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विदेह-भक्त राजा जनक की मार्मिक कथा
विदेह-भक्त राजा जनक की अधबुत कहानी - Full Story of विदेह-भक्त राजा जनक (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [विदेह-भक्त राजा जनक]- भक्तमाल


आत्मारामाच मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ।।

(श्रीमद्भा0 17 10)

"जिनकी माया-ग्रन्थियाँ टूट गयी हैं, ऐसे आत्माराम,
आमकाम, जीवन्मुक्त मुनिगण भी भगवान् श्रीहरिको अहेतुकोभक्ति करते हैं; क्योंकि श्रीहरिमें ऐसे ही गुण हैं।'

महाराज निमिका शरीर मन्थन करके ऋषियोंने जिस कुमारको प्रकट किया, वह 'जनक' कहा गया। माताके देहसे न उत्पन्न होनेके कारण 'विदेह' और मन्थनसे उत्पन्न होनेके कारण 'मैथिल' भी उनकी उपाधि हुई। इस वंशमें आगे चलकर जो नरेश हुए, वे सभी जनक और विदेह कहलाये महर्षि याज्ञवल्क्यकी कृपासे से सभी योगी और आत्मज्ञानी हुए। इसी वंशमें उत्पन्न सीताजीके पिता महाराज 'सीरध्वज' जनकको कौन नहीं जानता। आप सर्वगुणसम्पत्र और सर्वसद्भावाधार, परम तत्त्वज्ञ, कर्मज्ञ, असाधारण ज्ञानी, धर्म-धुरन्धर और नीति-निपुण महान् पण्डित थे। आपकी विमल कोर्ति विविधतायी गयी है, परंतु आपके यथार्थ महत्त्वका पता बहुत थोड़े लोगोंको लग सका है। श्रीगुसाईजी महाराज आपको प्रणाम करते हुए कहते हैं प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू जाहि राम पद गूढ़ सनेहू जोग भोग महँ राखेउ गोई राम विलोकत प्रगटेड सोई । पूर्णब्रह्म सच्चिदानन्दघन महाराज श्रीराघवेन्द्र के साथ श्रीजनकजीका जो अत्यन्त 'गूढ़ सनेह और निल्य "योग' (प्रेमका अभेद सम्बन्ध) है, वह सर्वथा अनिर्वचनीय हैं। कहना तो दूर रहा, कोई उसे सम्यक् प्रकारसे समझ भी नहीं सकता। उस प्रेमतत्त्वको तो बस आप ही दोनों जानते हैं। आपने उस अकथनीय अनुपम दिव्य प्रेम धनको पूरे लोभीकी भाँति इन्द्रिय-व्यवसायरूप प्रपोंमें छिपा रखा है और एक धन-प्राण विषयी मनुष्यके सदृश उसी परम धनके चिन्तनमें निरन्तर निमग्न रहते हैं। लोग आपको एक महान् ऐश्वर्यसम्पन्न राजा नीतिकुशल प्रजारञ्जक नरपति समझते हैं, कुछ लोग ज्ञानियोंकाआचार्य भी मानते हैं; परंतु आपके अन्तस्तलके 'निगृह प्रेम का परिचय बहुत कम लोगोंको है।

प्यारी दुलारी श्रीसीताजीके स्वयंवरको तैयारी हुई है, देश-विदेशके राजा-महाराजाओंको निमन्त्रण दिया गया है। पराक्रमकी परीक्षा देकर सीताको प्राप्त करनेकी लालसासे बड़े-बड़े रूप गुण और बल-वीर्यसे सम्पन्न राजा-महाराजा मिथिलामें पधार रहे हैं।

इसी अवसरपर गाधि- तनय मुनि विश्वामित्रजी अपने तथा अन्यान्य ऋषियोंके यज्ञोंकी रक्षाके लिये अवधराज महाराज दशरथजीसे उनके प्राणाधिक प्रिय पुत्रद्वय श्रीराम लक्ष्मणको माँगकर आश्रम में लाये थे। यह कथा प्रसिद्ध है। श्रीविश्वामित्र मुनि भी महाराज जनकका निमन्त्रण पाते हैं. और दोनों राजकुमारोंको साथ लेकर मिथिलाकी ओर प्रस्थान करते हैं। रास्तेमें शापग्रस्ता मुनि-पत्नी अहल्याका उद्धार करते हुए परम कृपालु श्रीकोशलकिशोरजी कनिष्ठ तासहित गङ्गा स्नान करके वनोपवनके प्राकृतिक सौन्दर्यको देखते हुए जनकपुरीमें पहुँचते हैं और मुनिसहित नगरसे बाहर मनोरम आम्रवाटिकामें ठहरते हैं।

मिथिलेश महाराज इस शुभ संवादको पाकर श्रेष्ठ समाजसहित विश्वामित्रजीके दर्शन और स्वागतार्थ आते हैं और मुनिको साष्टाङ्ग प्रणाम करके आज्ञा पाकर बैठ जाते हैं। इतनेमें ही फुलवारी देखकर स्याम गौर मृदु बयस किसोरा लोचन सुखद बिस्व चित चोरा ॥ -श्याम-गौर-शरीर, किशोर वयवाली, नेत्रोंको परम सुख देनेवाली, अखिल विश्वके चित्तको चुरानेवाली 'जुगल जोड़ी' वहाँ आ पहुँची थे थे तो बालक; परंतु इनके आते हो लोगोंपर ऐसा प्रभाव पड़ा कि सब लोग उठ खड़े हुए- 'उठे सकल जब रघुपति आए।' विश्वामित्र सबको बैठाते हैं। दोनों प्रभु शील-संकोचके साथ गुरुके चरणों में बैठ जाते हैं। यहाँ जनकराजकी बड़ी ही विचित्र दशा होती है। उनकी प्रेमरूपी सूर्यकान्तमणि श्रीरामरूपी प्रत्यक्ष प्रचण्ड सूर्यकी रश्मियोंको प्राप्तकर | द्रवित होकर वह चलती है। गुप्त प्रेम-धन श्रीरामकीमधुर छवि देखते ही सहसा प्रकट हो गया। युगों के सञ्चित धनका खजाना अकस्मात् खुल पड़ा।

मूरति मधुर मनोहर देखी भयउ विदेह विदेह बिसेषी।।
प्रेम मगन मनु जानि नृषु करि बिबेकु धरि धीर l
बोलेड मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गंभीर ॥
कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक ।।
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा उभय बेष धरि की सोइ आवा ॥
सहज विरागरूप मनु मोरा थकित होत जिमि चंद चकोरा ॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ ॥ जनकजी कहते हैं-'मुनिनाथ! छिपाइये नहीं, सच बतलाइये - ये दोनों कौन हैं? मैं जिस ब्रह्ममें लीन रहता हूँ, क्या वह वेदवन्दित ब्रह्म ही इन दो रूपोंमें प्रकट हो

रहा है? मेरा स्वाभाविक ही वैरागी मन आज चन्द्रमाको देखकर चकोरकी भाँति थका जाता है।' जनकजीकी इस दशापर विचार कीजिये ।

जनकका मन आत्यन्तिक प्रेमके कारण बलात् ब्रह्मसुखको छोड़कर रामरूपके गम्भीर मधुर सुधा समुद्र में निमग्न हो गया।

इन्हहि विलोकत अति अनुरागा बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा ॥ जो मन-बुद्धि अपनेसे अगोचर ब्रह्मके निरतिशय सुखकी अनुभूतिमें लगे थे, उन्होंने आज उस अगोचरको प्रत्यक्ष नयनगोचर देखकर उस अगोचरके सुखको तुरंत त्याग दिया। गोदका छोड़कर पेटवालेकी आशा कौन करे। ऐसा कौन समझदार होगा, जो 'नयनगोचर' के मिल जानेपर 'अगोचर' के पीछे लगा रहे। धीरबुद्धि महाराज जनकके लिये यही उचित था। अभेद भक्ति निष्ठ विदेहराजकी पराभक्ति संशयरहित है।

इसी प्रकार वे बारातकी बिदाईके समय जब अपने जामातासे मिलते हैं, तब भी उनका प्रेमसागर मर्यादा तोड़ बैठता है। उस समयके उनके वचनोंमें असीम प्रेमकी मनोहर छटा है-जरा, उस समयकी झाँकी भी देखिये। बारात विदा हो गयी। जनकजी पहुँचानेके लिये साथ-साथ जा रहे हैं। दशरथजी लौटाना चाहते हैं, परन्तु प्रेमवश राजा लौटते नहीं। दशरथजीने फिर आग्रह किया तो आप रथसे उतर पड़े और नेत्रोंसे प्रेमाश्रुओंकी धारा बहाते हुए उनसे विनय करने लगे। इसके बाद मुनियोंसे स्तुति प्रार्थनाएं कीं। तदनन्तर श्रीरामके-अपने प्यारेजामाता रामके समीप आये और कहने लगे -
राम करौ केहि भाँति प्रसंसा मुनि महेस मन मानस हंसा ॥
करहिं जोग जोगी जेहि लागी को मोह ममता मदु त्यागी ॥
व्यापक ब्रह्म अलनु अविनासी चिदानन्दु निरगुन गुनरासी ॥
मन समेत जेहि जान न बानी तरकि न सकहिं सकल अनुमानी ।।
महिमा निगम नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई ॥
नयन विषय मो कहुँ भयड सो समस्त सुख मूल सबड़ लाभ जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकूल ।।
सहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई । निज जन जानि लीन्ह अपनाई ॥
होहिं सहस दस सारद सेषा करहिं कलप कोटिक भरि लेखा ।
मोर भाग्य राउर गुन गाथा कहि न सिराहि सुनहु रघुनाथा।।
मैं कछु कह एक बल मोरें तुम्ह रौझडु सनेह सुठि थोरै ।। बार बार माग कर जोरें मनु परिहरे चरन जनि भोरें ॥।

धन्य जनकजी ! धन्य आपकी गुप्त प्रेमाभक्ति!

जब मिथिला यह समाचार पहुँचा कि महाराज दशरथने श्रीरामको वनवास दे दिया, तब जनकजीने कुशल राजनीतिज्ञकी भाँति अयोध्याका समाचार - भरतकी गतिविधि जाननेके लिये गुप्तचर भेजे। भरतलालके अनुरागका परिचय पाकर वे चित्रकूट अपने समाजके साथ पहुँचे। चित्रकूटमें महाराजकी गम्भीरता जैसे मूर्तिमान् हो जाती है। वे न तो कुछ भरतजीसे कह पाते हैं और न कुछ श्रीरामसे ही कहते हैं। उन्हें भरतकी अपार भक्ति तथा श्रीरामके परात्पर स्वरूपपर अटूट विश्वास है। महारानी कौसल्यातक उनके पास सुनयनाजीद्वारा सन्देश भी है किन्तु वे कहते हैं कि भरत और श्रीरामका जो परस्पर अनुराग है, उसे समझा ही नहीं जा सकता, वह अतर्क्य है
देखि परंतु भरत रघुबर की प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकी ॥

स्वयं महाराजके बोधरूप चित्तमें कितना निगूढ़ प्रेम है, इसका कोई भी अनुमान नहीं कर सकता। जनक कर्मयोगके सर्वश्रेष्ठ आदर्श हैं, ज्ञानियोंमें अग्रगण्य हैं और बारह प्रधान भागवताचार्योंमें हैं।

जनकजी परम ज्ञानी थे; परंतु परम ज्ञानकी अवधि तो यही है कि ज्ञानमें स्थित रहते हुए ही परम ज्ञानस्वरूप भगवान्की मूर्तिमान् माधुरीको देखकर उसपर रीझ जाय । ज्ञानका प्रेमके पवित्र द्रवरूपमें परिणत होकर अपनी अजस्र सुधाधारासे जगत्को प्लावित कर देना ही उसकी महानता है। जनकजीने यही प्रत्यक्ष दिखला दिया!



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aatmaaraamaach munayo nirgrantha apyurukrame .
kurvantyahaitukeen bhaktimitthambhootaguno harih ..

(shreemadbhaa0 17 10)

"jinakee maayaa-granthiyaan toot gayee hain, aise aatmaaraam,
aamakaam, jeevanmukt munigan bhee bhagavaan shreehariko ahetukobhakti karate hain; kyonki shreeharimen aise hee gun hain.'

mahaaraaj nimika shareer manthan karake rishiyonne jis kumaarako prakat kiya, vah 'janaka' kaha gayaa. maataake dehase n utpann honeke kaaran 'videha' aur manthanase utpann honeke kaaran 'maithila' bhee unakee upaadhi huee. is vanshamen aage chalakar jo naresh hue, ve sabhee janak aur videh kahalaaye maharshi yaajnavalkyakee kripaase se sabhee yogee aur aatmajnaanee hue. isee vanshamen utpann seetaajeeke pita mahaaraaj 'seeradhvaja' janakako kaun naheen jaanataa. aap sarvagunasampatr aur sarvasadbhaavaadhaar, param tattvajn, karmajn, asaadhaaran jnaanee, dharma-dhurandhar aur neeti-nipun mahaan pandit the. aapakee vimal korti vividhataayee gayee hai, parantu aapake yathaarth mahattvaka pata bahut thoda़e logonko lag saka hai. shreegusaaeejee mahaaraaj aapako pranaam karate hue kahate hain pranavaun parijan sahit bidehoo jaahi raam pad goodha़ sanehoo jog bhog mahan raakheu goee raam vilokat pragated soee . poornabrahm sachchidaanandaghan mahaaraaj shreeraaghavendr ke saath shreejanakajeeka jo atyant 'goodha़ saneh aur nily "yoga' (premaka abhed sambandha) hai, vah sarvatha anirvachaneey hain. kahana to door raha, koee use samyak prakaarase samajh bhee naheen sakataa. us prematattvako to bas aap hee donon jaanate hain. aapane us akathaneey anupam divy prem dhanako poore lobheekee bhaanti indriya-vyavasaayaroop praponmen chhipa rakha hai aur ek dhana-praan vishayee manushyake sadrish usee param dhanake chintanamen nirantar nimagn rahate hain. log aapako ek mahaan aishvaryasampann raaja neetikushal prajaaranjak narapati samajhate hain, kuchh log jnaaniyonkaaaachaary bhee maanate hain; parantu aapake antastalake 'nigrih prem ka parichay bahut kam logonko hai.

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moorati madhur manohar dekhee bhayau videh videh biseshee..
prem magan manu jaani nrishu kari bibeku dhari dheer l
boled muni pad naai siru gadagad gira ganbheer ..
kahahu naath sundar dou baalak munikul tilak ki nripakul paalak ..
brahm jo nigam neti kahi gaava ubhay besh dhari kee soi aava ..
sahaj viraagaroop manu mora thakit hot jimi chand chakora ..
taate prabhu poochhaun satibhaaoo kahahu naath jani karahu duraaoo .. janakajee kahate hain-'muninaatha! chhipaaiye naheen, sach batalaaiye - ye donon kaun hain? main jis brahmamen leen rahata hoon, kya vah vedavandit brahm hee in do rooponmen prakat ho

raha hai? mera svaabhaavik hee vairaagee man aaj chandramaako dekhakar chakorakee bhaanti thaka jaata hai.' janakajeekee is dashaapar vichaar keejiye .

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main kachhu kah ek bal moren tumh raujhadu saneh suthi thorai .. baar baar maag kar joren manu parihare charan jani bhoren ...

dhany janakajee ! dhany aapakee gupt premaabhakti!

jab mithila yah samaachaar pahuncha ki mahaaraaj dasharathane shreeraamako vanavaas de diya, tab janakajeene kushal raajaneetijnakee bhaanti ayodhyaaka samaachaar - bharatakee gatividhi jaananeke liye guptachar bheje. bharatalaalake anuraagaka parichay paakar ve chitrakoot apane samaajake saath pahunche. chitrakootamen mahaaraajakee gambheerata jaise moortimaan ho jaatee hai. ve n to kuchh bharatajeese kah paate hain aur n kuchh shreeraamase hee kahate hain. unhen bharatakee apaar bhakti tatha shreeraamake paraatpar svaroopapar atoot vishvaas hai. mahaaraanee kausalyaatak unake paas sunayanaajeedvaara sandesh bhee hai kintu ve kahate hain ki bharat aur shreeraamaka jo paraspar anuraag hai, use samajha hee naheen ja sakata, vah atarky hai
dekhi parantu bharat raghubar kee preeti prateeti jaai nahin tarakee ..

svayan mahaaraajake bodharoop chittamen kitana nigoodha़ prem hai, isaka koee bhee anumaan naheen kar sakataa. janak karmayogake sarvashreshth aadarsh hain, jnaaniyonmen agragany hain aur baarah pradhaan bhaagavataachaaryonmen hain.

janakajee param jnaanee the; parantu param jnaanakee avadhi to yahee hai ki jnaanamen sthit rahate hue hee param jnaanasvaroop bhagavaankee moortimaan maadhureeko dekhakar usapar reejh jaay . jnaanaka premake pavitr dravaroopamen parinat hokar apanee ajasr sudhaadhaaraase jagatko plaavit kar dena hee usakee mahaanata hai. janakajeene yahee pratyaksh dikhala diyaa!

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