प्राचीन कालमें दक्षिण भारतमें कावेरी-तटपर स्थित एक गाँवमें विष्णुचित्त नामके एक परम वैष्णव भक्त रहते थे। वे बड़े ही आस्तिक एवं धर्मनिष्ठ पुरुष थे। अहर्निश वे भगवद्भजन, हरिकीर्तन और नाम-जपमें निरत रहते थे। उन्हें भगवान्के सिवा और कुछ सुहाता ही न था। बड़ा ही सुरम्य उनका एक तुलसीका उपवन था। वे नित्य प्रातः काल तुलसीके थाल्होंमें जल डालते और तुलसीदलकी ही माला बनाकर भगवान्का शृङ्गार करते। एक समय प्रात:काल जब वे घड़े में जल भरकर तुलसी सौंचने गये, तब वहाँ उन्हें एक परम मनोहर नवजात कन्या दिखायी पड़ी। उन्होंने बड़े स्नेहसे उस बालिकाको उठा लिया तथा उसे वटपत्रशायी भगवान् नारायणके चरणोंमें रखकर कहा-'प्रभो! यह तुम्हारी ही सम्पत्ति है, जो तुम्हारी सेवाके लिये आयी है। इसे अपने पादपद्मोंमें आश्रय दो।' इसपर मूर्तिमेंसे शब्द आया- 'इस लड़कीका नाम 'कोदई' रखो और इसे अपनी ही लड़की मानकर इसका लालन-पालन करो।' 'कोदई' का अर्थ है- 'फूलोंके हारके समान कमनीय।' इसी लड़कीको आगे चलकर जब भगवान्का प्रेम और उनकी | कृपा प्राप्त हो गयी, तब लोग 'आण्डाळ' कहने लगे थे।
रात में भगवान्ने स्वप्रमें विष्णुचित्तजीको कन्याका भारा हाल बताया- 'वाराहावतारमें मैंने पृथ्वीका उद्धार किया था, तब पृथ्वीने मुझसे पूछा कि 'आपको किस प्रकारकी पूजा परम प्रिय है?' उस समय मैंने बतलाया था कि 'मुझे नाम-कीर्तन तथा पत्र-पुष्प फल तोयकी पूजा सर्वप्रिय है। मुझे प्राप्त करनेके लिये भक्त मेरे नामका कीर्तन करे और प्रेम-भक्तिके साथ मेरी पूजा अर्चा करे।' मेरी उस बातको हृदयमें धारणकर पृथ्वी इस कन्याके रूपमें प्रकट हुई है और अब तुम्हारे घरमें बसना चाहती है। यदि तुम इस कन्याकी सेवा करते रहोगे तो अवश्य परमपदको प्राप्त होओगे।' ब्राह्मण-ब्राह्मणी इस कन्याको पाकर परम प्रसन्न हुए। यथासमय उन्होंने कन्याके जातकर्मादि संस्कार कराये।
लड़की जब बोलने लगी, तब उसके मुखसे 'विष्णु' के अतिरिक्त कोई दूसरा नाम ही नहीं निकलता था। जब वह कुछ सयानी हुई, तब भगवान्के गीत गाने लगी। पिताके मन्दिर चले जानेपर वह उनके पीछे उपवनकी रखवाली करती और भगवान्की पूजाके लिये फूलोंके हार गूंथती । कन्याकी बनायी मालाको लेकर विष्णुचित्त ब्राह्मण श्रीरङ्गनाथजीके मन्दिरमें जाते और माला भगवान्को चढ़ा आते। जब वह कुछ और बड़ी हुई, तब भगवान् रङ्गनाथको अपने पतिके रूपमें भजने लगी। वह अपने प्रियतमके प्रेममें अपने-आपको इतना भूल जाती कि भगवान् के लिये गूँथे हुए हारको स्वयं पहनकर दर्पणके सम्मुख खड़ी हो जाती और अपने सौन्दर्यकी स्वयं प्रशंसा करती हुई कहती- 'क्या मेरा सौन्दर्य मेरे प्रियतमको आकर्षित कर सकेगा ?'
एक दिन मन्दिरके पुजारीने विष्णुचित्तकी माला यह कहकर लौटा दी कि उसमें किसी मनुष्यके सिरका बाल लगा हुआ है। ब्राह्मणको यह सुनकर बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने ताजे पुष्प चुने, नवीन हार बनाया और भगवान्को अर्पण किया। दूसरे दिन भी पुजारीने कहा कि माला कुछ मुरझायी हुई है। विष्णुचिसने अपने मनमें सोचा कि अवश्य ही इसमें कोई-न-कोई रहस्य होना चाहिये। वे जब इसका कारण घरपर ढूंढ़नेमें लगे, तब उनकी दृष्टि अकस्मात् अपनी लड़कीपर गयी। उन्होंने देखा कि वह | परदेके पीछे नवीन पुष्पोंका हार पहने दर्पणके सम्मुख खड़ी है और मन-ही-मन अपने प्रियतम भगवान्से कुछ बातें कर रही है। वे दौड़कर लड़कीके पास गये और चिल्लाकर बोले-'बेटी। यह तूने क्या किया? तू पागल तो नहीं हो गयी जो भगवान्के लिये तैयार किये हारोंको स्वयं धारण करके जूँठा कर रही है ?' विष्णुचित्तने फिरसे दूसरे हार बनाये और प्रभुको चढ़ाये, परंतु आण्डाळ तो अपनेको प्रभुके चरणोंमें समर्पित कर चुकी थी समर्पण जब सम्पूर्ण होता है, तब देवताको स्वीकार होता ही है। आवश्यकता इस बातकी है कि हृदयको प्रभुके चरणोंमें चढ़ाते समय वह सर्वथा शून्य, सर्वथा निरावरण रहे। आण्डाळका मधुर और सम्पूर्ण समर्पण भला भगवान्को अङ्गीकार क्यों न हो? उसी दिन रातको विष्णुचित्तको भगवान्ने स्वप्रमें आदेश दिया। 'मुझे आण्डाळकी पहनी हुई माला धारण करनेमें विशेष सुख मिलता है, इसलिये वही हार मुझे चढ़ाया करो।' अब तो विष्णुचित्तको अपनी कन्याके महत्त्वका पूरा निश्चय हो गया। कुछ दिनों बाद आण्डाळकी धारण की हुई मालाओंको ही वे भगवान्को निवेदन करने लगे।
आण्डाळ अहर्निश प्रभुके प्रेममें मतवाली रहती। एक दिन उसने अपने धर्मपितासे बड़े ही अनुनय विनयके साथ दिव्य धामों तथा तीर्थस्थानोंके विषयमें पूछा। विष्णुचित्तका चित्त प्रभुके चरणोंका अनुरागी था ही उन्होंने बहुत प्रेम और श्रद्धाभरे शब्दोंमें अपनी बेटीसे भगवान्के वैकुण्ठ आदि दिव्य धामोंके नाम बतलाये और अन्तमें कहा, 'दक्षिणमें कावेरीके तटपर भगवान् श्रीरङ्गनाथका वास है। भगवान् श्रीरङ्गनाथका नाम सुनते ही आण्डाळके रोमाञ्च हो आया और उसकी आँखोंसे प्रेमाओंकी धारा बरस पड़ी। उनसे विह्वल होकर अपने इष्टदेवके सम्बन्धमें अधिक जानने की इच्छा
प्रकट की। तब विष्णुचित सुनाने लगे- 'इक्ष्वाकुके
यज्ञकी पूर्ति के लिये ब्रह्माजीकी प्रार्थनापर भगवान् विष्णु
यहाँ प्रकट हुए। भगवान्का साक्षात्कार हो जानेपर
याकु कृतार्थ हो गये और ब्रह्माको आज्ञासे वे सरयूके तटपर अयोध्यामें तपस्या करने लगे। तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माने इखाकुसे वर माँगनेके लिये कहा। इक्ष्वाकुने यही वर माँगा कि 'भगवान् विष्णुका यहाँ अवधमें अवतार हो और वे श्रीरङ्गनाथजीके रूपमें उनके कुलदेव रहें।' ब्रह्माने उन्हें मुँहमाँगा वरदान दे दिया।
"भगवान् श्रीरामचन्द्रजी जब लङ्काको जीतकर अयोध्या आये, तब उनके साथ विभीषण भी पधारे थे। वे जब लङ्का जाने लगे, तब उन्होंने भगवान्से कहा कि 'आपका वियोग मेरे लिये सर्वथा असह्य है। अतएव मुझे ऐसी कोई वस्तु दीजिये, जिससे मेरे हृदयको धीरज हो । विभीषण के अटल प्रेमको देखकर भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने उन्हें श्रीरङ्गनाथजीकी प्रतिमा दी। जब विभीषण कावेरी तटपर आये, तब वे किसी दूसरे यज्ञ-अनुष्ठानमें संलग्न हो गये। फिर भगवान् श्रीरङ्गनाथजीने लङ्का जाना अस्वीकार कर दिया और विभीषणने वहीं भगवान्की मूर्ति स्थापित की। विभीषण भगवान्की पूजा-अर्चाके लिये नित्य लङ्कासे यहाँ आया करते थे।'
भगवान् श्रीरङ्गनाथका वर्णन सुनकर आण्डाळकी उत्कण्ठा और भी तीव्र हो गयी। उसने पितासे भगवान्की प्राप्तिका साधन पूछा। अब आण्डाळके लिये एक क्षणका वियोग भी असह्य था।
आण्डाळकी विरहख्यथा बढ़ती ही गयी। उसके प्राण रात-दिन जीवनधनमें अटके रहते थे वह उसीका नाम जपती, उसीका कीर्तन करती और उसीकी धुनमें डूबी रहती। उसकी आँखोंमें, हृदयमें प्राणोंमें, रोम-रोममें औरङ्गनाथजी ही छाये हुए थे। वह रोती और दहाड़ मारकर छाती पीटती-'प्रियतम स्वप्रमें आकर तुमने मिलनेका 1 जो उपक्रम किया है, उससे तो मेरे भीतरकी विरहानि और 1 भी धधक उठी है। यों तड़पानेमें तुम्हें कौन-सा रस मिलता है। हाय! एक क्षण भी तुम्हारे बिना रहा नहीं जाता। देव! मेरे जीवनधन! यदि मेरे प्राणोंकी इस आकुल तड़पसे 2 तुम्हारा कठोर हृदय तनिक भी पसीजे तो अभी आकर मुझे अपने चरणोंमें स्वीकार कर लो। प्रभो! ओ मेरे प्राणाधार! अ सीताकी सुधि लेनेके लिये तुमने समुद्रमें पुल बंधवाया और रावणको मारकर उसे अयोध्या लौटा लाये। शिशुपालका वध करके रुक्मिणीको अपनी शरणमें ले लिया। द्रौपदी, गज, गणिका और गोपियोंकी टेर सुन ली; परंतु मेरी ही बार इतना विलम्ब क्यों कर रहे हो? मैं जानती हूँ कि मैं अपराधिनी हूँ; परंतु जैसी भी हूँ, तुम्हारी हूँ-तुम्हीं मेरे प्राणवाक्रभ, हृदयेश्वर, जीवनसर्वस्व और अवलम्ब हो! तुम्हें छोड़कर किसकी शरणमें जाऊँ ? जिस प्रकार चकोर चन्द्रमाको और चातक श्यामघनको चाहता है, वैसे ही मेरा हृदय तुम्हें देखनेके लिये व्याकुल है।'
आण्डाळ सदा अपने शरीरसे ऊपर उठी रहती थी, वह अपने बाहर-भीतर सर्वत्र अपने प्राणवल्लभ प्रभुके अतिरिक्त और किसी वस्तुको देखती ही न थी। वह शरीरसे विष्णुचित्तके बगीचेमें रहती थी; किन्तु उसका मन नित्य वृन्दावनमें विचरता रहता था। वह गोपियोंके साथ खेलती और मिट्टीके घरोंदे बनाती। इतनेमें ही श्रीकृष्ण आकर उसके घरोंदोंको ढहा देते और हँसने लगते। कभी वह गोपियोंके साथ सरोवरमें स्नान करने लगती और प्रियतम श्रीकृष्ण आकर उन सबके वस्त्रोंको उठाकर ले जाते और कदम्बपर चढ़कर बैठ जाते। कभी-कभी वह मनसे ही वृन्दावनमें विचरती और रास्ता चलनेवालोंसे पूछती, 'क्या तुमने मेरे प्राणवल्लभको इधर कहीं देखा है ? क्या किसीको मेरे कमलनयनका पता है ?' और अपने आप ही अपने प्रश्नोंका उत्तर भी देती-'अजी, देखा क्यों नहीं ? वह तो वृन्दावनमें बाँसुरी बजाकर गोपियोंके साथ विहार कर रहा है।'
वसन्त ऋतुमें वह कोयलको सम्बोधन करके बड़े करुण स्वरमें कहती-'अरी कोयल! मेरा प्राणवल्लभ मेरे सामने क्यों नहीं आता ? वह मेरे हृदयमें प्रवेश करके मुझे अपने वियोगसे दुःखी कर रहा है। मैं तो उसके लिये इस प्रकार तड़प रही हूँ और उसके लिये यह सब मानो निरा खिलवाड़ ही है।'
एक दिन जब वह अपने प्रियतम भगवान्के विरहमें अत्यन्त व्याकुल हो गयी, भगवान् रङ्गनाथने स्वप्नमें मन्दिरके अधिकारियोंको दर्शन देकर कहा- 'मेरी प्रियतमा आण्डालको मेरे पास ले आओ।' इधर उन्होंने विष्णुचित्तको भी स्वप्रमें दर्शन देकर कहा-'तुम आण्डाळको लेकर शीघ्र मेरे पास चले आओ, मैं उसका पाणिग्रहण करूँगा।' यही नहीं, उन्होंने स्वप्रमें आण्डाळको भी दर्शन दिये और उसने देखा कि मेरा विवाह बड़ी धूमधामके साथ श्रीरङ्गनाथजीके साथ हो रहा है। उनका स्वप्र सच्चा हो गया। दूसरे ही दिन श्रीरङ्गजीके मन्दिरसे आण्डाळ और उसके धर्मपिता विष्णुचित्तको लेनेके लिये कई पालकियाँ और दूसरे प्रकारका लवाजमा भी आया। ढोल बजने लगे, शङ्खकी ध्वनि होने लगी, वेदपाठी ब्राह्मण वेद पढ़ने लगे और भक्तलोग आण्डाळ और उसके स्वामी श्रीरङ्गनाथजीकी जय बोलने लगे। आण्डाळने प्रेममें मतवाली होकर मन्दिरमें प्रवेश किया और तुरंत वह भगवान्की शेष - शय्यापर चढ़ गयी। इतनेमें ही लोगोंने देखा कि सर्वत्र एक दिव्य प्रकाश छा गया और उस प्रकाशमें देवी आण्डाळ सबके देखते-ही-देखते बिजली-सी चमककर विलीन हो गयी। प्रेमी और प्रेमास्पद एक हो गये। आण्डाळके जीवनका कार्य आज पूरा हो गया। वह भगवान् नारायणमें जाकर मिल गयी। दक्षिणके वैष्णव- मन्दिरोंमें आज भी आण्डाळके विवाहका उत्सव प्रतिवर्ष सर्वत्र मनाया जाता है। विष्णुचित्तने भी अपना शेष जीवन भगवान् श्रीरङ्गनाथ और उनकी प्रियतमा श्रीआण्डाळदेवीकी उपासनामें व्यतीतकर भगवद्धामको प्रयाण किया!
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aandaal sada apane shareerase oopar uthee rahatee thee, vah apane baahara-bheetar sarvatr apane praanavallabh prabhuke atirikt aur kisee vastuko dekhatee hee n thee. vah shareerase vishnuchittake bageechemen rahatee thee; kintu usaka man nity vrindaavanamen vicharata rahata thaa. vah gopiyonke saath khelatee aur mitteeke gharonde banaatee. itanemen hee shreekrishn aakar usake gharondonko dhaha dete aur hansane lagate. kabhee vah gopiyonke saath sarovaramen snaan karane lagatee aur priyatam shreekrishn aakar un sabake vastronko uthaakar le jaate aur kadambapar chadha़kar baith jaate. kabhee-kabhee vah manase hee vrindaavanamen vicharatee aur raasta chalanevaalonse poochhatee, 'kya tumane mere praanavallabhako idhar kaheen dekha hai ? kya kiseeko mere kamalanayanaka pata hai ?' aur apane aap hee apane prashnonka uttar bhee detee-'ajee, dekha kyon naheen ? vah to vrindaavanamen baansuree bajaakar gopiyonke saath vihaar kar raha hai.'
vasant ritumen vah koyalako sambodhan karake bada़e karun svaramen kahatee-'aree koyala! mera praanavallabh mere saamane kyon naheen aata ? vah mere hridayamen pravesh karake mujhe apane viyogase duhkhee kar raha hai. main to usake liye is prakaar tada़p rahee hoon aur usake liye yah sab maano nira khilavaada़ hee hai.'
ek din jab vah apane priyatam bhagavaanke virahamen atyant vyaakul ho gayee, bhagavaan ranganaathane svapnamen mandirake adhikaariyonko darshan dekar kahaa- 'meree priyatama aandaalako mere paas le aao.' idhar unhonne vishnuchittako bhee svapramen darshan dekar kahaa-'tum aandaalako lekar sheeghr mere paas chale aao, main usaka paanigrahan karoongaa.' yahee naheen, unhonne svapramen aandaalako bhee darshan diye aur usane dekha ki mera vivaah bada़ee dhoomadhaamake saath shreeranganaathajeeke saath ho raha hai. unaka svapr sachcha ho gayaa. doosare hee din shreerangajeeke mandirase aandaal aur usake dharmapita vishnuchittako leneke liye kaee paalakiyaan aur doosare prakaaraka lavaajama bhee aayaa. dhol bajane lage, shankhakee dhvani hone lagee, vedapaathee braahman ved padha़ne lage aur bhaktalog aandaal aur usake svaamee shreeranganaathajeekee jay bolane lage. aandaalane premamen matavaalee hokar mandiramen pravesh kiya aur turant vah bhagavaankee shesh - shayyaapar chadha़ gayee. itanemen hee logonne dekha ki sarvatr ek divy prakaash chha gaya aur us prakaashamen devee aandaal sabake dekhate-hee-dekhate bijalee-see chamakakar vileen ho gayee. premee aur premaaspad ek ho gaye. aandaalake jeevanaka kaary aaj poora ho gayaa. vah bhagavaan naaraayanamen jaakar mil gayee. dakshinake vaishnava- mandironmen aaj bhee aandaalake vivaahaka utsav prativarsh sarvatr manaaya jaata hai. vishnuchittane bhee apana shesh jeevan bhagavaan shreeranganaath aur unakee priyatama shreeaandaaladeveekee upaasanaamen vyateetakar bhagavaddhaamako prayaan kiyaa!