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सती देवहूति की मार्मिक कथा
सती देवहूति की अधबुत कहानी - Full Story of सती देवहूति (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [सती देवहूति]- भक्तमाल


देवहूति ब्रह्मावर्तदेशके अधिपति एवं बर्हिष्मतीपुरीके निवासी महाराज स्वायम्भुव मनुकी पुत्री थीं। इनकी माताका नाम शतरूपा था ये महर्षि कर्दमको ब्याही गयी थीं और इन्होंके गर्भसे सिद्धोंके स्वामी भगवान् कपिलका प्रादुर्भाव हुआ था ये बचपनसे ही बड़ी सद्गुणवती थीं। रूप और लावण्यमें तो इनकी समानता करनेवाली उस समय कोई दूसरी स्त्री थी ही नहीं देवहूति भारतवर्षके सम्राट्को लादिली कन्या होकर भी राजवैभवके प्रति आसक्त नहीं थीं। इनके मनमें धर्मके प्रति स्वाभाविक अनुराग था । त्याग और तपस्याका जीवन इन्हें अधिक प्रिय था। ये चाहती तो देवता, गन्धर्व, नाग, यक्ष तथा मनुष्योंमें किसी भी ऐश्वर्यशाली वरके साथ विवाह कर सकती थीं, किंतु इन्हें अच्छी तरह ज्ञात था कि 'यह जीवन भोगविलासके लिये नहीं मिला है। मानव भोगों स्वर्गका भोग उत्कृष्ट बताया जाता है; किंतु वह भी चिरस्थायी नहीं है, अन्तमें दुःख ही देनेवाला है। जीवनका उद्देश्य है- आत्माका कल्याण, इसे ममता और आसक्तिके बन्धनोंसे मुक्त करके भगवान्‌से मिलाना। जिसने मनुष्यका शरीर पाकर इस उद्देश्यको सिद्धि नहीं की, उसने अपने ही हाथों अपना विनाश कर लिया। जिसने इस मोक्ष-साधक शरीरको विषयभोगोंमें ही लगा रखा है, वह अमृत देकर विषका संग्रह कर रहा है।' इन्हीं उच्च विचारोंके कारण देवहूति किसी राजाको नहीं, तपस्वी मुनिको ही अपना पति बनाना चाहती थीं।

देवर्षि नारदजीकी सम्मतिसे महाराज मनु महारानी शतरूपा तथा पुत्री देवहूतिको साथ लेकर महर्षि कर्दमके आश्रमपर गये और वहाँ जाकर मनुजीने उनको प्रणाम किया। रानी और कन्याने भी मस्तक झुकाया। कर्दमजीने आशीर्वाद दे राजाका यथोचित सामग्रीसे विधिवत् सत्कार किया तथा उनके राजोचित गुणोंकी प्रशंसा करते हुए आश्रमपर पधारनेका कारण पूछा। मनुजीने कहा-'ब्रह्मन् ! मेरा बड़ा भाग्य है जो आज मुझे आपके दर्शन मिले और मैं आपके चरणोंकी मङ्गलमयी धूल मस्तकपर चढ़ा सका। आपलोगोंकी कृपा सदा ही मुझपर रही है औरइस समय भी उस कृपाका में पूर्णरूपले अनुभव कर रहा हूँ। जिस उद्देश्यको लेकर आज मैंने आपका दर्शन किया है, वह बतलाता हूँ, सुनिये। यह मेरी कन्या, जो प्रियव्रत और उत्तानपादकी बहन है, अवस्था, शील और गुण आदिमें अपने योग्य पति प्राप्त करनेकी इच्छा रखती हैं। इसने देव नारदजीके मुखसे आपके शील, रूप, विद्य आयु और उत्तम गुणोंका वर्णन सुना है और सभी आपको ही अपना पति बनानेका निश्चय कर चुकी है। मैं बड़ी श्रद्धासे अपनी यह कन्या आपकी सेवामें समर्पित करता हूँ। आप इसे स्वीकार करें।'

कमको भगवान्को आज्ञा मिल चुकी थी अतः उन्होंने महाराज मनुके वचनोंका अभिनन्दन किया तथा कुमारी देवहूतिके रूप और गुणोंकी प्रशंसा करते हुए उनके साथ विवाह करनेकी स्वीकृति दे दी। इतनी शर्त अवश्य लगा दी कि 'सन्तानोत्पत्तिकालतक ही मैं गृहस्थ-आपमें रहूंगा, इसके बाद संन्यास लेकर भगवान्के भजनमें ही शेष जीवन बिताऊँगा।' मनुजीने देखा - इस सम्बन्धमें महारानी शतरूपा तथा राजकुमारीको भी स्पष्ट अनुमति है। अतः उन्होंने कर्दमजीके साथ अपनी गुणवती कन्याका विवाह कर दिया। महारानी शतरूपाने भी बेटी और जामाताको बड़े प्रेमपूर्वक बहुत-से बहुमूल्य वस्त्र, आभूषण और गृहस्थोचित पात्र आदि दहेज में दिये।

देवहूति तन, मन, प्राणसे प्रेमपूर्वक पतिकी सेवा करने लगीं। उन्होंने कामवासना, कपट, द्वेष, लोभ और मद आदि दोषोंको कभी अपने मनमें नहीं आने दिया। विश्वास, पवित्रता, उदारता, संयम, शुश्रूषा, प्रेम और मधुर भाषण आदि सद्गुण उनके हृदयमें स्वभावतः बढ़ते रहे। इन्हीं सद्गुणोंके द्वारा देवहूतिने अपने परभ तेजस्वी पतिको पूर्णतः सन्तुष्ट कर लिया। निरन्तर कठोर व्रत आदिका पालन करते रहनेसे उनका शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था। वे पतिको परमेश्वर मानतों और उन्हें सर्वथा प्रसन्न रखना ही अपना परम धर्म समझती थीं। इस प्रकार पतिकी सेवा करते-करते उन्हेंकितने ही वर्ष बीत गये।

एक दिन देवहूतिकी सेवा, तपस्या और आराधनापर विचार करके तथा निरन्तर व्रत आदिके पालनसे उन्हें दुर्बल हुई देखकर महर्षि कर्दमको दयावश कुछ खेद हुआ और वे प्रेमपूर्ण गद्दवाणी में कहने लगे—' देवि ! तुमने मेरी बड़ी सेवा की है, सभी देहधारियोंको अपना शरीर बहुत प्रिय होता है; किंतु तुमने मेरी सेवाके आगे उसके क्षीण होनेकी कोई चिन्ता नहीं की। अतः मैंने भगवान् की कृपासे तप, समाधि, उपासना और योगके द्वारा जो भय और शोकसे रहित विभूतियाँ प्राप्त की हैं, उनपर मेरी सेवाके प्रभावसे अब तुम्हारा अधिकार हो गया है। मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूँ, उसके द्वारा तुम उन्हें देखो। पातिव्रत्य धर्मका पालन करनेके कारण तुम्हें सभी प्रकारके दिव्य भोग सुलभ हैं, तुम इच्छानुसार उनका उपभोग कर सकती हो।' इसपर देवहूतिने सन्तानविषयक अभिलाषा प्रकट की। कर्दमजीने अपनी प्रियाकी इच्छा पूर्ण करनेका निश्चय किया। उनके संकल्पमात्रसे एक अत्यन्त सुन्दर विमान प्रकट हो गया, जो इच्छानुसार सर्वत्र आ-जा सकता था।

प्रतिके साथ दिव्य विमानपर बैठकर सहस्रों दासियोंसे सेवित हो उन्होंने अनेक वर्षोंतक इच्छानुसार विहार किया। कुछ कालके पश्चात् देवहूतिके गर्भ से नौ कन्याएँ उत्पन्न हुई, जो अद्वितीय सुन्दरी थीं। उनके अभी कमलकी सुगन्ध निकलती थी। कन्याओंके जन्मके पक्षात् अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण हो जानेसे कर्दम ऋषिनमें जानेको उद्यत हो गये। उन्हें संन्यासके लिये जाते देख देवहूतिने उमड़ते हुए आँसुओंको किसी प्रकार रोका और विनययुक्त वचनोंमें कहा भगवन्। आपकी प्रतिज्ञा तो अब पूरी हो गयी, अतः आपका यह वनकी ओर प्रस्थान करना आपके स्वरूपके अनुरूप ही है; तथापि मैं आपकी शरण में हूँ, अतः मेरी दो-एक विनय और सुन लीजिये। इन कन्याओंको योग्य वरके हाथमें सौंप देना पिताका ही कार्य है, अतः यह आपको ही करना पड़ेगा। साथ ही, जब आप वनको चले जायें, उस समय मेरे जन्म-मरणरूप शोक और बन्धनको दूर करनेवाला भी कोई यहाँ होना चाहिये। प्रभो! अबतक भगवान्‌कीसेवासे विमुख रहकर मेरा जो जीवन इन्द्रिय-सुख भोगनेमें बीता है, वह तो व्यर्थ ही गया। आपके प्रभावको न जाननेके कारण ही मैंने विषयासक्त रहकर आपसे अनुराग किया है, तो भी यह मेरे संसारबन्धनको दूर करनेवाला ही होना चाहिये क्योंकि साधुपुरुषोंका सङ्ग सर्वथा कल्याण करनेवाला ही होता है। निश्चय ही, भगवान्‌की मायाद्वारा में ठगी गयी, तभी तो आप जैसे मुक्तिदाता पतिको पाकर भी मैं संसारबन्धनसे छूटनेका कोई उपाय न कर सको।'

देवहूतिके ये वैराग्ययुक्त वचन सुनकर कर्दमजी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने पत्नीको सान्त्वना देते हुए कहा- 'प्रिये! तुम मनमें दुःखी न होओ, कुछ ही दिनों में साक्षात् भगवान् तुम्हारे गर्भसे प्रकट होंगे। अब तुम संयम, नियम, तप और दान आदिका अनुष्ठान करती हुई श्रद्धा और भक्तिके साथ भगवान्की आराधना करो।' पतिकी इस आज्ञाके अनुसार देवहूति पूर्ण श्रद्धा और अटल विश्वासके साथ भगवान्के भजनमें लग गर्यो । समयानुसार देवहूतिके गर्भ में भगवान्‌का अंश प्रकट हुआ। इसी बीचमें ब्रह्माजी नौ प्रजापतियोंके साथ वहाँ आये। उनके आदेशसे कर्दमजीने अपनी नौ कन्याओंका विवाह नौ प्रजापतियोंके साथ कर दिया। कला मरीचिको, अनसूया अत्रिको, श्रद्धा अङ्गिराको, हविर्भू पुलस्त्यको, गति पुलहको, क्रिया क्रतुको, ख्याति भृगुको और अरुन्धती वसिष्ठ मुनिको तथा शान्ति अथर्वाको व्याही गयी।

तदनन्तर शुभमुहूर्त देवहूतिके गर्भ भगवान् कपिलने अवतार ग्रहण किया और अपने पिता कर्दमको उपदेश दिया। तत्पश्चात् वे विरक्त होकर जंगलमें चले गये और सर्वत्र सर्वात्मभूत भगवान्का अनुभव करके उन्होंने परम पद प्राप्त कर लिया। देवहूतिने भी विषयोंकी असारताका अनुभव कर लिया था। उनकी दुःखरूपता और असत्यताकी बात उनके मन बैठ गयी थी। भगवान् कपिलसे उन्होंने अपने उद्धारके लिये प्रार्थना की। भगवान्ने उन्हें योग, ज्ञान और भक्तिके उपदेश दिये। अपना अभिमत सांख्यमत माताको स्पष्टरूपसे बतलाया। उनका उपदेश श्रीमद्भागवत तृतीय स्कन्धके पचीसवें अध्यायसे आरम्भ होकर बत्तीसवें अध्यायमें पूर्ण होता है। आत्मकल्याणकी इच्छा रखनेवालेपुरुषोंको उसका अध्ययन अवश्य करना चाहिये। भगवान्‌के उपदेशसे देवहूतिका मोहरूप आवरण हट गया, अज्ञान दूर हो गया। वे कृतकृत्य होकर भगवान् कपिलकी स्तुति करने लगीं। स्तुति पूर्ण होनेपर कपिलदेवजी माताकी आज्ञा ले वनमें चले गये और देवहूति वहीं आश्रमपर रहकर भगवान्‌का ध्यान करने लगीं। भगवान्‌के अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु अब उनके मनमें नहीं आती थी। वे भगवान्में इतनी तन्मय हो गयीं कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुध नहीं रह गयी। उस समय उनके शरीरका पालन-पोषण केवल दासियोंके ही प्रयत्नसे होता था। शरीरपर धूल पड़ी रहती, फिर भी उसका तेज कम नहीं होता था। वे धूमसे आच्छादित अग्निकी भाँति तेजोमयीदिखायी देती थीं। बाल खुले रहते, वस्त्र भी गिर जाता फिर भी उनको इसका पता नहीं चलता था। निरन्तर श्रीभगवान्में चित्तवृत्ति लगी रहनेके कारण और किसी बातका उन्हें भान ही नहीं होता था। कपिलदेवजीके बताये हुए मार्गका आश्रय लेकर थोड़े ही समयमें उन्होंने नित्यमुक्त परमात्मस्वरूप श्रीभगवान्‌को प्राप्त कर लिया। उन्हींके परमानन्दमय स्वरूपमें स्थित हो गयीं। जिस स्थानपर देवहूतिको सिद्धि प्राप्त हुई थी, वह आज भी सिद्धिपदके नामसे सरस्वतीके तटपर स्थित है। देवहूतिका शरीर सब प्रकारके दोषोंसे रहित एवं परम विशुद्ध बन गया था; वह एक नदीके रूपमें परिणत हो गया, जो सिद्धगणोंसे सेवित तथा सब प्रकारकी सिद्धि देनेवाली है।



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