मधुरांतकम चेंगलपेट जिलेका एक छोटा-सा शहर हैं, जो मद्रास (वर्तमानमें चेन्नई)-से पांडिचेरीके रास्तेपर है। वहाँपर श्रीरामचन्द्रजीका एक छोटा-सा मन्दिर है। उस मन्दिरके नजदीक एक बड़ी झील भी है।
मद्राससे पांडिचेरी जानेवालोंको उसी सड़कसे जाना पड़ता है, जो मधुरांतकमकी उस झीलके बाँधपर है। वह झील इतनी सुन्दर और काफी बड़ी है कि जिन लोगोंको उस रास्तेपर जाना पड़ता है, उन लोगोंका मन उस झीलकी तरफ आकर्षित हो जाता और वे लोग उस झीलके सुन्दर और मनोहर दृश्यको कभी भूल नहीं सकते। उपर्युक्त झील और श्रीरामचन्द्रजीके मन्दिरके बारेमें एक विचित्र लेकिन सच्ची कहानी प्रचलित है, जिससे मालूम होता है कि एक ईसाई अंग्रेज साहब भी श्रीरामचन्द्रजीके भक्त बन सके और उनको भगवान्के दर्शन भी मिले थे।
बात १८८२ ई० की है। उस समय लियानल प्राइस साहब चेंगलपेट जिलेके कलक्टर थे। उनको मधुरांतकमकी झील देखनेकी बड़ी इच्छा हुई। झील इतनी बड़ी थी कि उसके आस-पासके कई गाँवोंकी खेतीबारीके लिये उसका जल पर्याप्त था। लेकिन दुर्भाग्यवश हर साल बरसातमें जब झील भर जाती थी, तब उसका बाँध टूटकर सारा पानी बाहर चला जाता था और झील हमेशा सूखी-की-सूखी ही रह जाती थी ।
इलाकेवाले प्रतिवर्ष गर्मी के दिनोंमें उस झीलके बाँधकी मरम्मत करते थे। हर साल मरम्मतके समय मि प्राइस खुद वहाँ आकर पड़ाव डालते और अपनी मौजूदगी में ही सारा काम कराते थे। बरसातमें बाढ़से इसका बाँध हर साल टूट जाया करता था। कलक्टर साहबको झीलकी बड़ी चिन्ता होती थी। सन् १८८२ में भी सदाकी तरह झीलकी मरम्मत शुरू हुई। स्वयं कलक्टर साहब उसका निरीक्षण कर रहे थे। एक बार आप मन्दिरके पाससे निकले। उनकी इच्छा हुई कि चलकर मन्दिर देख आवें।
वे मन्दिरमें आये। ब्राह्मणोंने उनको मन्दिर दिखाया। साहबने देखा कि एक स्थानपर ढेरों पत्थर जमा हैं। साहबने ब्राह्मणोंसे पत्थरोंके जमाकर रखनेका कारण पूछा। ब्राह्मणोंने जवाब दिया- 'साहब! श्रीसीताजीका मन्दिर बनाना है। लेकिन उसके लिये हम लोग सिर्फ पत्थर ही जमा कर सके हैं। शेष कामके लिये काफी धन जमा करनेमें हम असमर्थ हैं। ऐसे सत्कार्यके सफलतापूर्वक सिद्ध होनेमें धनका अभाव ही एक बाधा हो रही है।'
'मुझे भी तुम्हारी देवीजीसे एक
प्रार्थना करने दो।'
वहाँके भक्त ब्राह्मण अपनी-अपनी मनोवृत्तिके अनुसार भगवान् श्रीरामचन्द्रजी और माता सीताजीके गुणों और महिमाओंका वर्णन करने लगे। उसे सुनकर साहबने उन लोगोंसे पूछा- 'क्या तुमलोग विश्वास करते हो कि तुम्हारी देवी भक्तोंकी मनोकामना पूरी करेंगी ?'
ब्राह्मणोंने दृढ़तापूर्वक जवाब दिया- 'निस्सन्देह।'
कलक्टर साहबने फिर पूछा- 'अच्छा, यदि मैं भी तुम्हारी देवीजीसे कुछ प्रार्थना करूँ तो मेरी भी इच्छा उनकी कृपासे पूरी होगी ?' ब्राह्मणोंने जवाब दिया 'जरूर।' तब साहबने उन लोगोंसे कहा, 'यदि तुम लोगोंकी बात सच हो तो मैं भी तुम्हारी देवीजीसे प्रार्थना करता हूँ कि इस झीलकी रक्षा, जिसकी मरम्मत हर साल हो रही है और पीछे जिसका नाश भी होता आ रहा है, यदि तुम्हारी देवीजीकी कृपासे हो जाय, तो तुम्हारी देवीजीका मन्दिर बनानेका भार मैं अपने ऊपर लूँगा।' प्रार्थना करके साहब वहाँसे लौट गये। मरम्मतका काम पूरा हो जानेके बाद साहब अपने घर चले गये।
फिर वर्षा शुरू हुई साहबको बड़ी चिन्ता लगी। अबकी बार साहब घरमें चुप न बैठ सके। उन्होंने मधुरांतकममें अपना पड़ाव डाला। एक रातको बहुत जोरसे पानी बरस रहा था। इतने जोरसे वृष्टि हो रही थी कि उस समय बाहर निकलना भी बहुत कठिन था। साहब बहुत अधीर हो उठे। उनको जरा भी चैन न मिला। वे तुरंत हाथमें उतरी लेकर झोलकी तरफ लपके। उनके दो नौकर, जो उस समय जाग रहे थे, पीछे-पीछे चले। उनको साहबके कामपर बड़ा अचरज हो रहा था।
साहब झीलके बाँधपर आकर खड़े हो गये। आकाशसे मूसलाधार वृष्टि हो रही थी। रह-रहकर बिजली चमकती थी। बिजलीके प्रकाशमें साहबने देखा कि झील पानीसे ठसाठस भरी है। अब यदि थोड़ा भी जल उसमें ज्यादा पड़ जायगा तो बस, सारा परिश्रम व्यर्थ हो जायगा।
साहब घबड़ाये हुए वहाँ आकर खड़े हो गये, जहाँ हर साल बाँध टूटता था। लेकिन वहाँ उन्हें कहीं टूट जानेका कोई लक्षण नहीं दिखायी पड़ा। अकस्मात् वहाँ बिजलीकी रोशनी दीख पड़ी। उस तेज:पुंजके बीचमें श्याम और गौरवर्णके दो सुन्दर युवक हाथमें धनुष-बाण लिये खड़े नजर आये। उन दोनोंके सुन्दर और सुदृढ़ शरीर और उनके अनुपम रूप-लावण्यको देखकर साहबको बड़ा अचम्भा हुआ। एक साथ आश्चर्य और भयका अनुभव होने लगा। वे एकाग्र दृष्टिसे उसी तरफ देखने लगे, जहाँ दोनों वीर खड़े थे। अब साहबको पक्का विश्वास हो गया कि वे दोनों अलौकिक और अतुलनीय हैं। साहब अपनी छतरी और टोपी दूर फेंककर उन करुणामूर्तियोंके पैरोंपर गिर पड़े और हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे।
नौकरोंको साहबका यह अद्भुत आचरण देखकर सन्देह हुआ कि कहीं हमारे साहब पागल तो नहीं हो गये। वे दोनों दौड़कर साहबके पास आये और घबड़ाये हुए-से पूछने लगे- 'साहब! आपको क्या हो गया ?" साहब उन लोगोंसे गद्गद स्वरमें कहने लगे-'नादानो! उधर देखते नहीं हो ?' देखो उधर, उधर! कैसे सुन्दर दो सुन्दर और बलवान् युवक हाथोंमें धनुष-बाण लिये खड़े हैं। उनके चारों ओर बिजलीकी-सी रोशनी फैल रही है। उनमें एक हैं श्यामवर्णके और दूसरे गौर वर्णके। उनकी आँखोंसे करुणाकी मानो वर्षा हो रही है। उनको देखते ही हमारी व्यग्रता मिटती जा रही है। अभी उन दोनोंको देख लो। उधर देखो उधर !!!'
नौकरोंको कुछ भी दिखायी नहीं पड़ा। साहबको पूरा विश्वास हो गया कि स्वयं श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजीने ही झीलकी रक्षा की। दूसरे दिन सबेरे ही मधुरांतकमके लोगोंने पहली बार देखा कि झील पानीसे परिपूर्ण है। लोगोंके आनन्दकी कोई सीमा न थी । साहबने अपने कथनानुसार दूसरे ही दिनसे श्रीसीताजीके मन्दिरका काम शुरू कर दिया। जबतक मन्दिरका काम पूरा न हुआ, तबतक वे वहीं रहे। जिस दिन झीलकी रक्षा हुई, उस दिनसे वहाँके श्रीरामचन्द्रजीका नाम पड़ा 'एरि कात्त पेरुमाल' अर्थात् 'भगवान् जिसने झीलकी रक्षा की है।'
श्रीजानकीजीके मन्दिरमें एक पत्थरपर तमिलमें यह बात खुदी हुई है, जिसके माने यह है कि, 'यह धर्मकार्य जान कम्पनीके जागीर-कलेक्टर लियानल प्राइसका है।' इस विचित्र घटनासे हम लोगोंको मालूम होता है कि एक अंग्रेज ईसाई सज्जन श्रीरामचन्द्रजीके भक्त बनकर उनके दर्शन पा सके और श्रीसीताजीके मन्दिरके निर्माता बने। जो मनुष्य भगवान्का सच्चा भक्त है और भगवान्पर विश्वास करके उनको मानता है, वह चाहे जिस कुलका भी क्यों न हो, उसपर दयासिन्धु भगवान्की पूर्ण रूपसे अनुकम्पा रहती है।
['अमर सन्देश' ]
madhuraantakam chengalapet jileka ek chhotaa-sa shahar hain, jo madraas (vartamaanamen chennaee)-se paandichereeke raastepar hai. vahaanpar shreeraamachandrajeeka ek chhotaa-sa mandir hai. us mandirake najadeek ek bada़ee jheel bhee hai.
madraasase paandicheree jaanevaalonko usee sada़kase jaana pada़ta hai, jo madhuraantakamakee us jheelake baandhapar hai. vah jheel itanee sundar aur kaaphee bada़ee hai ki jin logonko us raastepar jaana pada़ta hai, un logonka man us jheelakee taraph aakarshit ho jaata aur ve log us jheelake sundar aur manohar drishyako kabhee bhool naheen sakate. uparyukt jheel aur shreeraamachandrajeeke mandirake baaremen ek vichitr lekin sachchee kahaanee prachalit hai, jisase maaloom hota hai ki ek eesaaee angrej saahab bhee shreeraamachandrajeeke bhakt ban sake aur unako bhagavaanke darshan bhee mile the.
baat 1882 ee0 kee hai. us samay liyaanal praais saahab chengalapet jileke kalaktar the. unako madhuraantakamakee jheel dekhanekee bada़ee ichchha huee. jheel itanee bada़ee thee ki usake aasa-paasake kaee gaanvonkee kheteebaareeke liye usaka jal paryaapt thaa. lekin durbhaagyavash har saal barasaatamen jab jheel bhar jaatee thee, tab usaka baandh tootakar saara paanee baahar chala jaata tha aur jheel hamesha sookhee-kee-sookhee hee rah jaatee thee .
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'mujhe bhee tumhaaree deveejeese eka
praarthana karane do.'
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['amar sandesha' ]