तो पूजा कैसे करती। परंतु मेरे उस ईश्वरका वाणीसे वर्णन नहीं हो सकता, वह माप बीलकी चीज नहीं है।'
रबिया सबसे प्रेम करती, पापी-तापी-सबके साथ उसका दयाका बर्ताव रहता था। एक दिन एक मनुष्यने रवियासे पूछा- 'आप पापरूपी राक्षसको तो शत्रु ही समझती हैं न?'
रविवाने कहा- 'ईश्वरके प्रेममें छकी रहनेके कारण मुझे न किसीसे शत्रुता करनी पड़ी और नकिसीसे लड़ना ही पड़ा। प्रभुकृपासे मेरे कोई शत्रु रहा ही नहीं।'
एक समय कुछ लोग रवियाके पास गये, रवियाने उनमेंसे एकसे पूछा- भाई! तू ईश्वरकी सेवा किसलिये करता है?' उसने कहा— 'नरककी भयानक पीड़ासे छूटनेके लिये दूसरेसे पूछनेपर उसने कहा- 'स्वर्ग अत्यन्त ही रमणीय स्थान है, वहाँ भाँति-भाँतिके भोग और असीम सुख है, उसी सुखको पानेके लिये मैं भगवान्की भक्ति करता हूँ।'
रबियाने कहा- 'बेसमझ भक्त ही भय या लोभके कारण प्रभुकी भक्ति किया करते हैं, न करनेसे तो यह भी अच्छी ही है; परंतु मान लो, यदि स्वर्ग या नरक दोनों ही न होते तो क्या तुमलोग प्रभुकी भक्ति करते? सच्चे भक्तको ईश्वर भक्ति किसी भी लोक-परलोककी प्राप्तिके लिये नहीं होती, वह तो अहेतुको हुआ करती है।' कैसा आदर्श भक्तिका निरूपण है।
एक बार एक धनी मनुष्यने रवियाको बहुत फटे पुराने चिथड़े पहने देखकर कहा-'तपस्विनी। यदि आपका इशारा हो तो आपकी इस दरिद्रताको दूर करनेके लिये यह दास तैयार है।'
रबिया - 'सांसारिक दरिद्रताके लिये किसीसे कुछ भी माँगते मुझे बड़ी शरम मालूम होती है। जब यह सारा जगत् मेरे प्रभुका ही राज्य है, तब उसे छोड़कर मैं दूसरे किससे क्या मांगू? मुझे जरूरत होगी तो अपने मालिकके हाथसे आप ही ले लूँगी।' धन्य निर्भरता।
एक समय एक मनुष्यने रबियाके फूटे लोटे और फटी गुदड़ीको देखकर कहा-'देवि! मेरी अनेक धनियोंसे
मित्रता है; आप आज्ञा करें तो आपके लिये जरूरी
सामान ले आऊँ ?'
रबिया - 'तुम बहुत गलती कर रहे हो, वे कोई भी मेरे अन्नदाता नहीं हैं। जो यथार्थ जीवनदाता है, वह क्या गरीबीके कारण गरीबको भूल गया है? और क्या धनके कारण ही वह धनवानोंको याद रखता है?'रशिया कभी-कभी प्रेमावेशमें बड़े जोरसे पुकार उठती। लोग उससे पूछने लगे कि आपको कोई रो या दुःख न होनेपर भी आप किसलिये चिल्ला उठती है?" रविवाने कहा-'मेरी बाहरी बीमारी नहीं है, जिसको संसारके लोग समझ सकें; मेरे तो अन्तरका रोग है, जो किसी भी वैद्य-हकीमके वशका नहीं है। मेरी यह बीमारी तो सिर्फ उस मनमोहनके मुखड़ेकी छवि देखनेसे ही मिट सकती है।'
रवियाका मन सदा-सर्वदा प्रभुकी उपासनामें लगा रहता था, वह दिन-रात प्रभुके चिन्तनमें अपना समय बिताती। एक बार रबियाने प्रभुसे प्रार्थना की- 'स्वामी ! तू ही मेरा सब कुछ है, मैं तेरे सिवा और कुछ भी नहीं चाहती। हे प्रभो ! यदि मैं नरकके डरसे तेरी पूजा करती हूँ तो मुझे नरकाग्रिमें भस्म कर दे। यदि मैं स्वर्गक लोभसे तेरी सेवा करती हूँ तो स्वर्गका द्वार मेरे लिये सदाको बंद कर दे और अगर तेरे लिये ही तेरी पूजा करती हूँ तो अपना परम प्रकाशमय सुन्दर रूप दिखलाकर मुझे कृतार्थ कर।"
रबियाका शेष जीवन बहुत ही ऊँची अवस्थामें बीता, वह चारों ओर अपने परम सखाके असीम सौन्दर्यको देख-देखकर आनन्दमें डूबी रहती। एक दिन रातको, जब चन्द्रमाकी चाँदनी चारों ओर छिटक रही थी रबिया अपनी कुटियाके अंदर किसी दूसरी ही दिव्य सृष्टिकी ज्योत्स्नाका आनन्द लूट रही थी इतनेमें एक परिचित स्त्रीने आकर ध्यानमग्न रवियाको बाहरसे पुकारा, 'रबिया ! बाहर आकर देख-कैसी खूबसूरत रात है।' रबियाके हृदयमें इस समय जगत्का समस्त सौन्दर्य जिसकी एक बूँदके बराबर भी नहीं है, वही सुन्दरताका सागर उमड़ रहा था। उसने कहा-'तुम एक बार मेरे दिलके अंदर घुसकर देखो, कैसी दुनियासे परेकी अनोखी खूबसूरती है।'
हिजरी सन् 135 में रबियाने भगवान्में मन लगाकर इस नश्वर शरीरको त्याग दिया !
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hijaree san 135 men rabiyaane bhagavaanmen man lagaakar is nashvar shareerako tyaag diya !