सोमशर्मा नामक एक सुशील ब्राह्मण थे। उनकी पत्नीका नाम सुमना था। सुव्रत उन्हींके सुपुत्र थे भगवान् की कृपासे ही ब्राह्मणदम्पतिको ऐसा भागवत पुत्र प्राप्त हुआ था। पुत्रके साथ ही ब्राह्मणका घर ऐश्वर्यसे पूर्ण हो गया था। सुव्रत पूर्वजन्ममें धर्माङ्गद नामक भक्त राजकुमार थे। पिताके सुखके लिये उन्होंने अपना मस्तक दे दिया था । पूर्वजन्मके अभ्यासवश लड़कपनमें ही वे भगवान्का चिन्तन और ध्यान करने लगे थे। वे जब बालकोंके साथ खेलते, तब अपने साथी बालकोंको भगवान् के ही हरि, गोविन्द, मुकुन्द, माधव आदि नामोंसे पुकारते। उन्होंने अपने सभी मित्रोंके नाम भगवान्के नामानुसार ही रख लिये थे। वे कहते- भैया केशव, माधव, चक्रधर! आओ। पुरुषोत्तम! आओ। हमलोग खेलें। मधुसूदन ! मेरे साथ चलो। खेलते-खाते, पढ़ते लिखते, हँसते-बोलते, सोते-जागते, खाते-पीते, देखते सुनते - सभी समय वे भगवान्को ही अपने सामने देखते। घर-बाहर, सवारीपर, ध्यानमें, ज्ञानमें - सभी कर्मोंमें, सभी जगह उन्हें भगवान्के दर्शन होते और वेउन्हींको पुकारा करते। तृण, काठ, पत्थर तथा सूखे । गीले सभी पदार्थोंमें वे पद्म-पलाश-लोचन गोविन्दकी झाँकी करते। जल-थल आकाश-पृथ्वी, पहाड़-वन, जड़-चेतन जीवमात्रमें वे भगवान्के सुन्दर मुखारविन्दकी छवि देख-देखकर निहाल होते। लड़कपनमें ही वे गाना सीख गये थे और प्रतिदिन ताललयके साथ मधुर स्वरसे भगवान् के गुण गा-गाकर भगवान् श्रीकृष्णमें प्रेम बढ़ाते । वे गाते
'वेदके जाननेवाले लोग निरन्तर जिनका ध्यान करते हैं, जिनके एक-एक अङ्गमें अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड स्थित हैं, जो सारे पापोंका नाश करनेवाले हैं, मैं उन योगेश्वरेश्वर मधुसूदनभगवान्के शरण हूँ। जो सब लोकोंके स्वामी हैं, जिनमें सब लोक निवास करते हैं, मैं उन सर्वदोषरहित परमेश्वरके चरण-कमलोंमें निरन्तर नमस्कार करता हूँ। जो समस्त दिव्य गुणोंके भण्डार हैं, अनन्त शक्ति हैं, इस अगाध अनन्त सागरसे तरनेके लिये मैं उन श्रीनारायणदेवकी शरण ग्रहण करता हूँ। जो योगिराजोंके मानस सरोवरके राजहंस हैं, जिनका प्रभाव और माहात्म्यसदा और सर्वत्र विस्तृत है, उन असुरोंके नाश करनेवाले भगवान् के विशुद्ध, विशाल चरण-कमल मुझ दोनकी रक्षा करें। जो दुःखके अँधेरेका नाश करनेके लिये चन्द्रमा हैं, जिन्होंने लोक-कल्याणको अपना धर्म बना रखा है, जो समस्त ब्रह्माण्डोंके अधीश्वर हैं, उस सत्यस्वरूप सुरेश्वर जगद्गुरु भगवान्का मैं ध्यान करता हूँ। जिनका स्मरण ज्ञानकमलके विकासके लिये सूर्यके समान है, जो समस्त भुवनोंके एकमात्र आराध्यदेव हैं, मैं उन महान् महिमान्वित आनन्दकन्द भगवान्के दिव्य गुणोंका तालस्वरके साथ गान करता हूँ। मैं उन पूर्णामृतस्वरूप सकलकलानिधि भगवान्का अनन्य प्रेमके साथ गान करता हूँ। पापी जीव जिनका दर्शन नहीं कर सकते, मैं सदा-सर्वदा उन भगवान् केशवकी ही शरण में पड़ा हूँ।' इस प्रकार गान करते हुए सुव्रत हाथोंसे ताली बजा-बजाकर नाचते और बच्चोंके साथ आनन्द लूटते । उनका नित्यका यही खेल था। वे इस तरह भगवान्के ध्यानमें मस्त हुए बच्चोंके साथ खेलते रहते। खाने पीनेकी कुछ भी सुधि नहीं रहती। तब माता सुमना पुकारकर कहती- 'बेटा तुम्हें भूख लगी होगी। देखो, भूखके मारे तुम्हारा मुख कुम्हला रहा है। आओ, जल्दी कुछ खा जाओ।' माताकी बात सुनकर सुव्रत कहते- 'मा ! श्रीहरिके ध्यानमें जो अमृत रस झरता है, मैं उसीको पी-पीकर तृप्त हो रहा हूँ।' जब मा बुला लाती और वे खानेको बैठते, तब मधुर अन्नको देखकर कहते- 'यह अन्न भगवान् ही है, आत्मा अन्नके आश्रित है। आत्मा भी तो भगवान् ही है। इस अनरूपी भगवान्से आत्मारूप भगवान् तृप्त हों। जो सदा क्षीरसागरमें निवास करते हैं, वे भगवान् इस भगवत्स्वरूप जलसे तृप्त हों ताम्बूल, चन्दन और इन मनोहर सुगन्धयुक्त पुष्पोंसे सर्वात्मा भगवान् तृप्त हों।' धर्मात्मा सुव्रत जब सोते, तब श्रीकृष्णका चिन्तन करते हुए कहते -'मैं योगनिद्रासम्पन्न श्रीकृष्णके शरण हूँ।' इस प्रकार खाने पहनने, सोने बैठने आदि सभी कार्योंमें वे श्रीभगवान्का स्मरण करते और उन्हींको सब कुछ निवेदन करते। यह तो उनके लड़कपनका हाल है।
वे जब जवान हुए, तब सारे विषयभोगोंका त्यागकरके नर्मदाजीके दक्षिण तटपर वैदूर्य पर्वतपर चले गये और वहाँ भगवान्के ध्यानमें लग गये। यो तपस्या करते जब सौ वर्ष बीत गये, तब लक्ष्मीजीसहित श्रीभगवान् प्रकट हुए। बड़ी सुन्दर झाँकी थी। सुन्दर नील-श्याम शरीरपर दिव्य पीताम्बर और आभूषण शोभा पा रहे थे। तीन हाथोंमें शङ्ख, चक्र और गदा सुशोभित थे। चौथे करकमलसे भगवान् अभयमुद्राके द्वारा भक्त सुव्रतको निर्भय कर रहे थे। उन्होंने कहा- 'बेटा सुव्रत! उटी, उठो, तुम्हारा कल्याण हो। देखो, मैं स्वयं श्रीकृष्ण तुम्हारे सामने उपस्थित हूँ। उठो, वर ग्रहण करो।'
श्रीभगवा दिव्य वाणी सुनकर सुव्रतने आँखें खोली और अपने सामने दिव्यमूर्ति श्रीभगवान्को देखकर वे देखते ही रह गये। आनन्दके आवेशसे सारा शरीर पुलकित हो गया। नेत्रोंसे आनन्दाश्रुओंकी झड़ी लग गयी। फिर वे हाथ जोड़कर बड़ी ही दीनताके साथ बोले-
'जनार्दन । यह संसार-सागर बड़ा ही भयानक है। इसमें बड़े-बड़े दुःखोकी भीषण लहरें उठ रही हैं. विविध मोहकी तरङ्गोंसे यह उछल रहा है। भगवन्! मैं अपने दोपसे इस सागरमें पड़ा हूँ। मैं बहुत हो दीन हूँ। इस महासागरसे मुझको उबारिये कर्मोके काले काले 1 बादल गरज रहे हैं और दुःखोंकी मूसलधार वृष्टि कर रहे हैं। पापोंके सञ्चयकी भयानक बिजली चमक रही है है मधुसूदन! मोहके अँधेरेमें में अंधा हो गया हूँ। मुझको कुछ भी नहीं सूझता में बड़ा ही दीन हूँ। आप अपने करकमलका सहारा देकर मुझे बचाइये। यह संसार बहुत बड़ा भयावना जंगल है। यह भाँति-भाँति के असंख्य दुःख वृक्षोंसे भरा है, मोहमय सिंह बाघोंसे परिपूर्ण है। दावानल धधक रहा है। मेरा चित, हे श्रीकृष्ण इसमें बहुत ही बुरी तरह जल रहा है, आप मेरी रक्षा कीजिये। यह बहुत पुराना संसार वृक्ष करुणा और असंख्य दुःख- शाखाओंसे घिरा हुआ है। माया ही इसकी जड़ है। स्त्रीपुत्रादिमें आसक्ति हो इसके पत्ते हैं। हे मुरारे में इस वृक्षपर चढ़कर गिर पड़ा हूँ, मुझे बचाइये। भाँति-भाँति मोहमय दुःखोंकी भयानक आपसे मैं जला जा रहा हूँ, दिन-रात शोकमें डूबा रहता हूँ। मुझेइससे छुड़ाइये। अपने अनुग्रहरूप ज्ञानकी जलधारासे मुझे शान्ति प्रदान कीजिये। मेरे स्वामी! यह संसाररूपी गहरी खाई बड़े भारी अंधेरेसे छायी है। मैं इसमें पड़कर बहुत ही डर रहा हूँ । इस दीनपर आप कृपा कीजिये। मैं इस संसारसे विरक्त होकर आपकी शरण आया हूँ। जो लोग अपने मनको निरन्तर बड़े प्रेमसे आपमें लगाये रखते हैं, जो आपका ध्यान करते हैं, वे आपको प्राप्त करते हैं, देवता और किन्नरगण आपके परम पवित्र श्रीचरणोंमें सिर झुकाकर सदा उनका चिन्तन करते हैं। प्रभो ! मैं भी न तो दूसरेकी चर्चा करता हूँ, न सेवन करता हूँ और न तो चिन्तन ही करता हूँ। सदा आपके ही नाम-गुण-कीर्तन, भजन और स्मरणमें लगा रहता हूँ। मैं आपके श्रीचरणोंमेंनिरन्तर नमस्कार करता हूँ। श्रीकृष्ण ! मेरी मन:कामना पूरी कीजिये। मेरी समस्त पापराशि नष्ट हो जाय। मैं आपका दास हूँ, किङ्कर हूँ। ऐसी कृपा कीजिये जिससे मैं जब जहाँ भी जन्म लूँ सदा-सर्वदा आपके चरणकमलोंका ही चिन्तन करता रहूँ। श्रीकृष्ण ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे उत्तम वरदान दीजिये । हे देवाधिदेव! मेरे माता और पिताके सहित मुझको अपने परम धाममें ले चलिये।' इस प्रकार स्तुति करके सुव्रत चुप हो गये। तब भगवान् श्रीकृष्णने कहा-'ऐसा ही होगा। तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा।' इतना कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये और सुव्रतने अपने पिता सोमशर्मा और माता सुमनाके साथ सशरीर भगवान्के नित्यधामकी शुभ यात्रा की।
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