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सिद्ध श्रीरामकृष्णदासजी की मार्मिक कथा
सिद्ध श्रीरामकृष्णदासजी की अधबुत कहानी - Full Story of सिद्ध श्रीरामकृष्णदासजी (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [सिद्ध श्रीरामकृष्णदासजी]- भक्तमाल


श्रीरामकृष्णदासजीका जन्म सं0 1914 वि0 के भाद्रपद मासमें जयपुर नगरके अन्तर्गत भूराटीबा पंचगली में एक कुलीन गौड़ ब्राह्मणवंशमें हुआ था। उनके पिताका नाम रामप्रताप मिश्र था। वे वंश-परम्परासे जयपुर महाराजके
अध्यापक थे। उन्हें राज्यकी ओरसे जागीर भी मिली थी। बाल्यावस्था से ही श्रीरामकृष्णदासका भगवान्के चरणारविन्दमें अनुराग था। वे अपना समय श्रीगोविन्दजीके मन्दिरमें ही दर्शन और खेल-कूदमें बिताया करते थे। गायत्री मन्त्रकी दीक्षाके अनन्तर उन्होंने अनुष्ठानके फल स्वरूप श्रीगायत्री देवीका साक्षात्कार किया। देवीके आदेश से वे वृन्दावन चले आये और सिद्ध श्रीनित्यानन्ददासका दर्शन करके वे तेरह वर्षकी अवस्थासे ही वृन्दावनमें गोविन्ददेवजीके मन्दिरमें निवास करते हुए विद्याध्ययन करने लगे। उन्होंने श्रीसुदर्शन शास्त्रीसे न्याय और श्रीनीलमणि गोस्वामी तथा श्रीगोपीलाल गोस्वामीजी महाराजसे भक्तिशास्त्रकी शिक्षा प्राप्त की, उन्होंने विद्याप्राप्तिके बाद श्रीनित्यानन्ददासजी महाराजसे वैष्णवी दीक्षा ली। वे विनम्रता और साधुताको प्रतिमूर्ति थे, अमानी और सहिष्णु महात्मा थे। दीक्षा लेनेके बाद वे भजन करने बरसाना चले आये। वहाँ एक वृद्ध महात्मासे वे गानविद्या सोखने लगे, अतएव भजनमें विक्षेप होने लगा। उनका मन ऐसी स्थिति में पड़ गया कि न वे सङ्गीत हो सीख पाते थे और न स्वतन्त्रतापूर्वक भजन ही कर पाते थे।

तदनन्तर उन्होंने गुरुके आदेशसे उद्धव- क्यारीमें बैठकर ग्यारह दिनोंतक गोपाल-मन्त्रका अनुष्ठान किया, फलतः उन्हें श्रीराधा-कृष्णका साक्षात्कार हुआ। भगवान्‌की आज्ञासे वे गोवर्धन छरीमें श्रीराम पण्डितको गुफार्मेसी सालतक लगातार भजन करते रहे, प्रत्येक तीन-चार दिनपर मधुकरीवृत्तिसे भोजन करते थे। इसी बीचमें जयपुरसे उनकी माता भी आ गयीं, सात-आठ सालतक भजन करनेके बाद वे परमधाम चली गयीं। तत्कालीन ग्वालियर नरेश श्रीमाधवरावजीके ज्येष्ठ भ्राता बलवन्तरावजी कभी-कभी उनसे मिलने आया करते थे। उन्होंने एकबड़ी रकम भेंट करनी चाही, पर रामकृष्णदासजी महाराजने उसको अस्वीकार कर दिया। वे पूँछरीसे श्यामकुटी और आया श्यामकुटीसे वृन्दावन चले आये एवं दाऊजीके उद्यानमें रहने लगे। बड़े-बड़े महात्मा उनके दर्शनके लिये करते थे। श्रीरामकृष्णदासजी सदा अपनी साधनायें तो रहते थे। वे उपदेश देनेसे सदा दूर रहते थे, पर विशेष आग्रहपर निष्ठापूर्वक हरिभजनपर ही जोर देते थे। वे स्वार्थकी बात चलानेवालोंकी ओर कुछ ध्यान ही न देते थे। वे उच्च कोटिके विरक्त और आदर्श भक्त महात्मा थे।

कभी-कभी मरणोपम कष्ट होनेपर भी शारीरिक सुखके लिये उन्होंने अपने इष्टदेवको नहीं पुकारा। उनका दृढ़ मत था कि दैहिक, ऐहिक और पारलौकिक आदि सुखी चाह परमेश्वरसे करना कदापि उचित नहीं है। उनसे प्रेमाभक्तिकी याचना करना ही विवेकी मनुष्यका कर्तव्य है। वे कभी अपना फोटो नहीं खिंचवाते थे तथा प्रचारसे बहुत दूर रहते थे। एक बार एक चित्रकारने फोटो के लिये प्रयत्न किया, पर उनका चित्र नहीं आया। जिन संतके कन्धेपर वे हाथ रखकर खड़े थे, उनका आ गया था। उनकी इष्ट, वैराग्य, अकिञ्चना भक्ति, गुरु तथा व्रत और सम्प्रदायके प्रति निष्ठा अत्यन्त स्तुत्य थी। उनका स्वभाव सहज, सरल और प्रीतिमय था। यह एक विचित्र बात थी कि समस्त वैष्णव सम्प्रदायोंके संत महात्मा उनके सत्सङ्गमें सम्मिलित होते थे। उनकी व्रजवासमें असाधारण निष्ठा थी, वे व्रजवासीके ही घरकी भिक्षा आदि स्वीकार करते थे व्रजवासियोंके फटे वस्त्रोंसे बनी हुई गुदड़ी और व्रजकी मिट्टीका करवा ही उनका संबल था। उनका आदेश था कि उनकी अन्त्येष्टि-क्रियामें व्रज और व्रजवासीको ही वस्तु और सामग्रीका उपयोग हो वे अपने पास आनेवालेको सदा नामजपका उपदेश दिया करते थे। श्रीरामकृष्णदासजी महाराजने संवत् 1997 वि0 के आश्विन मासकी कृष्णा चतुर्थीको परम धामकी यात्रा की। उनके शिष्य श्रीकृपासिन्धुदासजी महाराजने श्रीभागवत निवास आश्रममें उनकी समाधि स्थापित की।



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shreeraamakrishnadaasajeeka janm san0 1914 vi0 ke bhaadrapad maasamen jayapur nagarake antargat bhooraateeba panchagalee men ek kuleen gauda़ braahmanavanshamen hua thaa. unake pitaaka naam raamaprataap mishr thaa. ve vansha-paramparaase jayapur mahaaraajake
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