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श्रीज्ञानेश्वर की मार्मिक कथा
श्रीज्ञानेश्वर की अधबुत कहानी - Full Story of श्रीज्ञानेश्वर (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [श्रीज्ञानेश्वर]- भक्तमाल


श्रीविट्ठलपंतके द्वितीय पुत्र, श्रीनिवृत्तिनाथके छोटे भाई श्रीज्ञानेश्वरका जन्म सं0 1332 वि0 भाद्रकृष्णाष्टमीकी मध्यरात्रिमें हुआ था। जब ये पाँच वर्षके थे, तभी इनके माता-पिता धर्म-मर्यादाकी रक्षाके लिये त्रिवेणीसङ्गममें अपने शरीरोंको छोड़कर इहलोकसे चले गये थे। श्रीज्ञानेश्वरसे छोटे सोपान उस समय चार वर्षके और सबसे छोटी बहन मुक्ताबाई तीन वर्षकी थी। इस तरह ये चारों बालक बचपनमें ही माता-पिताके बिना अनाथ हो गये थे। परंतु इनका चरित्र देखनेसे ऐसा मालूम होता है कि ये चारों भाई-बहिन इस प्रकार बाह्यतः अनाथोंकी-सी अवस्थामें ही नाथोंके नाथ सकललोकनाथका कार्य करनेके लिये आये हुए महान् आत्मा थे। ये मातृ पितृविहीन बालक कच्चा अन्न भिक्षामें माँगकर लाते और उससे अपना जीवननिर्वाह करते हुए सदा भगवद्भजन, भगवत्कथा-कीर्तन और भगवच्चर्चा में ही अपना समय व्यतीत करते थे। इनके सामने सबसे बड़ी कठिनाई इनके उपनयन संस्कार न होनेकी थी। उसके लिये आळन्दीके ब्राह्मण इन्हें संन्यासीके लड़के जानकर अनुकूल नहीं थे। परंतु इनके साधुजीवनका प्रभाव उनपर दिन-दिन अधिक पड़ रहा था और जब विट्ठलपंत तथा रुक्मिणीबाईने अलौकिकरूपसे अपना देहविसर्जन कर दिया, तब तो उन ब्राह्मणोंपर इनका और भी गहरा प्रभाव पड़ा। उनके हृदयमें इन बालकोंके प्रति सहानुभूति उत्पन्न हो गयी और उन्होंने इन्हें सलाह दी कि 'तुमलोग पैठण जाओ। वहाँके विद्वान् शास्त्रज्ञ यदितुम्हारे उपनयनकी व्यवस्था दे देंगे तो हमलोग भी उसे मान लेंगे।' अतः ये लोग पैदल यात्रा करके भगवन्नाम संकीर्तन करते हुए पैठण पहुँचे। वहाँ इनके लिये ब्राह्मणोंकी सभा हुई। परंतु सभामें यही निश्चय हुआ कि 'इन बालकोंकी शुद्धि और किसी तरह भी नहीं होसकती। केवल एक उपाय है और वह यही कि

विसृज्य स्मयमानान् स्वान् दृशं व्रीडां च लौकिकीम्।

प्रणमेद्दण्डवद् भूमावाश्वचाण्डालगोखरम् ॥

(श्रीमद्भागवत)

अर्थात् 'अपने ऊपर हँसनेवाले लोगोंको और देह दृष्टि तथा लोक-लाजको त्यागकर ये लोग कुत्ते, चाण्डाल और गौसमेत सबको भूमिपर लेटकर प्रणाम करें और इस प्रकारका भगवान्‌की अनन्य भक्ति करें।' इस निर्णयको सुनकर चारों भाई-बहिन सन्तुष्ट हो गये । निवृत्तिनाथने कहा-'ठीक है।' सोपान और मुक्ताने कहा - 'यह बड़े आनन्दकी बात है।' और ज्ञानेश्वर गम्भीरतापूर्वक बोले 'आपलोग जो कहें, स्वीकार है।' वहाँसे चारों भाई बहिन लौटनेको ही थे कि कुछ दुष्टोंने उनसे छेड़-छाड़ आरम्भ कर दी। ज्ञानदेवसे किसीने पूछा- 'तुम्हारा क्या नाम है?' उत्तर मिला 'ज्ञानदेव।' पास ही एक भैंसा था, उसकी ओर संकेत करके एक भले आदमीने इनको ताना मारा कि 'यहाँ तो यही ज्ञानदेव है, दिनभर बेचारा ज्ञानका ही तो बोझा ढोया करता है । कहिये, देवता! क्या आप भी ऐसे ही ज्ञानदेव हैं?' ज्ञानदेवने कहा-'हाँ, हाँ, इसमें सन्देह ही क्या है? यह तो मेरा ही आत्मा है,इसमें मुझमें कोई भेद नहीं।' यह सुनकर किसीने और श्री छेड़ करनेके लिये मैसेकी पीठपर सटासट दो साँटे लगा दिये और ज्ञानदेवसे पूछा कि 'ये साँटे तो तुम्हें जरूर लगे होंगे।' ज्ञानदेवने कहा- 'हाँ' और अपना बदन खोलकर दिखला दिया, उसपर साँटोंके चिह्न थे!' परंतु इसपर भी उन लोगोंकी आँखें नहीं खुली। एक सज्जन बोले- 'यह भैंसा यदि तुम्हारे जैसा ही है तो तुम जैसी ज्ञानको बातें कहते हो वैसी इससे भी कहलाओ।' ज्ञानदेवने भैंसेकी पीठपर हाथ रखा। हाथ रखते ही वह भैंसा ॐ का उच्चारण करके वेदमन्त्र बोलने लगा। यह चमत्कार देखकर पैठणके विद्वान् ब्राह्मण चकित — स्तम्भित हो गये। उन्होंने अब जाना कि ये साधारण मनुष्य नहीं, कोई महात्मा हैं। एक दिन एक ब्राह्मणके घर श्राद्धके अवसरपर ज्ञानेश्वरने ध्यान करके, 'आगन्तव्यम्' कहकर उसके पितरोंको सशरीर बुला लिया और उन्हें भोजन कराया। इस प्रकार इनकी अद्भुत सामर्थ्य देखकर पैठणके लोग इनपर मुग्ध हो गये और इनके पास आ आकर इनसे भगवन्नामकीर्तन और भगवत्कथा-श्रवण करने लगे। धर्मज्ञ ब्राह्मणोंने बड़ी नम्रताके साथ इन्हें शुद्धिपत्र लिखकर दे दिया। इसके पश्चात् कुछ कालतक चारों भाई-बहिन पैठण हो रहे यहाँ वे लोग पैठणमें गोदावरीमें स्नान करते, वेदान्तकी चर्चा करते, भगवन्नामसंकीर्तन करते, पुराणोंका पठन करते और पैठणवासियोंको भगवद्भक्तिका मार्ग दिखाते थे वहाँ रहते हुए ही आनेश्वरने श्रीमयांकराचार्या भाष्य श्रीमद्भागवत योगवासिष्ठ आदि ग्रन्थ देख डाले और आगे जो ग्रन्थ लिखे, उनकी भूमिका भी वहीं तैयार कर ली। इस प्रकार कुछ कालतक पैठणवासियोंको अपना अपूर्व सत्सङ्ग लाभ कराकर श्रीज्ञानेश्वरादिने ब्राह्मणोंका दिया हुआ यह शुद्धिपत्र लेकर आलें नामक स्थानसे होते हुए नेवासें पहुँचे।

इसी नेवासे ज्ञानेश्वर महाराजने गीतका ज्ञानेश्वरी-1 भाष्य कहा, जिसे सच्चिदानन्दजीने लिखा। नेवासेंसे कुछ कालके लिये श्रीज्ञानेश्वरादि आळन्दी चले गये, वहाँके 3 लोगोंने इस बार उनका बड़े आदर और प्रेमके साथ स्वागत किया। फिर जब ज्ञानेश्वर महाराज अपने भाई बहिनकि सहित नेवासे लौट आये तब उन्होंने सद्गुरुश्रीनिवृत्तिनाथके सामने गीताका स्वानुभूत भाष्य कहना आरम्भ किया। उस समयतक श्रीनिवृत्तिनाथ सत्रह वर्षके, श्रीज्ञानेश्वर पंद्रह वर्षके, सोपानदेव तेरह वर्षके और मुक्ताबाई ग्यारह वर्षकी हो चुकी थीं। ज्ञानेश्वर महाराजने अपने इस बालजीवनमें जो-जो चमत्कार दिखलाये, उनमें सबसे बढ़कर चमत्कार तो यह 'ज्ञानेश्वरी' ग्रन्थ ही है, जिसे उन्होंने केवल पंद्रह वर्षकी अवस्थामें लिखाया था। संवत् 1347 वि0 में यह 'ज्ञानेश्वरी' ग्रन्थ पूर्ण हुआ था।

इसके बाद श्रीज्ञानेश्वरने तीर्थयात्रा आरम्भ की। यात्रामें गुरु निवृत्तिनाथ, सोपानदेव, मुक्ताबाई भी साथ थे। कहते हैं कि इस यात्रामें विसोबा खेचर, गोरा कुम्हार, चौखा मेळा, नरहरि सुनार आदि अन्य अनेक संत भी साथ हो लिये थे। सबसे पहले श्रीज्ञानेश्वर महाराज पण्डरपुर गये, जहाँ उन्हें श्रीभगवान्‌ के दर्शन हुए तथा परम विठ्ठलभक श्रीनामदेवसे भेंट हुई। तत्पश्चात् श्रीनामदेवजीको भी साथ लेकर श्रीज्ञानेश्वर महाराजने अनेक स्थानोंमें अपने ज्ञानोपदेशद्वारा असंख्य मनुष्योंका उद्धार करते हुए उज्जैन, प्रयाग, काशी, गया, अयोध्या, गोकुल, वृन्दावन, द्वारका, गिरनार आदि तीर्थस्थानोंका परिभ्रमण किया और तदनन्तर वे सब संतोंके साथ पण्ढरपुर लौट आये। पैठण आदि स्थानों में श्रीज्ञानेश्वर महाराजने जो अद्भुत अद्भुत चमत्कार दिखलाये, उनके कारण इन चारों भाई-बहिनका यश सर्वत्र फैल गया और सब दिशाओंसे आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी - सब प्रकारके भगवद्भक्त एवं योगी, यति, साधक आदि इनके दर्शनोंके लिये आने लगे।

कुल इक्कीस वर्ष, तीन मास, पाँच दिनकी अल्पावस्था में अर्थात् संवत् 1353] [वि0 मार्गशीर्ष कृष्णा 13 को श्रीज्ञानेश्वर महाराजने जीवित-समाधि ले ली। और उनके समाधि लेनेके बाद एक वर्षके भीतर ही सोपानदेव, चांगदेव, मुक्ताबाई और निवृत्तिनाथ भी एक-एक करके इस लोकसे परमधामको पधार गये। श्रीज्ञानेश्वर महाराजके से चार ग्रन्थ बहुत प्रसिद्ध है- भावार्थदीपिका अर्थात् ज्ञानेश्वरी, अमृतानुभव, हरिपाठके अभंग तथा चांगदेव पासठी (पैंसठी)। इनके अतिरिक्त उन्होंने योगवासिष्ठपर एक अभंगवृत्तकी टीका भी लिखी थी, पर अभीतक वह उपलब्ध नहीं हुई।



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isake baad shreejnaaneshvarane teerthayaatra aarambh kee. yaatraamen guru nivrittinaath, sopaanadev, muktaabaaee bhee saath the. kahate hain ki is yaatraamen visoba khechar, gora kumhaar, chaukha mela, narahari sunaar aadi any anek sant bhee saath ho liye the. sabase pahale shreejnaaneshvar mahaaraaj pandarapur gaye, jahaan unhen shreebhagavaan‌ ke darshan hue tatha param viththalabhak shreenaamadevase bhent huee. tatpashchaat shreenaamadevajeeko bhee saath lekar shreejnaaneshvar mahaaraajane anek sthaanonmen apane jnaanopadeshadvaara asankhy manushyonka uddhaar karate hue ujjain, prayaag, kaashee, gaya, ayodhya, gokul, vrindaavan, dvaaraka, giranaar aadi teerthasthaanonka paribhraman kiya aur tadanantar ve sab santonke saath pandharapur laut aaye. paithan aadi sthaanon men shreejnaaneshvar mahaaraajane jo adbhut adbhut chamatkaar dikhalaaye, unake kaaran in chaaron bhaaee-bahinaka yash sarvatr phail gaya aur sab dishaaonse aart, jijnaasu, arthaarthee tatha jnaanee - sab prakaarake bhagavadbhakt evan yogee, yati, saadhak aadi inake darshanonke liye aane lage.

kul ikkees varsh, teen maas, paanch dinakee alpaavastha men arthaat sanvat 1353] [vi0 maargasheersh krishna 13 ko shreejnaaneshvar mahaaraajane jeevita-samaadhi le lee. aur unake samaadhi leneke baad ek varshake bheetar hee sopaanadev, chaangadev, muktaabaaee aur nivrittinaath bhee eka-ek karake is lokase paramadhaamako padhaar gaye. shreejnaaneshvar mahaaraajake se chaar granth bahut prasiddh hai- bhaavaarthadeepika arthaat jnaaneshvaree, amritaanubhav, haripaathake abhang tatha chaangadev paasathee (painsathee). inake atirikt unhonne yogavaasishthapar ek abhangavrittakee teeka bhee likhee thee, par abheetak vah upalabdh naheen huee.

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