भारतके तमिल भाषा-भाषी प्रान्तके मध्य जो ईसवी सन्की छठी शताब्दीसे प्रारम्भ होकर ग्यारहवीं शताब्दी में समाप्त होता है, धर्मको महान् जागृति हुई, जिसकी छाया उस समयके धार्मिक साहित्यपर भी भलीभाँति पड़ी मालूम होती है। उस समयके शैव और वैष्णव दोनों ही सम्प्रदायोंमें जागृतिके स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। उस समयके शैव संत शैवसमयाचार्योंके नामसे प्रसिद्ध हैं। इन्होंने 'तैवरम्' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थकी रचना की, जिसमें भगवान् शिवकी लीलाओंका वर्णन है। वैष्णव संत आळवारोंके नामसे विख्यात हुए। इनके परवर्ती भक्त आचार्य कहलाये और दक्षिण भारतमें वैष्णवधर्मके प्रचारमें इनका बहुत अधिक हाथ रहा। आळवारों अथवा तमिळ वैष्णव संतोंमें महात्मा शठकोपका स्थान बहुत ऊँचा और आदरके योग्य गिना जाता है। इनका तमिळ नाम नम्माळवार है और तमिळ वैष्णव इन्हें जन्मसिद्ध मानते हैं।
इनके प्रसिद्ध नाम शठकोपन और मारन् हैं। यों तो प्रत्येक आळवारका हो जन्म अलौकिक ढंगसे हुआ। प्रत्येक आळवारको—और तमिळ-परम्पराके अनुसार इन आळवारोंको संख्या बारह मानी जाती है-भगवान्के आयुधविशेष अथवा आभूषणविशेषका स्वरूप माना जाता है। किंतु नम्माळवारको लोग आज भी विष्वक्सेनका अवतार मानते हैं। प्रत्येक प्रधान देवताको किसी गणविशेषका अथवा अनेक गणका अधिपति माना जाता है। भगवान् शिवका भी एक नाम गणपति प्रसिद्ध है। इसी प्रकार भगवान् विष्णुके भी कई गण हैं और उनके अधिनायक विष्वक्सेन हैं। शिवजीके गणोंमें गणेशका जो स्थान है, वही स्थान विष्णुके गणोंमें विष्वक् सेनका है और नम्माळवार उन्हीं विष्वक्सेनके अवतार माने जाते हैं।
शठकोपके पिताका नाम करिमारन् था। ये पाण्ड्यदेशके राजाके यहाँ किसी ऊँचे पदपर थे और आगे चलकर कुरुगनाडु नामक छोटे राज्यके राजा हो गये, जो पाण्ड्यदेशके ही अधीन था। शठकोपका जन्म अनुमानतःतिरुक्कुरुकुर नामक नगरमें हुआ था, जो तिरुनेलवेली जिलेमें ताम्रपर्णी नदीके तटपर अवस्थित था। इनके सम्बन्धमें यह कथा प्रचलित है कि जन्मके बाद दस दिनतक इन्हें भूख प्यास कुछ भी नहीं लगी। यह देखकर इनके माता-पिताको बड़ी चिन्ता हुई। वे इसका रहस्य कुछ भी नहीं समझ सके। अन्तमें यही उचित समझा गया कि इन्हें भगवान्के मन्दिरमें ले जाकर वहीं छोड़ दिया जाय। बस, इस निर्णयके अनुसार इन्हें स्थानीय मन्दिरमें एक इमलीके वृक्षके नीचे छोड़ दिया गया। तबसे लेकर सोलह वर्षकी अवस्थातक बालक नम्माळवार उसी इमलीके पेड़के कोटरमें योगकी प्रक्रियासे ध्यान |और भगवान् श्रीहरिके साक्षात्कारमें लगे रहे। नम्माळवारकी ख्याति दूर-दूरतक फैल गयी। तिरुक्कोईलूर नामक स्थानके एक ब्राह्मण, जो मधुर कविके नामसे विख्यात थे और जो स्वयं आगे चलकर आळवारोंकी कोटिमें गिने जाने लगे, नम्माळवारके साधनकी बात सुनकर ढूँढते ढूँढ़ते उस स्थानपर जा पहुँचे, जहाँ यह बालक भक्त अपने भगवान् श्रीनारायणका ध्यान कर रहे थे। इनकी प्रार्थनासे महात्माने इन्हें अपना शिष्य बना लिया। इस प्रकार यह भी कहा जाता है कि नम्माळवार आचार्य भी थे; क्योंकि उन्होंने मधुर कवि-जैसे शिष्योंको दीक्षा देकर उन्हें धर्म और अध्यात्मतत्त्वके गूढ़ रहस्य बताये।
इतिहास यह है कि जब नम्माळवारजी ध्यानमें मन थे, दयामय भगवान् नारायण उनके सामने प्रकट हुए और उन्हें 'ॐ नमो नारायणाय' इस अष्टाक्षर मन्त्रकी दीक्षा दी। बालक शठकोप पहलेसे ही विशेष शक्तिसम्पन्न थे और अब तो वे महान् आचार्य तथा धर्मके उपदेष्टा हो गये। कहते हैं कि नम्माळवार पैंतीस वर्षकी अवस्थातक इस मर्त्यलोकमें रहे और इसके बाद उन्होंने अपने भौतिक विग्रहको त्याग दिया। कहा जाता है, इनके जीवनका अधिकांश भाग राधाभावमें बीता। वे सर्वत्र सब समय सारी परिस्थितियों और घटनाओंमें अपने इष्टदेवने हो रमे रहते। ये भगवान् विरहमें रो चिल्लाते, नाचते, गाते और मूर्छित हो जाते थे। इसीयांचमें इन्होंने कई भक्तिभावपूर्ण धार्मिक ग्रन्थोंकी रचना को जो बड़े विचारपूर्ण, गम्भीर और भगवत्प्रेरित जान पड़ते हैं। इनमें प्रधान ग्रन्ोंकि नाम तिरुविस्तम्, तिस्वाशिरियम्, पेरिय तिरुवन्त और तिरुवायूमोलि हैं। महात्मा शठकोपके ये चार ग्रन्थ चार वेदोंके तुल्य माने जाते हैं। इन चारोंमें भगवान् श्रहरिको लोलाओंका वर्णन है और ये चारों ई-चारों भगवत्प्रेमसे ओतप्रोत हैं। ग्रन्थकारने अपनेको प्रेमिका के रूपमें व्यक्त किया है और श्रीहरिको प्रियतम माना है। तिरुविरुत्तम् आदिसे अन्ततक यही भाव भरा हुआ है। इनके ग्रन्थोंमेंसे अकेले तिरुवायूमोळिमें, जिसका अर्थ है- पवित्र उपदेश, हजारसे ऊपर पद्म हैं। दक्षिणके वैष्णवोंके प्रधान ग्रन्थ दिव्यप्रबन्धमूके चतुर्थांशमें इसीके पद संगृहीत है। तिरुवायूमोळिके पद मन्दिरोंमें तथा धार्मिक उत्सवोंमें बड़े प्रेमसे गाये जाते हैं। तमिळ के धार्मिक साहित्य में तिरुवायूमोळिका अपना निराला ही स्थान है। वहाँ इसके पाठका उतना महत्त्व माना जाता है, जितना वेदाध्ययन और वेदपाठका, क्योंकि इसमें वेदका सार भर दिया गया है।
इस वृत्तान्तको समाप्त करनेके पूर्व महात्मा शठकोपके कालके सम्बन्धमें कुछ निवेदन करना आवश्यक है। इसके सम्बधर्मे विद्वानोंमें बड़ा मतभेद है और इस विषयपर बहुतखण्डन- मण्डन हो चुका है। कुछ विद्वान् इनका समय ईसवी सन्की पाँचवीं शताब्दी मानते हैं और कुछ लोग इनका जन्म ईसवी सन्की दसवीं अथवा ग्यारहवीं शताब्दी मानते हैं। ये दोनों ही मत प्रामाणिक नहीं मालूम होते । स्वर्गीय श्रीयुत गोपीनाथराव आलमले के शिलालेखों की छानबीन करके इस निर्णयपर पहुंचे थे कि महात्मा शठकोप ईसवी सन्की नवीं शताब्दी पूर्वार्द्धमें इस मर्त्यलोकमें थे। किंतु हमारे पास कुछ ऐसे प्रमाण हैं, जिनके सामने यह मत भी नहीं ठहरता; किंतु इस छोटेसे निबन्धमें इस विषयकी विस्तृत आलोचना सम्भव नहीं है। यहाँपर इतना ही कह देना पर्याप्त होगा कि महात्मा ईसवी सन्की सातवीं शताब्दी के उत्तरार्द्धमें विद्यमान थे। हम पहले ही बता चुके हैं कि इनका एक नाम मारन भी था। उस समयके राजाका नाम भी यही था। वेळिवकुडीके दानपत्रके अनुसार मारन कोच्छदैयन्के पितामह थे। हमारे पक्षमें एक प्रबल प्रमाण यह भी है कि दक्षिण के बैकी गुरुपरम्पराओंमें भी शठकोपको तिरुमंगाई मन्त्रन् नामके एक दूसरे प्रसिद्ध आळवारका पूर्ववर्ती माना गया है। तिरुमंगईका जीवनकाल प्रायः सब लोगोंने आठवीं शताब्दीका पूर्वार्द्ध माना है। इसके आधारपर महात्मा शठकोपका काल सातवीं शताब्दीका उत्तरार्द्ध मानना अनुचित न होगा।
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