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आराध्यपाद श्रीनन्दकिशोर मुखोपाध्याय की मार्मिक कथा
आराध्यपाद श्रीनन्दकिशोर मुखोपाध्याय की अधबुत कहानी - Full Story of आराध्यपाद श्रीनन्दकिशोर मुखोपाध्याय (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [आराध्यपाद श्रीनन्दकिशोर मुखोपाध्याय]- भक्तमाल


उस सुख सुविधासे विपत्ति सहस्रगुनी उत्तम है, जिसमें भगवान्के प्राणप्रिय भक्तके दर्शन और सन्निधि मिलती है तथा इसी कारण मैं अपनी प्रारम्भिक विपदाओंको भगवत्कृपाके अतिरिक्त और कुछ नहीं 'समझता। शैशवसे ही मैं संकटोंमें बढ़ रहा था, सांसारिक आपदाओंसे अत्यन्त आकुल हो गया था और तब मनमें बार-बार साधु-महात्मा और भगवद्भक्तोंके आशीर्वादसे शान्ति प्राप्त करनेकी कामना लिये उनकी टोहमें लगा रहता था।

'यह जन शून्य विशाल भवन किसका है?' काशी में राजघाटके समीप ही नया महादेव मुहल्ले में श्रीगङ्गाजीके तटके समीप ही उस भवनको कई बार देखा था। वहचारों ओरसे बंद रहता, जैसे उसमें कोई रहता ही नहीं। इसी कारण मेरे मनमें जिज्ञासा हुई और पासके एक व्यक्तिसे मैंने पूछ लिया।

‘यह मकान श्रीकालीपद मुखोपाध्याय पेन्शनर सबजजका था।' उन्होंने उत्तरमें कहा। ' किंतु इसे उन्होंने अपने गुरु श्री0 श्रीशिवरामकिंकर योगत्रयानन्दजी महाराजको दे दिया था। श्रीयोगत्रयानन्दजी यह जगत् छोड़ चुके हैं, किंतु उनके शिष्य श्रीनन्दकिशोरजी मुखोपाध्याय इसमें रहते हैं। ये श्रीकालीपद मुखोपाध्यायके पुत्र हैं। श्रीनन्दकिशोरजीने श्रीयोगत्रयानन्दजीका एक बार दर्शन किया और उसी दिन मुंसिफीको ठोकर मार दी। अनुपम विद्वान्, नैष्ठिक गुरुभक्त, त्यागकी प्रतिमा और तपस्याकीसजीव मूर्ति हैं ये धन-सम्पत्ति तो इन्हें कुछ लेना नहीं | हैं; फिर मकान भाड़ेपर क्यों दें और तब कोलाहल कैसे हो? समाधि-निरत साधु पुरुष हैं। इनके गुण कहाँतक कहे जायें।"

'भैया कुछ और बता दो।' वे सज्जन जाने लगे थे।

उनसे विनयपूर्वक श्रीमुखोपाध्याय जी के सम्बन्धर्मे पूछा। । वे कदाचित् उनसे कुछ परिचित थे।

'आप उनसे स्वयं मिल लें।' उन्होंने कहा 'जीवन सफल हो जायगा आपका। ऐसे भगवद्भक्त इस धरती पर बहुत कम आते हैं। इनके पिताकी इनपर अद्वितीय प्रीति श्री. पर ये श्रीशिवरामकिंकरजीके हाथों बिक चुके थे। विवाह के लिये परिवारका आग्रह कुछ नहीं कर सका। आजन्म ब्रह्मचारी हैं ये। इनके पिताने अपनी समस्त सम्पत्ति मृत्युके पूर्व इनके नाम कर दी, किंतु इन्होंने सब अपने भाइयोंके नाम परिवर्तित कर दिया। पता नहीं कैसे इनका काम चलता है। इनकी माताजी भी इनके साथ ही रहती हैं। ऐसे भगवद्भक्त पुत्रको छोड़कर वे कहाँ वे भी भजनमें सतत संलग्न रहती हैं।

'आपने मुझपर बड़ी कृपा की, जो इतनी बातें बता दी।' मैंने उनका आभार प्रदर्शन किया। वे चले गये। मैं वहीं बैठ रहा। दरवाजा बंद था। 'कैसे पुकारूँ उन्हें?' मन-ही-मन सोच रहा था कि खड़ाऊँकी ध्वनि कानमें पड़ी। मैंने साँकल हिला दी।

'कौन है?' उन्होंने प्रश्न किया और दरवाजा खुला। दुबली-पतली तपोमूर्ति में एकटक उनकी ओर देखने लगा। मेरे प्राणोंमें, मेरे रग-रगमें जैसे विद्युत्-धारा प्रवेश कर रही थी। मैं अपना सब कुछ भूल गया था। तनिक-सी चेतना लौटी तो मैं उनके चरणोंमें गिर पड़ा। दोनों चरण कसकर पकड़ लिये।

'आओ, ऊपर चलें। अत्यन्त स्नेहसिक स्वरमें उन्होंने कहा। उनकी वाणीमें तनिक भी बंगीयताका पुट नहीं था। जैसे वे इधरके ही निवासी हों। आगे-आगे में सीढ़ियोंसे ऊपर चढ़ रहे थे, पीछे-पीछे अपने भाग्यको सराहना करता हुआ आनन्दमन में चल रहा था। वे छत पारकर अपने कमरेमें पहुँचे।

वहाँ चारों ओर ढेर-की-ढेर मोटी-मोटी पुस्तकेंपड़ी थीं। पुस्तकोंके बीचमें तीन कुशासन एकमें ही फैले हुए थे। ये उसीपर बैठते और लेखादि लिखा करते थे। सामने ही एक छोटी-सी काठकी चौकीपर उनके गुरुदेव श्री शिवरामकिंकर योगत्रयानन्दजीका चित्र अत्यन्त पवित्र, पर सुन्दर वस्त्रसे ढका हुआ था। धूपबत्ती जल रही थी । पास ही नारिकेल- कमण्डलु पड़ा था। धूपकी सुगन्धसे कमरा भर गया था।

'कैसे आये?' उन्होंने मुसकराते हुए पूछा।

मैंने उत्तर दिया- 'सांसारिक विपत्तियोंसे आकुल, नामका ब्राह्मण हूँ। बड़े भाग्यसे आपके दर्शन हो गये।

मैं आपकी कृपा चाहता हूँ।' 'भगवान्की कृपा सबपर है। हम उसका अनुभव नहीं कर पाते।' उन्होंने कहा। 'एक पशु मर जाता है। और उसकी बगलमें ही दूसरा पागुर करता रहता है। यही दशा आज मनुष्यकी हो गयी है। वह प्रतिदिन लोगोंको मृत्युमुखमें जाते देखकर भी निश्चिन्त है। भगवान्‌को पानेके लिये तनिक भी प्रयास नहीं करता। मानव-जीवन फिर कब मिले, पता नहीं। यह अत्यन्त दुर्लभ है। अति शीघ्र इसका उपयोग कर लेना चाहिये।'

उन्होंने मुझे पढ़नेके लिये उपदेश किया, तब मैंने हाथ जोड़कर उन्हींसे कुछ पढ़ानेके लिये प्रार्थना की और उन्होंने कृपापूर्वक अपने भजनके समयसे एक घंटा निकालकर रात्रिके नौसे दसतक लघुकौमुदी पढ़ाना स्वीकार कर लिया।

उस दिनसे प्रतिदिन मैं उनके चरणोंमें उपस्थित हो जाता और वे ठीक नौ बजे भजनसे उठ जाते और मुझे पढ़ाने लगते।

श्रीमुखोपाध्यायजी उज्ज्वल वस्त्रमें संन्यासी थे। एक गैरिक वस्त्र भीतर पहनते, उसके ऊपर सूती उज्ज्वल मिर्जई पहने रहते। प्रातः पाँच बजे सन्ध्यामें बैठते तो साढ़े नौ बजे मध्याह्न सन्ध्या सम्पन्न करके ही उठते गायत्रीका मानसिक जप तो उनका निरन्तर चलता ही रहता। साढ़े नौ बजे वे नीचे उतरते और जलते चूल्हेपर बटुलीमें एक छटाँक चावल छोड़कर ऊपर आकर जपमें लग जाते। घड़ीकी सूई देखकर उठते और नीचे जाकर चावल उतार देते और दूसरी बटुलीमें शाक डाल पुनःऊपर जा जपमें लग जाते। फिर समयपर नीचे उतरकर कुशासनपर बैठ भोजन करने बैठते । अत्यन्त क्षीण काया और कुल डेढ़ छटाँक आहार उसमें कुछ तो नीचे 'ॐ भूपतये नमः, ॐ भुवनपतये नमः, ॐ भूतानां पतये नमः' आदि मन्त्रोंसे चढ़ा दिया जाता और शेष सब एक साथ ही एकमें मिलाकर नेत्र बंदकर भगवान्‌का ध्यान करते हुए एक-एक ग्रास कण्ठके नीचे उतारते रहते। श्रीस्वामीजीका निष्ठुर संयम देखकर मैं अत्यन्त दुःखी रहता था; पर क्या करता कोई वश नहीं था। उन्हें लोग स्वामीजी कहते, इसलिये मैं भी उसी नामसे उल्लेख कर रहा हूँ।

सायंकाल सन्ध्याके बाद कीर्तनके लिये वे अपने छोटे उपवनमें तुलसी- तरुके समीप नियमित रूपसे बैठते और

राम राघव राम राघव राम राघव पाहि माम् । जानकी वर मधुर मूरति राम राघव रक्ष माम् ॥ कृष्ण केशव कृष्ण केशव कृष्ण केशव पाहि माम्। राधिका वर मधुर मूरति कृष्ण केशव रक्ष माम् ॥ -की रट लग जाती। यह उनके कीर्तनका सर्वाधिक प्रिय मन्त्र था।

नीरव रात्रिको वे एकान्तमें शान्त भजन किया करते। वे कब सोते, यह कहना कठिन था। मध्याह्नमें घंटे डेढ़ घंटे बैठे-बैठे सो लेनेके अतिरिक्त उनका समस्त समय भजनमें बीतता। वे यथार्थ योगीके शिष्य थे और थे स्वयं योगसिद्ध महापुरुष, साथ ही भगवत्प्रेम, भगवद्भक्ति, भगवन्निष्ठा, त्याग और तप तथा संयम सब के-सब उनमें कूट-कूटकर भरे हुए थे।

एक बार एक अंग्रेज अफसरके अत्यन्त आग्रहसे श्रीस्वामीजी उससे मिलने मुगलसराय गये। श्रीस्वामीजीका उपदेश सुन वह उनका मुँह देखता रहा। कुछ ही क्षणके लिये अपनी पत्नीको महाराजजीके पास छोड़ वह जाने लगा, तब महाराजजीने तुरंत कहा-'एकान्तमें किसी भी स्त्रीके साथ बैठना मेरे लिये सम्भव नहीं। शास्त्र यही आदेश देते हैं।' अंग्रेज मन-ही-मन झेपता हुआ अन्ततक उनके समीप बैठा रहा। बड़ी ही श्रद्धा-भक्तिसे उसने श्रीस्वामीजीको विदा किया। कई वर्षतक उनके साथरहनेपर मैं इसी निष्कर्षको पहुँचा कि श्रीस्वामीजीने किसी भी स्त्रीको कभी भी अपना चरण भी स्पर्श करनेका अवसर नहीं दिया।

'शिव-शिवार्चनतत्त्व', 'दुर्गा-दुर्गार्धनतत्व', 'देवतातत्त्व', 'शक्तितत्त्व', 'पूजातत्त्व' आदि श्रीयोगानन्दजी महाराज उत्कृष्ट उपदेशोंका संकलन श्रीस्वामीजी महाराजने ही अपने जीवनका कण-कण खपाकर किया है। उनकी लिखी विपुल सामग्रियाँ जो आध्यात्मिक जगत्की अमूल्य निधि हैं- अब भी श्रीनकुलेश्वर मजूमदार, हेडमास्टर हरिहर विद्यालय, काशीके पास सुरक्षित पढ़ी हैं; किंतु खेद है अबतक उनका कोई उपयोग नहीं हो पाया है।

उनके पास एक पाई नहीं, पर उन्हें कोई चिन्ता नहीं। उनका त्याग, वैराग्य एवं भगवत्प्रेम देख कुछ भक्त समयपर जो भेज देते, उसीसे जैसे-तैसे काम चलता । उनके तीन भाई भी थे, पर अपने लिये ये कभी किसी कुछ नहीं चाहते थे। मेरे सामनेकी बात है, एक गुजराती सज्जन आये। स्वामीजीके दर्शन और ज्ञानोपदेशसे अत्यन्त आनन्दित हुए। कुछ सहायता के लिये प्रार्थना की तो स्वामीजीने उसे स्वीकार नहीं किया; फिर भी देश जाकर उन्होंने एक हजार रुपया मनीआर्डरसे भेज दिया। उस समय आपको रुपयेकी अत्यन्त आवश्यकता थी, किंतु आपने उसे शीघ्र ही वापस कर देनेके लिये पोस्टमैन से कह दिया। मुझसे उन्होंने कहा, 'यह दानकी रकम मेरे लिये विषतुल्य हैं, जिसे मैं नहीं पचा सकता।' मैंने ऐसे कितने अवसर देखे हैं, जब उनके पास एक पैसा भी नहीं था। पर वे निश्चिन्त और आनन्दमग्न रहते थे। -श्रीस्वामीजीकी भगवानुपर निर्भरता और भगवान्‌को ओरसे समुचित व्यवस्था देखकर गोता-

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥

- इस वाक्यपर मेरी दृढ़ आस्था हो गयी।

गुमान नामक एक माह सपत्नीक श्रीस्वामीजीके यहाँ बर्तन आदि साफ करनेका काम करता था। उसे निवासका कष्ट था। आपके अधिकारमें थोड़ी भूमि थी। काशी- जैसे नगरको भूमि आपने उसे वैसे ही दे दी औरउसके लिये मकान भी बनवा दिया। करुणाकी तो मूर्ति ही थे वे। किसीकी किञ्चित् भी व्यथा देखकर वे अधीर हो जाते।

श्रीस्वामीजी शास्त्र - वाक्यको भगवद्वाक्यकी भाँति आदर देते। शास्त्र और धर्मके विरुद्ध बातसे उन्हें बहुत धक्का लगता। किसीकी आलोचना तो उन्होंने अपने जीवनमें की नहीं । सत्यके वे सच्चे उपासक थे। किसी प्रकार भी मिथ्या भाषणको वे जघन्य कर्म समझते थे।

उपदेश देना साधारण बात है। पर विकट परिस्थितिमें भगवत्कृपाका अनुभव करते रहना भगवद्भक्तके ही वशकी बात होती है । गुरु, भाई तथा अन्य सगे सम्बन्धीकी मृत्युके अवसरपर श्रीस्वामीजी भजन करते रहते और अपनी वृद्धा माताको इस प्रकार भगवत्कृपाका प्रभाव बताते कि वे तनिक भी चिन्ता नहीं कर पातीं, अपितु 'जय दुर्गा, जय जय दुर्गा का गान करने लगतीं। जीवनके अन्तिम दिनोंमें वे प्रायः कहा करते- 'जगत्सेमैं घबरा रहा हूँ। दुनिया मुझे काटने दौड़ती है। अब तो श्रीगुरुजीसे यही प्रार्थना है कि वे मुझे अपने चरणों में ही बुला लें। '

कलकत्तेमें वे अपने गुरुपुत्रसे मिलने गये और वहीं बीमार पड़ गये। शरीर यों ही शक्तिहीन था। बीमारीसे उठना-बैठना कठिन हो गया। उन्होंने कहा -'मुझे बाबा विश्वनाथकी पुरीमें शरीर छोड़ना है।' उनके आदेशानुसार वे गाड़ीमें लिटाकर काशी लाये गये। काशी पहुँचनेपर एक घंटे बाद भगवान्‌का स्मरण करते हुए उन्होंने मानवकाया त्याग दी।

जिन्हें उनके दर्शन मिल चुके थे, वे दु:खी हुए; पर जो उनके चरणोंमें रहकर उनकी कृपाका लाभ उठा चुके हैं, उनकी व्यथा व्यक्त करना सम्भव नहीं । फिर भी जो उनका चरण- संस्पर्श पा चुके हैं, उनके भाग्यकी सराहना करनी ही पड़ेगी- - यह भगवान्‌के भक्तकी महिमा है।



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us sukh suvidhaase vipatti sahasragunee uttam hai, jisamen bhagavaanke praanapriy bhaktake darshan aur sannidhi milatee hai tatha isee kaaran main apanee praarambhik vipadaaonko bhagavatkripaake atirikt aur kuchh naheen 'samajhataa. shaishavase hee main sankatonmen badha़ raha tha, saansaarik aapadaaonse atyant aakul ho gaya tha aur tab manamen baara-baar saadhu-mahaatma aur bhagavadbhaktonke aasheervaadase shaanti praapt karanekee kaamana liye unakee tohamen laga rahata thaa.

'yah jan shoony vishaal bhavan kisaka hai?' kaashee men raajaghaatake sameep hee naya mahaadev muhalle men shreegangaajeeke tatake sameep hee us bhavanako kaee baar dekha thaa. vahachaaron orase band rahata, jaise usamen koee rahata hee naheen. isee kaaran mere manamen jijnaasa huee aur paasake ek vyaktise mainne poochh liyaa.

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'bhaiya kuchh aur bata do.' ve sajjan jaane lage the.

unase vinayapoorvak shreemukhopaadhyaay jee ke sambandharme poochhaa. . ve kadaachit unase kuchh parichit the.

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'kaise aaye?' unhonne musakaraate hue poochhaa.

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saayankaal sandhyaake baad keertanake liye ve apane chhote upavanamen tulasee- taruke sameep niyamit roopase baithate aura

raam raaghav raam raaghav raam raaghav paahi maam . jaanakee var madhur moorati raam raaghav raksh maam .. krishn keshav krishn keshav krishn keshav paahi maam. raadhika var madhur moorati krishn keshav raksh maam .. -kee rat lag jaatee. yah unake keertanaka sarvaadhik priy mantr thaa.

neerav raatriko ve ekaantamen shaant bhajan kiya karate. ve kab sote, yah kahana kathin thaa. madhyaahnamen ghante dedha़ ghante baithe-baithe so leneke atirikt unaka samast samay bhajanamen beetataa. ve yathaarth yogeeke shishy the aur the svayan yogasiddh mahaapurush, saath hee bhagavatprem, bhagavadbhakti, bhagavannishtha, tyaag aur tap tatha sanyam sab ke-sab unamen koota-kootakar bhare hue the.

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unake paas ek paaee naheen, par unhen koee chinta naheen. unaka tyaag, vairaagy evan bhagavatprem dekh kuchh bhakt samayapar jo bhej dete, useese jaise-taise kaam chalata . unake teen bhaaee bhee the, par apane liye ye kabhee kisee kuchh naheen chaahate the. mere saamanekee baat hai, ek gujaraatee sajjan aaye. svaameejeeke darshan aur jnaanopadeshase atyant aanandit hue. kuchh sahaayata ke liye praarthana kee to svaameejeene use sveekaar naheen kiyaa; phir bhee desh jaakar unhonne ek hajaar rupaya maneeaardarase bhej diyaa. us samay aapako rupayekee atyant aavashyakata thee, kintu aapane use sheeghr hee vaapas kar deneke liye postamain se kah diyaa. mujhase unhonne kaha, 'yah daanakee rakam mere liye vishatuly hain, jise main naheen pacha sakataa.' mainne aise kitane avasar dekhe hain, jab unake paas ek paisa bhee naheen thaa. par ve nishchint aur aanandamagn rahate the. -shreesvaameejeekee bhagavaanupar nirbharata aur bhagavaan‌ko orase samuchit vyavastha dekhakar gotaa-

ananyaashchintayanto maan ye janaah paryupaasate.

teshaan nityaabhiyuktaanaan yogaksheman vahaamyaham ..

- is vaakyapar meree dridha़ aastha ho gayee.

gumaan naamak ek maah sapatneek shreesvaameejeeke yahaan bartan aadi saaph karaneka kaam karata thaa. use nivaasaka kasht thaa. aapake adhikaaramen thoda़ee bhoomi thee. kaashee- jaise nagarako bhoomi aapane use vaise hee de dee aurausake liye makaan bhee banava diyaa. karunaakee to moorti hee the ve. kiseekee kinchit bhee vyatha dekhakar ve adheer ho jaate.

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upadesh dena saadhaaran baat hai. par vikat paristhitimen bhagavatkripaaka anubhav karate rahana bhagavadbhaktake hee vashakee baat hotee hai . guru, bhaaee tatha any sage sambandheekee mrityuke avasarapar shreesvaameejee bhajan karate rahate aur apanee vriddha maataako is prakaar bhagavatkripaaka prabhaav bataate ki ve tanik bhee chinta naheen kar paateen, apitu 'jay durga, jay jay durga ka gaan karane lagateen. jeevanake antim dinonmen ve praayah kaha karate- 'jagatsemain ghabara raha hoon. duniya mujhe kaatane dauda़tee hai. ab to shreegurujeese yahee praarthana hai ki ve mujhe apane charanon men hee bula len. '

kalakattemen ve apane guruputrase milane gaye aur vaheen beemaar pada़ gaye. shareer yon hee shaktiheen thaa. beemaareese uthanaa-baithana kathin ho gayaa. unhonne kaha -'mujhe baaba vishvanaathakee pureemen shareer chhoda़na hai.' unake aadeshaanusaar ve gaada़eemen litaakar kaashee laaye gaye. kaashee pahunchanepar ek ghante baad bhagavaan‌ka smaran karate hue unhonne maanavakaaya tyaag dee.

jinhen unake darshan mil chuke the, ve du:khee hue; par jo unake charanonmen rahakar unakee kripaaka laabh utha chuke hain, unakee vyatha vyakt karana sambhav naheen . phir bhee jo unaka charana- sansparsh pa chuke hain, unake bhaagyakee saraahana karanee hee pada़egee- - yah bhagavaan‌ke bhaktakee mahima hai.

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एक कोर कृपा की करदो स्वामिनी श्री
दासी की झोली भर दो लाडली श्री राधे॥
श्याम बुलाये राधा नहीं आये,
आजा मेरी प्यारी राधे बागो में झूला
ज़रा छलके ज़रा छलके वृदावन देखो
ज़रा हटके ज़रा हटके ज़माने से देखो
हो मेरी लाडो का नाम श्री राधा
श्री राधा श्री राधा, श्री राधा श्री
यह मेरी अर्जी है,
मैं वैसी बन जाऊं जो तेरी मर्ज़ी है
हम राम जी के, राम जी हमारे हैं
वो तो दशरथ राज दुलारे हैं
श्याम बंसी ना बुल्लां उत्ते रख अड़ेया
तेरी बंसी पवाडे पाए लख अड़ेया ।
श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम
लोग करें मीरा को यूँ ही बदनाम
मेरा अवगुण भरा रे शरीर,
हरी जी कैसे तारोगे, प्रभु जी कैसे
तेरे बगैर सांवरिया जिया नही जाये
तुम आके बांह पकड लो तो कोई बात बने‌॥
हरी नाम नहीं तो जीना क्या
अमृत है हरी नाम जगत में,
बहुत बड़ा दरबार तेरो बहुत बड़ा दरबार,
चाकर रखलो राधा रानी तेरा बहुत बड़ा
मेरी विनती यही है राधा रानी, कृपा
मुझे तेरा ही सहारा महारानी, चरणों से
दुनिया का बन कर देख लिया, श्यामा का बन
राधा नाम में कितनी शक्ति है, इस राह पर
बृज के नंदलाला राधा के सांवरिया,
सभी दुःख दूर हुए, जब तेरा नाम लिया।
तेरी मंद मंद मुस्कनिया पे ,बलिहार
तेरी मंद मंद मुस्कनिया पे ,बलिहार
मेरा अवगुण भरा शरीर, कहो ना कैसे
कैसे तारोगे प्रभु जी मेरो, प्रभु जी
ना मैं मीरा ना मैं राधा,
फिर भी श्याम को पाना है ।
बृज के नन्द लाला राधा के सांवरिया
सभी दुख: दूर हुए जब तेरा नाम लिया
तू राधे राधे गा ,
तोहे मिल जाएं सांवरियामिल जाएं
वृंदावन में हुकुम चले बरसाने वाली का,
कान्हा भी दीवाना है श्री श्यामा
शिव समा रहे मुझमें
और मैं शून्य हो रहा हूँ
वास देदो किशोरी जी बरसाना,
छोडो छोडो जी छोडो जी तरसाना ।
तीनो लोकन से न्यारी राधा रानी हमारी।
राधा रानी हमारी, राधा रानी हमारी॥
जा जा वे ऊधो तुरेया जा
दुखियाँ नू सता के की लैणा
कारे से लाल बनाए गयी रे,
गोरी बरसाने वारी
राधे मोरी बंसी कहा खो गयी,
कोई ना बताये और शाम हो गयी,
हम प्रेम दीवानी हैं, वो प्रेम दीवाना।
ऐ उधो हमे ज्ञान की पोथी ना सुनाना॥
जिनको जिनको सेठ बनाया वो क्या
उनसे तो प्यार है हमसे तकरार है ।
सब हो गए भव से पार, लेकर नाम तेरा
नाम तेरा हरि नाम तेरा, नाम तेरा हरि नाम

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