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श्रीजगन्नाथदास गोस्वामी की मार्मिक कथा
श्रीजगन्नाथदास गोस्वामी की अधबुत कहानी - Full Story of श्रीजगन्नाथदास गोस्वामी (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [श्रीजगन्नाथदास गोस्वामी]- भक्तमाल


भारतवर्षमें कौन ऐसा व्यक्ति होगा, जो श्रीकृष्णद्वैपायनद्वारा रचित श्रीमद्भागवत महापुराणको न जानता हो । अनेक विद्वानोंने इसपर संस्कृतमें टीकाएँ लिखी हैं और इसका अनुवाद भी भारतवर्षकी प्रत्येक भाषामें हो चुका है। उड़िया भाषामें बहुत-से विद्वानोंने इसका अनुवाद किया है, परंतु उन सबमें श्रीजगन्नाथदासजीकृत अनुवादका इस प्रान्त (उड़ीसा) में अत्यधिक आदर है इन्होंने इतनी सुन्दर सरल भाषामें अनुवाद किया है कि स्त्रियाँ और निरक्षर लोग भी सुगमताके साथ उसको हृदयङ्गम करहैं। उत्तर भारतमें वैष्णवधर्मकी स्थापना करनेवाले स्वयं श्रीचैतन्यदेवको भी यह अनुवाद बहुत रुचिकर लगा। पुरीमें श्रीजगन्नाथमन्दिरमें जब श्रीजगन्नाथदासजी श्रीमद्भागवतकी कथा कहते, तब श्रीचैतन्य महाप्रभु उसका प्रेमसे श्रवण करते और जगन्नाथदासजीके प्रति अपने प्रिय शिष्यकी भाँति स्नेह करते ।

इनका जन्म पुरुषोत्तम क्षेत्रसे लगभग छः मील पश्चिमकी ओर कपिलेश्वरपुरमें हुआ था। सूर्यवंशी कपिलेश्वरदेवजीने जो किसी समय उड़ीसाके शासक थे,इसको दानमें दिया था, इसीलिये इसे 'शासन' कहते हैं। इस ग्राममें केवल एक ही वंशपरम्पराके लोग हैं, जो अपने नामके आगे 'दास' की उपाधि लगाते हैं और इसी कारण वे अपने-आपको जगन्नाथदासजी के वंशज मानते हैं। परंतु इसमें कहाँतक तथ्य है-इस सम्बन्धमें निश्चित रूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता। भगवानदास नामक एक सदाचारी एवं धार्मिक ब्राह्मण अपनी सती-साध्वी पत्नी पद्मावतीके साथ इस ग्राममें निवास करते थे। भाद्रशुक्ला अष्टमी बुधवारको अनुराधा नक्षत्रमें उनकी श्रद्धा-भक्तिके फलस्वरूप उन्हें एक पवित्रहृदय शिशुकी प्राप्ति हुई। यह घटना सन् 1490 ई0 की है। शिशुका नाम जगन्नाथदास रखा गया। जिस दिन शिशुका जन्म हुआ, वह दिन बड़ा पवित्र माना जाता है; क्योंकि इसी दिन जगज्जननी श्रीराधाका अवतरण हुआ था।

जगन्नाथदासजी के जन्मोपरान्त न केवल उनके माता पिता ही, अपितु समस्त ग्राम शनैः-शनैः वैष्णवधर्मानुयायी बन गया। माता-पिताने अपने बच्चेका नाम नीलाचलके भगवान् जगन्नाथके नामपर ही जगन्नाथदास रखा था।

बाल्यकालसे ही जगन्नाथदास बड़े समझदार थे। सोलह वर्षकी उम्र होनेपर तो ये समस्त वेद-वेदाङ्ग, दर्शन और अन्य शास्त्रोंमें पारङ्गत हो गये। उस समय ग्रामोंमें लोग चावसे पुराणोंकी कथा पढ़ते और सुनते थे। इसी हेतु जगन्नाथदासका काल 'पुराणयुग' के नामसे पुकारा जाता है। वैष्णवधर्मके प्रसिद्ध पुराण श्रीमद्भागवत और रामायणको कथा वे नित्यप्रति कहते और उसको सुननेके लिये अधिक-से-अधिक संख्यामें लोग एकत्रित होते। इस प्रकार उनकी ख्याति चारों ओर फैली और वे लोकप्रिय हुए। उस समय उड़ीसाके शासक महाराजा श्रीपुरुषोत्तमदेव थे। उनके कानोंतक यह बात पहुंची। वे स्वयं बड़े भक्त थे और भक्त भक्तका आदर करता ही है। उन्होंने बड़ी श्रद्धाके साथ जगन्नाथदासजीको आमन्त्रित किया उस समयतक जगन्नाथदासजी श्रीमद्भागवतका अनुवाद उड़ियाभाषामें कर चुके थे।

महाराजाने श्रीजगन्नाथजीके पुनीत मन्दिरके दक्षिणकी
ओर स्थित विद्वत्-ब्राह्मणोंकी गद्दी थी, जो मुक्तिमण्डपके
नामसे प्रख्यात थी, उसके पूर्व वट- गणेशके पास हीवटवृक्षके नीचे एक स्थानकी व्यवस्था की। वहाँ उन्होंने जगन्नाथदासजीद्वारा उनकी अनुवादित भागवतकी कथाको श्रवण किया और उससे अत्यन्त प्रसन्न होकर महाराजने उनके निर्वाहके लिये सुनिश्चित व्यवस्था कर दी। आर भी उस स्थानपर इस अनुवादित ग्रन्थकी कथा बराबर होती है और जगन्नाथदासजीके परम्परागत शिष्योंक निर्वाहको व्यवस्था उसी प्रकार चलती जा रही है। कथा-श्रवणके लिये लोग काफी संख्यामें उपस्थित रहते हैं। जगन्नाथदासजीके वैकुण्ठवास होनेपर उसी स्थानपर उनकी एक प्रतिमा स्थापित की गयी।

समुद्रतटके समीप ही उनका आश्रम है। यह सतलहरीके नामसे प्रख्यात है। इस सम्बन्धमें एक कथा चली आ रही है कि एक दिन जब जगन्नाथजी भजन ध्यानमें निमग्न थे, तब समुद्र भयानक गर्जना करता हुआ आगे बढ़ने लगा, जिससे गोस्वामीपादको विक्षेप हुआ। उन्होंने उसी समय समुद्रको आदेश दिया कि 'सात लहर पीछे हट जाओ।' समुद्र उसी समय पीछे हट गया। उसी दिनसे मठ 'सतलहरी' नामसे विख्यात हुआ। एक दिन श्रीचैतन्यदेवने जगन्नाथदासजीसे 'ब्रज-रहस्य' के सम्बन्धमें प्रश्न किया और जब उन्होंने इसका उत्तर सुना, तब बहुत ही प्रसन्न हुए। उसी समयसे श्रीचैतन्यदेव जगन्नाथदासको बहुत आदरकी दृष्टिसे देखने लगे।

उस समय उड़ीसाके शासक महाराजा श्रीप्रतापरुद्रदेव थे। वे महाराजा पुरुषोत्तमदेवके सुपुत्र थे। जगन्नाथदासजीमें वे बड़ी श्रद्धा रखते थे और उनके लिये उन्होंने एक मठ बनवा दिया था, जो 'उड़ियामठ' के नामसे प्रसिद्ध था। वह नीलाचलक्षेत्रके पश्चिमकी ओर स्थित है। महाराजा प्रतापरुद्रदेवने श्रीचैतन्यमहाप्रभुसे अनुरोध किया कि वे उनकी रानीको मन्त्रोपदेश दें। परंतु श्रीचैतन्यदेवने उनको जगन्नाथजीके पास जानेका आदेश दिया। जगन्नाथजी पुरुष हैं, इसलिये महाराजा ऐसा करनेमें सहमत न हुए। इसपर श्रीचैतन्यदेवने कहा कि 'जगन्नाथदासके शरीरमें 'स्त्री चिह्न विद्यमान हैं।' महाराजाने जब इसकी परीक्षा ली, तब बात सत्य निकली और उन्होंने श्रीचैतन्यदेवकी आज्ञाका सहर्ष पालन किया। जगन्नाथजीने रानीको मन्त्रीपदेश किया।एक दिन महाराजा प्रतापरुद्रदेवने जगन्नाथजीको मधुर, सुगन्धित चन्दनका लेप भेंट किया। वे चन्दन-लेपको घर ले आये और दीवालपर उसको पोत दिया। इसकी सूचना महाराजाको मिली; वे सुनते ही क्षुब्ध हो उठे और उन्होंने तत्काल जगन्नाथदासजीसे पूछा कि 'आपने ऐसा क्यों किया?' जगन्नाथदासजीने कहा कि 'मैंने जो चन्दनलेप दीवालपर चढ़ाया, वह इस भावसे था कि मैं साक्षात् भगवान् जगन्नाथजीकी सेवा कर रहा हूँ-यह चन्दन उन्हींपर चढ़ा रहा हूँ।' महाराजाने कहा- 'क्या यह चन्दनलेप भगवान् जगन्नाथजीके विग्रहपर देखा जा सकता है?' इसके उत्तरमें 'हाँ' सुननेपर महाराजा उसी समय गये और जब उन्होंने अपनी आँखोंसे देखा कि बात यथार्थमें सत्य है, तब उनके आश्चर्यकी सीमा न रही।

श्रीजगन्नाथदासजी निम्नलिखित संस्कृत ग्रन्थोंके रचयिता हैं - (1) कृष्णभक्तिकल्पलता, (2) नित्यगुप्तमाला,(3) उपासनाशतक, (4) प्रेमसुधाम्बुधि, (5) नित्याचार दीक्षोपासनाविधि, (6) श्रीराधारसमञ्जरी, (7) नीलाद्रिशतक, (8) जगन्नाथचरिताम्बोधि-सरणि, (9) कृष्णभक्ति कल्पलताफल । उड़ियाभाषामें उन्होंने निम्नलिखित ग्रन्थोंकी रचना की - ( 1 ) शोलो चोपोथी, (2) शैवागमभागवत, (3) सत्सङ्गवर्णन, (4) गुण्डिचा-विजय, (5) गोलोक सारोद्धार, (6) श्रीराधा-कृष्णमहामन्त्रचन्द्रिका, (7) अद्भुतचन्द्रिका, (8) नीलाद्रिचन्द्रिका, (9) पूर्णमतचन्द्रिका, (10) रसकल्प-चन्द्रिका, (11) श्रीमद्भागवत ।

साठ वर्षकी आयुमें सन् 1550 ई0 में माघ मासके शुक्ल पक्षकी सप्तमीको महात्मा जगन्नाथदासजी गोस्वामी पार्थिवदेहसे मुक्त हुए और भगवान् विष्णुकी ज्योतिमें लीन हो गये। श्रीचैतन्यदेव उनको 'अतिवादी' कहा करते थे; इसीलिये आज भी उनके अनुयायी 'अतिवादी सम्प्रदाय' के नामसे कहे जाते हैं।



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saath varshakee aayumen san 1550 ee0 men maagh maasake shukl pakshakee saptameeko mahaatma jagannaathadaasajee gosvaamee paarthivadehase mukt hue aur bhagavaan vishnukee jyotimen leen ho gaye. shreechaitanyadev unako 'ativaadee' kaha karate the; iseeliye aaj bhee unake anuyaayee 'ativaadee sampradaaya' ke naamase kahe jaate hain.

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