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सदन कसाई की मार्मिक कथा
सदन कसाई की अधबुत कहानी - Full Story of सदन कसाई (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [सदन कसाई]- भक्तमाल


जाति पाँति पूछे नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई ।।

प्राचीन समयमें सदन नामक कसाई जातिके एक भक्त हो गये हैं। बचपनसे भगवन्नाम-जप और हरिकीर्तन इन्हें प्रिय था। भगवान्का नाम तो इनकी जीभपर सदा ही नाचता रहता था। यद्यपि ये जातिसे कसाई थे, फिर भी इनका हृदय दयासे पूर्ण था। जीव-वधके नामसे ही इनका शरीर काँपने लगता था। आजीविकाके लिये और कोई उपाय न होनेसे दूसरोंके यहाँसे मांस लाकर बेचा करते थे, स्वयं अपने हाथसे पशु वध नहीं करते थे। इस काममें भी इनका मन लगता नहीं था, पर मन मारकर जाति-व्यवसाय होनेसे करते थे। सदा नाम-जप, भगवान्के गुणगान और लीलामय पुरुषोत्तमके चिन्तनमें लगे रहते थे। सदनका मन श्रीहरिके चरणोंमें रम गया था। रात दिन वे केवल 'हरि-हरि' करते रहते थे।

भगवान् अपने भक्त से दूर नहीं रहा करते। भक्तको जैसे उनके बिना चैन नहीं, वैसे ही उन्हें भी भक्तके बिना चैन नहीं। सदनके घरमें भगवान् शालग्रामरूपसे विराजमान थे। सदनको इसका पता नहीं था। वे तो शालग्रामको पत्थरका एक बाट समझते थे और उनसे मांस तौला करते थे। एक दिन एक साधु सदनकी दूकानके सामनेसे जा रहे थे। दृष्टि पड़ते ही वे शालग्रामजीको पहचान गये। मांस विक्रेता कसाईके यहाँ अपवित्र स्थलमें शालग्रामजीको देखकर साधुको बड़ा क्लेश हुआ। सदनसे माँगकर वे शालग्रामको ले गये। सदनने भी प्रसन्नतापूर्वक साधुको अपना वह चमकीला बाट दे दिया।

साधु बाबा कुटियापर पहुंचे। उन्होंने विधिपूर्वक शालग्रामजीकी पूजा की; परंतु भगवान्‌को न तो पदार्थोंकी अपेक्षा है न मन्त्र या विधिकी। वे तो प्रेमके भूखे हैं, प्रेमसे रोझते हैं। रातमें उन साधुको स्वप्रमें भगवान्ने कहा- 'तुम मुझे यहाँ क्यों ले आये? मुझे तो अपने भक्त सदनके घरमें ही बड़ा सुख मिलता था। जब वह मांस तौलनेके लिये मुझे उठाता था, तब उसके शीतल स्पर्शसे मुझे अत्यन्त आनन्द मिलता था। जब वह ग्राहकोंसे बातें करता था, तब मुझे उसके शब्द बड़े मधुर स्तोत्र जानपड़ते थे। जब वह मेरा नाम लेकर कीर्तन करता, नाचने लगता था, तब आनन्दके मारे मेरा रोम-रोम पुलकित हो जाता था। तुम मुझे वहीं पहुँचा दो। मुझे सदनके बिना एक क्षण कल नहीं पड़ती।'

साधु महाराज जगे। उन्होंने शालग्रामजीको उठाया और सदनके घर जाकर उसे दे आये। साथ ही उसको भगवत्कृपाका महत्त्व भी बता आये। सदनको जब पता लगा कि उनका यह बटखरा तो भगवान् शालग्राम हैं, तब उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वे मन-ही-मन कहने लगे' देखो, मैं कितना बड़ा पापी हूँ। मैंने भगवान्‌को निरादरपूर्वक अपवित्र मांसके तराजूका बाट बना रखा। प्रभो! अब मुझे क्षमा करो।' अब सदनको अपने व्यवसायसे घृणा हो गयी। वे शालग्रामजीको लेकर पुरुषोत्तमक्षेत्र श्रीजगन्नाथपुरीको चल पड़े।

मार्ग में सन्ध्या समय सदनजी एक गाँवमें एक गृहस्थके घर ठहरे। उस घरमें स्त्री-पुरुष दो ही व्यक्ति थे। स्त्रीका आचरण अच्छा नहीं था। वह अपने घर ठहरे हुए इस स्वस्थ, सुन्दर, सबल पुरुषपर मोहित हो गयी। आधी रातके समय सदनजीके पास आकर वह अनेक प्रकारकी अशिष्ट चेष्टाएँ करने लगी। सदनजी तो भगवान्के परम भक्त थे। उनपर कामको कोई चेष्टा सफल न हुई। वे उठकर, हाथ जोड़कर बोले—'तुम तो मेरी माता हो। अपने बच्चेकी परीक्षा मत लो, मा! मुझे तुम आशीर्वाद दो ।'

भगवान्‌के सच्चे भक्त पर स्त्रीको माता ही देखते हैं। स्त्रीका मोहक रूप उनको भ्रममें नहीं डालता। वे हड्डी, मांस, चमड़ा, मल-मूत्र, थूक पीवको पुतलीको सुन्दर माननेकी मूर्खता कर ही नहीं सकते; परंतु जो कामके वश हो जाता है, उसकी बुद्धि मारी जाती है। वह न सोच-समझ पाता, न कुछ देख पाता। वह निर्लज्ज और निर्दय हो जाता है। उस कामातुरा स्त्रीने समझा कि मेरे पतिके भयसे ही यह मेरी बात नहीं मानता। वह गयी और तलवार लेकर सोते हुए अपने पतिका सिर उसने काट दिया। कामान्ध कौन-सा पाप नहीं कर सकता। अब वह कहने लगी- प्यारे। अब डरो मत। मैंने अपनेखूसट दूर पतिका सिर काट डाला है। हमारे सुखका कण्टक हो गया। अब तुम मुझे स्वीकार करो।'

सदन भयसे काँप उठे। स्त्रीने अनुनय-विनय करके जब देख लिया कि उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं हो सकती, तब द्वारपर आकर छाती पीट-पीटकर रोने लगी। लोग उसका रुदन सुनकर एकत्र हो गये। उसने कहा- 'इस यात्रीने मेरे पतिको मार डाला है और यह मेरे साथ बलात्कार करना चाहता था।' लोगोंने सदनको खूब भला-बुरा कहा, कुछने मारा भी; पर सदनने कोई सफाई नहीं दी। मामला न्यायाधीशके पास गया। सदन तो अपने प्रभुकी लीला देखते हुए अन्ततक चुप ही बने रहे। अपराध सिद्ध हो गया। न्यायाधीशकी आज्ञासे उनके दोनों हाथ काट लिये गये।

सदनके हाथ कट गये, रुधिरकी धारा चलने लगी; उन्होंने इसे अपने प्रभुकी कृपा ही माना। उनके मनमें भगवान्के प्रति तनिक भी रोष नहीं आया। भगवान्‌के सच्चे भक्त इस प्रकार निरपराध कष्ट पानेपर भी अपने स्वामीकी दया ही मानते हैं। भगवन्नामका कीर्तन करते हुए सदन जगन्नाथपुरीको चल पड़े। उधर पुरीमें प्रभुने पुजारीको स्वप्नमें आदेश दिया- 'मेरा भक्त सदन मेरे पास आ रहा है। उसके हाथ कट गये हैं। पालकी लेकर जाओ और उसे आदरपूर्वक ले आओ।' पुजारी पालकीलिवाकर गये और आग्रहपूर्वक सदनको उसमें बैठाकर ले आये।

सदनने जैसे ही श्रीजगन्नाथजीको दण्डवत् करके कीर्तनके लिये भुजाएँ उठायीं, उनके दोनों हाथ पूर्ववत् ठीक हो गये। प्रभुकी कृपासे हाथ ठीक तो हुए, पर मनमें शङ्का बनी ही रही कि वे क्यों काटे गये। भगवान् के राज्यमें कोई निरपराध तो दण्ड पाता नहीं। रात में स्वप्रमें भगवान्ने सदनजीको बताया- 'तुम पूर्वजन्ममें काशी में सदाचारी विद्वान् ब्राह्मण थे। एक दिन एक गाय कसाईके घेरेसे भागी जाती थी। उसने तुम्हें पुकारा। तुमने कसाईको जानते हुए भी गायके गलेमें दोनों हाथ डालकर उसे भागनेसे रोक लिया। वही गाय वह स्त्री थी और कसाई उसका पति था। पूर्वजन्मका बदला लेनेके लिये उसने उसका गला काटा। तुमने भयातुरा | गायको दोनों हाथोंसे पकड़कर कसाईको सौंपा था, इस पापसे तुम्हारे हाथ काटे गये। इस दण्डसे तुम्हारे पापका नाश हो गया।"

सदनने भगवान्की असीम कृपाका परिचय पाया। वे भगवत्प्रेममें विह्वल हो गये। बहुत कालतक नाम कीर्तन, गुण-गान तथा भगवान्‌के ध्यानमें तल्लीन रहते हुए उन्होंने पुरुषोत्तमक्षेत्रमें निवास किया और अन्तमें श्रीजगन्नाथजीके चरणोंमें देह त्यागकर वे परमधाम पधारे।



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jaati paanti poochhe nahin koee. hari ko bhajai so hari ka hoee ..

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sadanane bhagavaankee aseem kripaaka parichay paayaa. ve bhagavatpremamen vihval ho gaye. bahut kaalatak naam keertan, guna-gaan tatha bhagavaan‌ke dhyaanamen talleen rahate hue unhonne purushottamakshetramen nivaas kiya aur antamen shreejagannaathajeeke charanonmen deh tyaagakar ve paramadhaam padhaare.

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