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सिद्ध श्रीमधुसूदनदासजी महाशय की मार्मिक कथा
सिद्ध श्रीमधुसूदनदासजी महाशय की अधबुत कहानी - Full Story of सिद्ध श्रीमधुसूदनदासजी महाशय (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [सिद्ध श्रीमधुसूदनदासजी महाशय]- भक्तमाल


सिद्ध मधुसूदनदासजीके जन्म स्थानका पता नहीं चलता, पर यह तो निश्चित ही है कि वे एक कुलीन बंगाली ब्राह्मण और श्रीकृष्णचरणानुरागी विरक्त भक्त थे। उनकी इच्छा के विरुद्ध उनके माता-पिताने विवाह कर दिया, पर विवाह होते ही वे ससुरालसे व्रजके लिये चल पड़े। परिचयके भयसे बिना कुछ खाये पीये ही वे वनमें पड़े रहते थे। एक समय उनके मनमें वैष्णवी दीक्षा लेनेको उत्कण्ठा हुई; अचानक उसी समय एक महात्मा आ गये और दीक्षा देकर अदृश्य हो गये। मन्त्र-ग्रहण करनेके बाद वे इतने भावावेशमें थे कि उनका परिचयतक न जान सके। दीक्षाके उपरान्त भजन आदिकी विधि समझने के लिये उन्होंने गोवर्धनवाले सिद्ध श्रीकृष्णदासजीका आश्रय लिया। महाराजने उनसे गुरुपरम्पराके विषयमें पूछा तो वे निरुत्तर रहे: सिद्ध श्रीकृष्णदासने कहा कि 'बिना गुरुपरम्परा जाने भजनकी रीति बताना असम्भव है। मधुसूदनदासजीको मार्मिक वेदना हुई। महाराजने उनको कामवनके सिद्ध बाबाके पास भेज दिया; पर उन्होंने भी वही उत्तर दिया और कहा कि 'गुरुपरम्परा बताये बिना रागानुगा भजनमें अधिकार नहीं है। भजन करते रहो, श्रीराधारानीकी कृपासे सब कुछ अच्छा हीहोगा। कभी-न-कभी तुम्हारी इच्छा वे पूरी करेंगी ही।' मधुसूदनदासजी खिन्न होकर राधाकुण्ड चले आये, उन्होंने मरण-सङ्कल्प कर लिया। रातमें एक गोवर्धनशिला | बाँधकर वे राधाकुण्डमें कूद पड़े। जलके तलपर उनको एक दिव्य पुरुषका साक्षात्कार हुआ, उन्होंने उनके गलेसे शिला अलगकर एक तालपत्र प्रदानकर जलके ऊपर फेंक दिया। वे बहुत प्रसन्न हो उठे, तालपत्रपर कुछ अव्यक्त शब्द अङ्कित थे। पहले तो उन्होंने उसे श्रीकृष्णदासको दिखाया; वे उसका रहस्य न समझ सके, अतएव कामवनके सिद्ध बाबाके पास भेज दिया। सिद्ध बाबाने तालपत्र देखते ही कहा कि 'श्रीप्रियाजी तुमपर पूर्ण प्रसन्न और कृपालु हैं। यह तालपत्र सर्वथा अव्यक्त है। बहिर्जगत्के समझने योग्य नहीं है। तुम राधाकुण्डपर जाकर प्रियाजीसे प्रार्थना करो, वे तुम्हारा मनोरथ अवश्य सिद्ध करेंगी।' वे राधाकुण्डपर चले आये, प्रियाजीने दर्शन दिया, सूर्यकुण्ड जानेका आदेश दिया और उन्होंने निषेध किया कि 'उस मन्त्रकी दीक्षा और किसीको न देना।'

वे प्रतिवर्ष होली-लीला देखने बरसाने जाया करते थे। एक साल श्वेत वस्त्र धारणकर होलीके अवसरपरबरसाने जा रहे थे। थोड़ी दूर गये थे कि रास्ते में भगवान्की लीलाका दर्शन करके वे मूर्छित हो गये। गिर पड़े, सन्ध्यातक उसी दशामें पड़े रहे। ग्वालोंने आकर उठाया, उनकी विलक्षण दशा थी। नयनोंसे प्रेमाश्रुओंकी धारा प्रवाहित थी, शरीरमें अद्भुत रोमान था, वस्त्र विचित्र रंगोंसे रँगे थे; विशेष प्रकारकी सुगन्ध आ रही थी।

मधुसूदनदासजीके पूर्वाश्रमकी पत्नी उनके दर्शनके लिये बंगालसे ब्रज आयी थीं, बाबाने दर्शन देना अस्वीकार कर दिया और वे आश्रम छोड़कर वनोंमें भ्रमण करने लगे। सती-साध्वी पत्नी पतिकी शान्तिमें बाधा नहीं उपस्थित करना चाहती थीं, वे घर लौट गयीं। उनके चले जानेके बाद मधुसूदनजी महाशयके पैरमेंघाव हो गया, असह्य दुःखी होनेपर प्राण त्यागका सङ्कल्प करके वे गंभीर वनमें चले आये। तीन दिनोंतक भूखे पड़े रहे ; राधारानीने बालिकावेष धारणकर उनको भोजन कराया, क्षुधा शान्त हुई, घाव भी ठीक हो गया। बाबाजी व्रजबालिकाके घरपर पधारे, उसकी माँसे पूछा कि 'लाली कहाँ है?' उत्तर मिला कि 'वह तो तीन माहसे ससुरालमें है।' बाबाजीको महान् खेद हुआ कि 'मेरे कारण श्रीराधारानीको इस तरह कष्ट उठाना पड़ा।' उनकी प्रसिद्धि बढ़ने लगी । भक्तोंका समूह एकत्र होने लगा। उन्होंने मार्गशीर्ष की शुक्ला अष्टमीको महाप्रयाण किया। उनकी समाधि सूर्यकुण्डपर है।



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