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श्रीशुकदेवजी की मार्मिक कथा
श्रीशुकदेवजी की अधबुत कहानी - Full Story of श्रीशुकदेवजी (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [श्रीशुकदेवजी]- भक्तमाल


आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे ।

कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ॥

(श्रीमद्भा0 1।7।10)

'जो आत्माराम, आप्तकाम, मायाके समस्त बन्धनोंसे मुक्त मुनिगण हैं, वे भी भगवान्में निष्काम भक्ति रखते। हैं, वे भी बिना किसी कारणके ही भगवान्से प्रेम करते हैं; क्योंकि भगवान्के मङ्गलमय दिव्य गुण ही ऐसे हैं।'

श्रीशुकदेवजी साक्षात् नन्दनन्दन श्रीकृष्णचन्द्र के स्वरूप ही हैं। भगवान्के नित्य गोलोकधाममें भगवान्‌की आह्लादिनी पराशक्ति श्रीराधाजीके वे लीलाशुक हैं और भगवद्धाम, वहाँके पदार्थ, वहाँके परिकर पार्षद- सब भगवान्से नित्य अभिन्न उन आनन्दघनके स्वरूप ही होते हैं। शुकदेवजी तो स्वरूपसे भी नन्दनन्दनके समान ही सदा षोडश वर्षकी अवस्थामें रहनेवाले, नवघन-सुन्दर अङ्गकान्तिसे युक्त, कमल लोचन, सर्वावयवमनोहर हैं
और प्रभावसे तो वे आनन्दरूप हैं ही। श्रीश्यामसुन्दर जब अपनी लीला इस लोकमें व्यक्त करनेके लिये व्रजमें पधारे, तब श्रीराधिकाजीके वे लीलाशुक गोलोकधामसे उड़ते-घूमते भगवान् शिवके लोकमें पहुँचे। वहाँ शङ्करजी भगवती पार्वतीको भगवान्‌की वह अद्भुत लीला सुना रहे थे, जो श्रवणमात्रसे प्राणीको अमरत्व प्रदान कर देती है। पार्वतीजी कथा - श्रवणमें तल्लीन होकर आत्मविस्मृत हो गयीं। कथा रुके नहीं, इसलिये वे लीलाशुक मध्यमें हुंकृति देते रहे। अन्तमें भगवान् शङ्करको जब ज्ञात हुआ कि एक पक्षीने यह कथा सुन ली है, तब वे मारने दौड़े त्रिशूल लेकर; क्योंकि पक्षीदेह उस कथाको धारण करनेका अधिकारी नहीं था। शुक वहाँसे उड़े और व्यासाश्रममें आकर व्यासपत्नीके मुखसे उनके उदरमें प्रविष्ट हो गये। भगवान् शङ्कर सन्तुष्ट होकर लौट गये। अब भगवान् व्यासके पुत्र होकर शुक उस कथा एवं ज्ञानको धारण किये रहें, इसमें कोई आपत्ति हो ही नहीं सकती थी।

श्रीशुकदेवजीकी जन्मसम्बन्धी विविध कथाएँ विभिन्न विभिन्न पुराणों एवं इतिहास-ग्रन्थोंमें मिलती हैं। कल्पभेदसे वे सभी सत्य हैं। एक जगह आया है—इनकी माता वटिका एवं पिता बादरायण श्रीव्यासजीने पृथ्वी, जल, आकाश और वायुके समान धैर्यशील एवं तेजस्वी पुत्र प्राप्त करनेके लिये भगवान् गौरीशङ्करकी विहारस्थली सुमेरुशृङ्गपर अत्यन्त घोर तपस्या की । यद्यपि भगवान् श्रीकृष्णद्वैपायनकी इच्छा और दृष्टिमात्रसे कई महापुरुषोंका जन्म हो सकता था और हुआ है, तथापि अपने ज्ञान तथा सदाचारके धारण करने योग्य पुत्रकी प्राप्तिके लिये एवं संसारमें किस प्रकारके पुत्रकी सृष्टि करनी चाहिये - यह बात बतानेके लिये ही उन्होंने तपस्या की। इनकी तपस्यासे प्रसन्न हो भगवान् शङ्करजीने तेजस्वी पुत्रकी प्राप्तिका वरदान दे इन्हें कृतकृत्य किया। समयपर गर्भस्थिति हुई।

शुकदेवजी माताके गर्भमें बारह वर्ष बने रहे। अपनी योगशक्तिसे वे इतने छोटे बने हुए थे कि माताको कोई कष्ट नहीं था। उन्हें गर्भसे बाहर आनेके लिये भगवान् व्यास तथा दूसरे ऋषियोंने भी आग्रह किया; पर वे सदा यही कहते थे कि 'जीव जबतक गर्भमें रहता है, उसका ज्ञान प्रकाशित रहता है। भगवान्‌के प्रति उसमें भक्ति रहती है और विषयोंसे वैराग्य रहता है; किंतु गर्भसे बाहर आते ही भगवान्‌की अचिन्त्यशक्ति माया उसे मोहित कर देती है। उसका समस्त ज्ञान विस्मृत हो जाता है, वह मायामोहित होकर दुःखरूप घृणित संसार एवं उसके विषयोंमें आसक्त हो जाता है, आसक्तिवश नाना अपकर्म करता है और फिर जन्म-मरणके चक्रसे उसका छुटकारा बहुत ही कठिन हो जाता है। अतः मैं गर्भसे बाहर नहीं आऊँगा।'

जब देवर्षि नारदजीके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका यह आश्वासन प्राप्त कर लिया कि गर्भसे बाहर आनेपर भी श्रीव्यासनन्दनको माया स्पर्श नहीं करेगी, अथवा कहीं कहा गया है कि जब भगवान् श्रीकृष्णने स्वयं वहाँ आकर दर्शन दिया और आश्वासन दिया, तब शुकदेवजी माताके उदरसे बाहर आये जन्मते ही ये वनकी ओर चल पड़े। इनका नालोच्छेदन-संस्कार भी नहीं हुआ था । इतने सुन्दर, सुकुमार, ज्ञानी पुत्रको इस प्रकार तत्काल विरक्त होकर वनमें जाते देख भगवान् व्यास व्याकुल हो गये। वे 'पुत्र! पुत्र !' पुकारते हुए शुकदेवजीके पीछे चलने लगे। शुकदेवजीमें भेदबुद्धिका लेश नहीं था। | सचराचर जगत्‌में उनका अखण्ड एकात्मभाव जागरूक था। उनकी इस एकात्मताका इतना प्रभाव हुआ कि वृक्षोंसे वाणियाँ फूट पड़ीं और उनकी ओरसे वृक्षोंने व्यासजीकी पुकारका उत्तर दिया।

भगवान् व्यास शुकदेवजीको पुकारते हुए उनके पीछे विह्वल हुए चले जा रहे थे। एक स्थानपर उन्होंने देखा कि वनके एकान्त सरोवरमें कुछ देवाङ्गनाएँ स्नान कर रही थीं। वे व्यासजीको आते देख लज्जावश बड़ी शीघ्रतासे जलसे निकलकर अपने वस्त्र पहनने लगीं। आश्चर्यमें पड़कर व्यासजीने पूछा- 'देवियो! मेरा पुत्र युवक है, दिगम्बर है, इधरसे अभी गया है। आप सब उसे देखकर तो जलक्रीड़ा करती रहीं, उसे देखकर आपने लज्जाका भाव नहीं प्रकट किया; फिर मुझ वृद्धको देखकर आपने लज्जाका भाव क्यों प्रकट किया?'

बड़ी नम्रतासे देवियोंने कहा- 'महर्षे! आप हमें क्षमा करें। आप यह पहचानते हैं कि यह पुरुष है और यह स्त्री है अतः आपको देखकर हमें लगा करनी हो चाहिये। किंतु आपके पुत्रमें तो स्त्री-पुरुषका भाव ही नहीं है। वे तो सबको एक ही देखते हैं। उनके सम्मुख वस्त्र पहने रहना या न पहने रहना एक सा ही है ।

देवियोंकी बात सुनकर भगवान् व्यास लौट आये। उन्होंने समझ लिया कि ऐसे समदर्शीके लिये पिता पुत्रका सम्बन्ध कोई अर्थ नहीं रखता। वह बुलानेसे नहीं लौटेगा। परंतु व्यासजीका स्नेह अपार था। वह बढ़ता ही जाता था। वे चाहते थे कि शुकदेव उनके समीप रहकर कुछ दिन शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त करें ब्रह्मनिष्ठ तो वे हैं हो, श्रोत्रिय भी हो जायें। व्यासजी जानते थे कि ऐसे आत्माराम विरकोंको केवल भगवान्‌का दिव्यरूप एवं मङ्गलमय चरित ही आकर्षित करता है। अतएव | व्यासजीने अपने शिष्योंको श्रीश्यामसुन्दरके परम मनोहर स्वरूपकी झाँकीका वर्णन करनेवाला एक श्लोक * पढ़ाकर आदेश दिया कि वनमें वे उसे बराबर मधुर स्वरसे गान किया करें। ब्रह्मचारीगण समिधा, फल, पुष्प, कुश लेने वनमें जाते तो वह श्लोक गाया करते थे। शुकदेवजीके कानोंमें जब वह श्लोक पड़ा, तब जैसे मृग सुन्दर रागपर मुग्ध होकर खिंचा चला आता है, वे उन ब्रह्मचारियोंके पास चले आये और उस श्लोकको सीखनेका आग्रह करने लगे। ब्रह्मचारी उन्हें व्यासजीके पास ले आये और वहाँ पूरे श्रीमद्भागवतका अध्ययन किया शुकदेवजीने ।

गुरुके द्वारा प्राप्त ज्ञान ही उत्तम होता है। फिर जिसे लोकमें आचार्य होना है, उसे शास्त्रीय मर्यादाका पूरा पालन करना ही चाहिये। भगवान् व्यासकी आज्ञा स्वीकार करके शुकदेवजी मिथिला गये और मिथिला पहुँचकर जब वे राजमहलमें घुसने लगे, तब द्वारपालने उन्हें वहीं डाँटकर रोक दिया। वे निर्विकार शान्तचित्तसे वहीं खड़े रह गये न उन्हें रास्तेकी थकावटका कोई ध्यान था, न भूख प्यासका और न प्रचण्ड घामका । कुछ समय बाद दूसरे एक द्वारपालने आकर आदरके साथ हाथ जोड़ तथा विधिके अनुसार पूजा करके उन्हें महलकी दूसरी कक्षामें पहुँचा दिया। अपमान और मानकी कुछ भी स्मृति न रखते हुए वे वहीं बैठकर आत्मचिन्तन करने लगे। धूप-छाँहका उन्हें कोई खयाल नहीं था। अब तीसरी परीक्षा हुई, उन्हें अन्तःपुरसे सटे हुए 'प्रमदावन' नामक सुन्दर बगीचेमें पहुँचा दिया गया और पचास खूब सजी हुई अति सुन्दरी नवयुवती वाराङ्गनाएँ उनकी सेवामें लग गयीं। वे बातचीत करने और नाचने-गानेमें निपुण थीं। मन्द मुसकानके साथ बातें करती थीं। वे वाराङ्गनाएँ श्रीशुकदेवजीकी पूजा करके उन्हें नहला तथा खिला-पिलाकर बगीचेकी सैर कराने ले गयीं। उस समय वे हँसती, गाती तथा नाना प्रकारकी क्रीड़ाएँ करती जाती थीं। परंतु श्रीशुकदेवजीका अन्तःकरण सर्वथा विशुद्ध था। वे सर्वथा निर्विकार रहे। स्त्रियोंकी सेवासे न उन्हें हर्ष हुआ, न क्रोध। तदनन्तर उन्हें देवताओंके बैठने योग्य दिव्य रत्नजड़ित पलंगपर बहुमूल्य बिछौने बिछाकर उसपर शयन करनेके लिये कहा गया। वे वहीं पवित्र आसनसे बैठकर मोक्षतत्त्वका विचार करते हुए ध्यानस्थ हो गये। रात्रिके मध्यभागमें सोये और फिर ब्राह्ममुहूर्तमें जग गये तथा शौचादिसे निवृत्त होकर पुनः ध्यानमग्न हो गये।

अब राजा स्वयं मन्त्री और पुरोहितोंको साथ लेकर वहाँ आये, उनकी राजाने पूजा की और अंदर महलमें ले गये। वहाँ महाराज जनकसे उन्होंने अध्यात्म-विद्याका उपदेश ग्रहण किया। वैसे तो वे जन्मसे ही परम विरक्त हैं। नंगे, उन्मत्तकी भाँति अपने-आपमें आनन्दमग्न, भगवान्‌को लीलाओंका अस्फुट स्वरमें गान करते तथा हृदयमें भगवान्‌की दिव्य झाँकीका दर्शन करते वे सदा विचरण करते रहते हैं। वे नित्य अवधूत किसी गृहस्थके यहाँ उतनी देरसे अधिक कभी नहीं रुके, जितनी देरमें गाय दुही जाती है।

जब ऋषिके शापका समाचार महाराज परीक्षित्को मिला कि उन्हें सात दिन पश्चात् तक्षक काट लेगा और उससे उनका शरीरपात हो जायगा, तब वे अपने ज्येष्ठ पुत्र जनमेजयको राजतिलक करके स्वयं निर्जल व्रतका निश्चय कर गङ्गातटपर आ बैठे इस समाचारके फैलते ही दूर-दूरसे ऋषिगण महाभागवत परीक्षित्पर कृपा करने वहाँ पधारे। उसी समय कहाँसे घूमते हुए अकस्मात् शुकदेवजी भी वहाँ पहुँच गये। उन्हें उन्मत्त समझकर बालक घेरे हुए थे। शुकदेवजीको देखते ही सभी ऋषि उठ खड़े हुए। सबने उनका आदर किया। परीक्षित्ने उच्चासनपर बैठाकर उनका पूजन किया। परीक्षित्के पूछनेपर शुकदेवजीने सात दिनमें उन्हें पूरे श्रीमद्भागवतका उपदेश किया।


श्रीशुकदेवजी भागवताचार्य तो हैं ही, वे शाङ्कर अद्वैत सम्प्रदायके भी आद्याचार्योंमें हैं। अगले मन्वन्तरमें वे सप्तर्षियोंमें स्थान ग्रहण करेंगे। वे अवधूत व्रजेन्द्रसुन्दरको हृदयमें धारण किये, उनके स्मरण एवं गुणगानमें मत्त सदा विचरण ही किया करते हैं भगवत्कृपासे अनेक बार अधिकारी महापुरुषोंने उनका दर्शन प्राप्त किया है।



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aatmaaraamaashch munayo nirgrantha apyurukrame .

kurvantyahaitukeen bhaktimitthambhootaguno harih ..

(shreemadbhaa0 1.7.10)

'jo aatmaaraam, aaptakaam, maayaake samast bandhanonse mukt munigan hain, ve bhee bhagavaanmen nishkaam bhakti rakhate. hain, ve bhee bina kisee kaaranake hee bhagavaanse prem karate hain; kyonki bhagavaanke mangalamay divy gun hee aise hain.'

shreeshukadevajee saakshaat nandanandan shreekrishnachandr ke svaroop hee hain. bhagavaanke nity golokadhaamamen bhagavaan‌kee aahlaadinee paraashakti shreeraadhaajeeke ve leelaashuk hain aur bhagavaddhaam, vahaanke padaarth, vahaanke parikar paarshada- sab bhagavaanse nity abhinn un aanandaghanake svaroop hee hote hain. shukadevajee to svaroopase bhee nandanandanake samaan hee sada shodash varshakee avasthaamen rahanevaale, navaghana-sundar angakaantise yukt, kamal lochan, sarvaavayavamanohar hain
aur prabhaavase to ve aanandaroop hain hee. shreeshyaamasundar jab apanee leela is lokamen vyakt karaneke liye vrajamen padhaare, tab shreeraadhikaajeeke ve leelaashuk golokadhaamase uड़te-ghoomate bhagavaan shivake lokamen pahunche. vahaan shankarajee bhagavatee paarvateeko bhagavaan‌kee vah adbhut leela suna rahe the, jo shravanamaatrase praaneeko amaratv pradaan kar detee hai. paarvateejee katha - shravanamen talleen hokar aatmavismrit ho gayeen. katha ruke naheen, isaliye ve leelaashuk madhyamen hunkriti dete rahe. antamen bhagavaan shankarako jab jnaat hua ki ek paksheene yah katha sun lee hai, tab ve maarane dauda़e trishool lekara; kyonki paksheedeh us kathaako dhaaran karaneka adhikaaree naheen thaa. shuk vahaanse uड़e aur vyaasaashramamen aakar vyaasapatneeke mukhase unake udaramen pravisht ho gaye. bhagavaan shankar santusht hokar laut gaye. ab bhagavaan vyaasake putr hokar shuk us katha evan jnaanako dhaaran kiye rahen, isamen koee aapatti ho hee naheen sakatee thee.

shreeshukadevajeekee janmasambandhee vividh kathaaen vibhinn vibhinn puraanon evan itihaasa-granthonmen milatee hain. kalpabhedase ve sabhee saty hain. ek jagah aaya hai—inakee maata vatika evan pita baadaraayan shreevyaasajeene prithvee, jal, aakaash aur vaayuke samaan dhairyasheel evan tejasvee putr praapt karaneke liye bhagavaan gaureeshankarakee vihaarasthalee sumerushringapar atyant ghor tapasya kee . yadyapi bhagavaan shreekrishnadvaipaayanakee ichchha aur drishtimaatrase kaee mahaapurushonka janm ho sakata tha aur hua hai, tathaapi apane jnaan tatha sadaachaarake dhaaran karane yogy putrakee praaptike liye evan sansaaramen kis prakaarake putrakee srishti karanee chaahiye - yah baat bataaneke liye hee unhonne tapasya kee. inakee tapasyaase prasann ho bhagavaan shankarajeene tejasvee putrakee praaptika varadaan de inhen kritakrity kiyaa. samayapar garbhasthiti huee.

shukadevajee maataake garbhamen baarah varsh bane rahe. apanee yogashaktise ve itane chhote bane hue the ki maataako koee kasht naheen thaa. unhen garbhase baahar aaneke liye bhagavaan vyaas tatha doosare rishiyonne bhee aagrah kiyaa; par ve sada yahee kahate the ki 'jeev jabatak garbhamen rahata hai, usaka jnaan prakaashit rahata hai. bhagavaan‌ke prati usamen bhakti rahatee hai aur vishayonse vairaagy rahata hai; kintu garbhase baahar aate hee bhagavaan‌kee achintyashakti maaya use mohit kar detee hai. usaka samast jnaan vismrit ho jaata hai, vah maayaamohit hokar duhkharoop ghrinit sansaar evan usake vishayonmen aasakt ho jaata hai, aasaktivash naana apakarm karata hai aur phir janma-maranake chakrase usaka chhutakaara bahut hee kathin ho jaata hai. atah main garbhase baahar naheen aaoongaa.'

jab devarshi naaradajeeke dvaara bhagavaan shreekrishnachandraka yah aashvaasan praapt kar liya ki garbhase baahar aanepar bhee shreevyaasanandanako maaya sparsh naheen karegee, athava kaheen kaha gaya hai ki jab bhagavaan shreekrishnane svayan vahaan aakar darshan diya aur aashvaasan diya, tab shukadevajee maataake udarase baahar aaye janmate hee ye vanakee or chal pada़e. inaka naalochchhedana-sanskaar bhee naheen hua tha . itane sundar, sukumaar, jnaanee putrako is prakaar tatkaal virakt hokar vanamen jaate dekh bhagavaan vyaas vyaakul ho gaye. ve 'putra! putr !' pukaarate hue shukadevajeeke peechhe chalane lage. shukadevajeemen bhedabuddhika lesh naheen thaa. | sacharaachar jagat‌men unaka akhand ekaatmabhaav jaagarook thaa. unakee is ekaatmataaka itana prabhaav hua ki vrikshonse vaaniyaan phoot pada़een aur unakee orase vrikshonne vyaasajeekee pukaaraka uttar diyaa.

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bada़ee namrataase deviyonne kahaa- 'maharshe! aap hamen kshama karen. aap yah pahachaanate hain ki yah purush hai aur yah stree hai atah aapako dekhakar hamen laga karanee ho chaahiye. kintu aapake putramen to stree-purushaka bhaav hee naheen hai. ve to sabako ek hee dekhate hain. unake sammukh vastr pahane rahana ya n pahane rahana ek sa hee hai .

deviyonkee baat sunakar bhagavaan vyaas laut aaye. unhonne samajh liya ki aise samadarsheeke liye pita putraka sambandh koee arth naheen rakhataa. vah bulaanese naheen lautegaa. parantu vyaasajeeka sneh apaar thaa. vah baढ़ta hee jaata thaa. ve chaahate the ki shukadev unake sameep rahakar kuchh din shaastreey jnaan praapt karen brahmanishth to ve hain ho, shrotriy bhee ho jaayen. vyaasajee jaanate the ki aise aatmaaraam virakonko keval bhagavaan‌ka divyaroop evan mangalamay charit hee aakarshit karata hai. ataev | vyaasajeene apane shishyonko shreeshyaamasundarake param manohar svaroopakee jhaankeeka varnan karanevaala ek shlok * padha़aakar aadesh diya ki vanamen ve use baraabar madhur svarase gaan kiya karen. brahmachaareegan samidha, phal, pushp, kush lene vanamen jaate to vah shlok gaaya karate the. shukadevajeeke kaanonmen jab vah shlok pada़a, tab jaise mrig sundar raagapar mugdh hokar khincha chala aata hai, ve un brahmachaariyonke paas chale aaye aur us shlokako seekhaneka aagrah karane lage. brahmachaaree unhen vyaasajeeke paas le aaye aur vahaan poore shreemadbhaagavataka adhyayan kiya shukadevajeene .

guruke dvaara praapt jnaan hee uttam hota hai. phir jise lokamen aachaary hona hai, use shaastreey maryaadaaka poora paalan karana hee chaahiye. bhagavaan vyaasakee aajna sveekaar karake shukadevajee mithila gaye aur mithila pahunchakar jab ve raajamahalamen ghusane lage, tab dvaarapaalane unhen vaheen daantakar rok diyaa. ve nirvikaar shaantachittase vaheen khada़e rah gaye n unhen raastekee thakaavataka koee dhyaan tha, n bhookh pyaasaka aur n prachand ghaamaka . kuchh samay baad doosare ek dvaarapaalane aakar aadarake saath haath joda़ tatha vidhike anusaar pooja karake unhen mahalakee doosaree kakshaamen pahuncha diyaa. apamaan aur maanakee kuchh bhee smriti n rakhate hue ve vaheen baithakar aatmachintan karane lage. dhoopa-chhaanhaka unhen koee khayaal naheen thaa. ab teesaree pareeksha huee, unhen antahpurase sate hue 'pramadaavana' naamak sundar bageechemen pahuncha diya gaya aur pachaas khoob sajee huee ati sundaree navayuvatee vaaraanganaaen unakee sevaamen lag gayeen. ve baatacheet karane aur naachane-gaanemen nipun theen. mand musakaanake saath baaten karatee theen. ve vaaraanganaaen shreeshukadevajeekee pooja karake unhen nahala tatha khilaa-pilaakar bageechekee sair karaane le gayeen. us samay ve hansatee, gaatee tatha naana prakaarakee kreeda़aaen karatee jaatee theen. parantu shreeshukadevajeeka antahkaran sarvatha vishuddh thaa. ve sarvatha nirvikaar rahe. striyonkee sevaase n unhen harsh hua, n krodha. tadanantar unhen devataaonke baithane yogy divy ratnajada़it palangapar bahumooly bichhaune bichhaakar usapar shayan karaneke liye kaha gayaa. ve vaheen pavitr aasanase baithakar mokshatattvaka vichaar karate hue dhyaanasth ho gaye. raatrike madhyabhaagamen soye aur phir braahmamuhoortamen jag gaye tatha shauchaadise nivritt hokar punah dhyaanamagn ho gaye.

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jab rishike shaapaka samaachaar mahaaraaj pareekshitko mila ki unhen saat din pashchaat takshak kaat lega aur usase unaka shareerapaat ho jaayaga, tab ve apane jyeshth putr janamejayako raajatilak karake svayan nirjal vrataka nishchay kar gangaatatapar a baithe is samaachaarake phailate hee doora-doorase rishigan mahaabhaagavat pareekshitpar kripa karane vahaan padhaare. usee samay kahaanse ghoomate hue akasmaat shukadevajee bhee vahaan pahunch gaye. unhen unmatt samajhakar baalak ghere hue the. shukadevajeeko dekhate hee sabhee rishi uth khada़e hue. sabane unaka aadar kiyaa. pareekshitne uchchaasanapar baithaakar unaka poojan kiyaa. pareekshitke poochhanepar shukadevajeene saat dinamen unhen poore shreemadbhaagavataka upadesh kiyaa.


shreeshukadevajee bhaagavataachaary to hain hee, ve shaankar advait sampradaayake bhee aadyaachaaryonmen hain. agale manvantaramen ve saptarshiyonmen sthaan grahan karenge. ve avadhoot vrajendrasundarako hridayamen dhaaran kiye, unake smaran evan gunagaanamen matt sada vicharan hee kiya karate hain bhagavatkripaase anek baar adhikaaree mahaapurushonne unaka darshan praapt kiya hai.

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बुलावा आया आया आया,
मेरी शेरावाली माँ तेरी दुनिया दीवानी
पहाड़ावाली, मेहरावाली महिमा तेरी