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निरक्षर श्रद्धालु भक्तपर श्रीमद्भगवद्गीताकी कृपा

.(योगदर्शन २।४४) अर्थात् स्वाध्यायसे इष्टदेवताका साक्षात्कार होता है। यहाँ स्वाध्यायका अर्थ है-मन्त्र जप, लेकिन एक अच्छे सन्तने अपने सहज ढंगसे स्वाध्यायकी जो व्याख्या की, वह भी भूलनेयोग्य नहीं है। वे कहते थे 'स्वाध्यायका अर्थ है 'स्व' अपना अध्याय अर्थात् वह ग्रन्थ या मन्त्र, जिसे तुमने अपनाया है, वह तुम्हारे अपने जीवनका एक अंग - अध्याय हो जाय।'

पाठ करनेसे एक विशेष प्रकारकी शक्ति प्राप्त होती है। जैसे स्नान करनेसे शरीर स्वच्छ होता है और स्फूर्ति आती है, वैसे ही नित्यपाठ आन्तरिक स्नान है। इससे अन्तःकरणकी शुद्धि होती है और मानसिक प्रेरणा मिलती है साधनके लिये।

आप गीता, भागवत या श्रीरामचरितमानसका कोई श्लोक अथवा चौपाई कण्ठ कर लें, जो आपको बहुत साधारण लगे और मन-ही-मन उसे बार-बार दुहराते रहें। धैर्यपूर्वक दो-चार दिन उसको दुहरायें। ऐसा करनेसे अचानक किसी समय आपको उसका ऐसा अर्थ सूझेगा, जो स्वयं आपको चकित कर देगा। यह उसके उस अर्थपर पड़ा आवरण उसके बार-बार पाठ करनेसे दूर हुआ। इसी प्रकार अन्तःकरणमें ही स्थित परमात्मतत्त्वपर जो आवरण है, वह पाठ करते रहनेसे दूर होता है या शिथिल पड़ता है।

पाठ करना तो फिर भी बड़ी बात है, पाठ करनेका संकल्प और उसकी चेष्टा भी चमत्कार उत्पन्न करती है, यह मैंने देखा है।

वाराणसी जिलेमें एक गाँव है महुअर । जब देशका स्वाधीनता आन्दोलन चल रहा था, तब उस गाँवके एक क्षत्रिय युवक सत्याग्रह आन्दोलनमें मेरे साथी थे। नामतो उनका जयनाथसिंह था, किंतु सब उन्हें जैनूसिंह कहते थे। उनके सगे भाई देवनाथसिंह, जिन्हें देऊसिंह कहा जाता था, मुझसे सम्भवतः सन् १९३८ ई० में मिले। वे सत्याग्रह आन्दोलनमें तो सम्मिलित नहीं हुए, थे, किंतु मुझे जानते थे।

मैं सन् १९३६ ई० से ही वाराणसीसे दूर हो गया था और सन् १९३७ ई० से मेरठसे निकलनेवाले मासिक पत्र 'संकीर्तन' का सम्पादन करने लगा था। उस समय मैं मेरठसे अपनी जन्मभूमिके क्षेत्रमें बहुत थोड़े दिनोंको आया था।

एक दिन देवनाथसिंह आये और मेरे समीप कुछ समयतक बैठे रहे, फिर एकान्त मिलनेपर बोले-'मेरी इच्छा गीता-पाठ करनेकी होती है। अब इस आयुर्वे गाँवके किसी व्यक्तिसे अक्षर पढ़ने बैठनेमें लज्जा आती है। कोई उपाय बतलाइये। '

वे जमींदार थे। उन दिनों सम्पन्न ग्रामीण किसान जमींदार अपने या अपने पुत्रोंके लिये पढ़ना-पढ़ाना अनावश्यक मानते थे। कह देते थे-'लड़केको पढ़ाकर क्या करना है। उसे कोई नौकरी करनी है ?'

मैं जानता था कि जयनाथसिंह, जो मेरे कांग्रेस आन्दोलनके साथी थे, उन्होंने भी कांग्रेस आन्दोलनमें आनेके पश्चात् अक्षरज्ञान सीखा और धीरे-धीरे हिन्दीकी पुस्तकें पढ़ने लगे थे। उनके भाई देवनाथसिंह भी निरक्षर ही थे।

किसी भी आयुमें पढ़ने लगना कोई लज्जाकी बात नहीं है, यह भले सत्य है, किंतु ३०-३५ वर्षके ग्रामीण युवकको यह तथ्य समझा देना मुझे सरल नहीं लगा और जिसे वर्णमालाकी पहचान भी न हो, उसे गीता-पाठ करनेकी भला कौन-सी युक्ति मैं बतला देता।यह तो अब मैं जानता हूँ कि बाबा नन्दजीने भी अपने लालाको पढ़ाया नहीं, छोटेपनमें ही गोचारणमें लगा दिया, किंतु यह नन्हा अनपढ़ गोपाल, जिसे चाहे उसे सहज महापण्डित बना देता है।

उस समय मैंने देऊ (देवनाथसिंह) को समझा दिया - गीता भगवान्की वाणी होनेसे भगवान्‌का स्वरूप है, अतः गीताका स्पर्श भी गीता-पाठ जैसा ही है। आप प्रतिदिन गीताकी पुस्तकको प्रणाम कर लिया करें और पंक्तियोंपर अँगुली फिरा लिया करें।

उन्होंने मेरी बातपर विश्वास कर लिया। सन्तुष्ट होकर चले गये। पीछे कहींसे गीताप्रेस (गोरखपुर) - से छपी गीताके मूल श्लोकोंकी बड़े अक्षरोंकी पुस्तक खरीद लाये और नियमसे प्रतिदिन प्रारम्भसे अन्ततक उसकी पंक्तियोंपर अँगुली फिराने लगे।

अब मुझे स्मरण नहीं है कि वर्ष, डेढ़ वर्ष या दो वर्षमें मैं फिर मेरठसे उधर गया, किंतु मेरे उधर जानेका किसीसे पता लगा तो देवनाथसिंह फिर मेरे पास आये। उन्होंने बड़ी नम्रतासे मुझसे कहा- 'मैं गीताकी पंक्तियोंपर अँगुली फिराता हूँ तो मेरे मुखसे कुछ निकलता है। मैं क्या बोलने लगता हूँ, मुझे पता नहीं है। आप थोड़ी देर एकान्तमें चलकर इसे देख लीजिये।'

मैं उनको लेकर एकान्तमें गया। उन्होंने अपनी पुस्तक खोली, जो वे साथ लाये थे। मेरे आश्चर्यका ठिकाना नहीं रहा, जब मैंने देखा कि वे जिन पंक्तियोंपर अँगुली फेरते हैं, उनका शुद्ध उच्चारण उनके मुखसे होता है।

मैंने उन्हें गीताकी दूसरी पुस्तक तो नहीं दी। मुझे आवश्यकता नहीं लगी और न वहाँ मेरे पास दूसरी मोटे या मझोले टाइपकी कोई प्रति थी, किंतु उस प्रतिको बीच-बीचमेंसे खोलकर कई स्थानोंपर उनसे अँगुली फिरवाकर देख लिया कि वे जिस पंक्तिपर अँगुली फिराते थे, उसका उनके मुखसे शुद्ध उच्चारण होता था ।यह तथ्य उन्हें मैंने बतलाया तो वे भाव-विह्वल हो गये, उनकी आँखोंसे अनु बहने लगे। गद्गद स्वरमें बोले

'मुझ जैसे साधारण व्यक्तिपर भगवान्‌की इतनी कृपा!' इसके बाद वे मुझे मिले प्रयाग शुसीमें और हरिद्वार में तल थे तो गृहस्थ-वेशमें ही, किंतु पैदल अकेले पूरे भारतकी तीर्थयात्रा कर रहे थे। तीन बार उन्होंने लगातार यह पैदल तीर्थयात्रा की और चौथी बार ऐसी ही यात्रा करते द्वारका पहुँचे तो श्रीद्वारकाधीशके दर्शन करते समय ही मन्दिरमें उनका शरीर छूट गया।

यह घटना इतने विस्तारसे देनेका कारण यह है कि मैं इसमें बहुत कुछ प्रत्यक्ष साक्षी रहा हूँ। सुनी सुनायी बात नहीं है और पाठ तथा कन्हाईकी कृपाका अच्छा उदाहरण है।

श्रीमद्भागवतके प्रसिद्ध कथावाचक एवं विद्वान् पण्डित श्रीनाथजी पुराणाचार्य (वृन्दावन) इसे 'ग्रन्थ कृपा' कहते हैं। उनका कहना है- 'गीता, श्रीमद्भागवत, श्रीरामचरितमानस - जैसे ग्रन्थ मन्त्रात्मक हैं और चेतन हैं। इनका श्रद्धापूर्वक आश्रय लिया जाय तो पाठ करनेवालेपर ये कृपा करते हैं।

वृन्दावनमें अनाज मण्डीमें लगभग सन् ३७-३८ में एक अत्यन्त वृद्ध महात्माके दर्शन किये थे। उनका नाम श्री अवधदासजी था। वे श्रीमद्भागवतको ही आराध्य मानते थे और सदा भागवतका मासिक क्रमसे पाठ करते थे। वृद्धावस्था में दृष्टिलोप हो जानेपर भी आसनपर बैठकर ग्रन्थ सामने रखकर पाठ करते थे। ग्रन्थ तो उन्हें कण्ठस्थ था और उसी अनुमानसे पन्ने उलटते जाते थे।

कहनेका तात्पर्य है कि आप अपने आराध्य इष्टके चरित, गुण आदि जिसमें हों, उस ग्रन्थको निष्ठापूर्वक अपनाकर उसका नित्य पाठ करेंगे तो आपपर ग्रन्थ- कृपा भी होगी और आपमें इष्टके प्रति भक्तिका जागरण होगा।

[ श्री सुदर्शनसिंहजी 'चक्र' ]



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nirakshar shraddhaalu bhaktapar shreemadbhagavadgeetaakee kripaa

.(yogadarshan 2.44) arthaat svaadhyaayase ishtadevataaka saakshaatkaar hota hai. yahaan svaadhyaayaka arth hai-mantr jap, lekin ek achchhe santane apane sahaj dhangase svaadhyaayakee jo vyaakhya kee, vah bhee bhoolaneyogy naheen hai. ve kahate the 'svaadhyaayaka arth hai 'sva' apana adhyaay arthaat vah granth ya mantr, jise tumane apanaaya hai, vah tumhaare apane jeevanaka ek ang - adhyaay ho jaaya.'

paath karanese ek vishesh prakaarakee shakti praapt hotee hai. jaise snaan karanese shareer svachchh hota hai aur sphoorti aatee hai, vaise hee nityapaath aantarik snaan hai. isase antahkaranakee shuddhi hotee hai aur maanasik prerana milatee hai saadhanake liye.

aap geeta, bhaagavat ya shreeraamacharitamaanasaka koee shlok athava chaupaaee kanth kar len, jo aapako bahut saadhaaran lage aur mana-hee-man use baara-baar duharaate rahen. dhairyapoorvak do-chaar din usako duharaayen. aisa karanese achaanak kisee samay aapako usaka aisa arth soojhega, jo svayan aapako chakit kar degaa. yah usake us arthapar pada़a aavaran usake baara-baar paath karanese door huaa. isee prakaar antahkaranamen hee sthit paramaatmatattvapar jo aavaran hai, vah paath karate rahanese door hota hai ya shithil pada़ta hai.

paath karana to phir bhee bada़ee baat hai, paath karaneka sankalp aur usakee cheshta bhee chamatkaar utpann karatee hai, yah mainne dekha hai.

vaaraanasee jilemen ek gaanv hai mahuar . jab deshaka svaadheenata aandolan chal raha tha, tab us gaanvake ek kshatriy yuvak satyaagrah aandolanamen mere saathee the. naamato unaka jayanaathasinh tha, kintu sab unhen jainoosinh kahate the. unake sage bhaaee devanaathasinh, jinhen deoosinh kaha jaata tha, mujhase sambhavatah san 1938 ee0 men mile. ve satyaagrah aandolanamen to sammilit naheen hue, the, kintu mujhe jaanate the.

main san 1936 ee0 se hee vaaraanaseese door ho gaya tha aur san 1937 ee0 se merathase nikalanevaale maasik patr 'sankeertana' ka sampaadan karane laga thaa. us samay main merathase apanee janmabhoomike kshetramen bahut thoda़e dinonko aaya thaa.

ek din devanaathasinh aaye aur mere sameep kuchh samayatak baithe rahe, phir ekaant milanepar bole-'meree ichchha geetaa-paath karanekee hotee hai. ab is aayurve gaanvake kisee vyaktise akshar padha़ne baithanemen lajja aatee hai. koee upaay batalaaiye. '

ve jameendaar the. un dinon sampann graameen kisaan jameendaar apane ya apane putronke liye padha़naa-padha़aana anaavashyak maanate the. kah dete the-'lada़keko paढ़aakar kya karana hai. use koee naukaree karanee hai ?'

main jaanata tha ki jayanaathasinh, jo mere kaangres aandolanake saathee the, unhonne bhee kaangres aandolanamen aaneke pashchaat aksharajnaan seekha aur dheere-dheere hindeekee pustaken padha़ne lage the. unake bhaaee devanaathasinh bhee nirakshar hee the.

kisee bhee aayumen padha़ne lagana koee lajjaakee baat naheen hai, yah bhale saty hai, kintu 30-35 varshake graameen yuvakako yah tathy samajha dena mujhe saral naheen laga aur jise varnamaalaakee pahachaan bhee n ho, use geetaa-paath karanekee bhala kauna-see yukti main batala detaa.yah to ab main jaanata hoon ki baaba nandajeene bhee apane laalaako padha़aaya naheen, chhotepanamen hee gochaaranamen laga diya, kintu yah nanha anapadha़ gopaal, jise chaahe use sahaj mahaapandit bana deta hai.

us samay mainne deoo (devanaathasinha) ko samajha diya - geeta bhagavaankee vaanee honese bhagavaan‌ka svaroop hai, atah geetaaka sparsh bhee geetaa-paath jaisa hee hai. aap pratidin geetaakee pustakako pranaam kar liya karen aur panktiyonpar angulee phira liya karen.

unhonne meree baatapar vishvaas kar liyaa. santusht hokar chale gaye. peechhe kaheense geetaapres (gorakhapura) - se chhapee geetaake mool shlokonkee bada़e aksharonkee pustak khareed laaye aur niyamase pratidin praarambhase antatak usakee panktiyonpar angulee phiraane lage.

ab mujhe smaran naheen hai ki varsh, dedha़ varsh ya do varshamen main phir merathase udhar gaya, kintu mere udhar jaaneka kiseese pata laga to devanaathasinh phir mere paas aaye. unhonne bada़ee namrataase mujhase kahaa- 'main geetaakee panktiyonpar angulee phiraata hoon to mere mukhase kuchh nikalata hai. main kya bolane lagata hoon, mujhe pata naheen hai. aap thoda़ee der ekaantamen chalakar ise dekh leejiye.'

main unako lekar ekaantamen gayaa. unhonne apanee pustak kholee, jo ve saath laaye the. mere aashcharyaka thikaana naheen raha, jab mainne dekha ki ve jin panktiyonpar angulee pherate hain, unaka shuddh uchchaaran unake mukhase hota hai.

mainne unhen geetaakee doosaree pustak to naheen dee. mujhe aavashyakata naheen lagee aur n vahaan mere paas doosaree mote ya majhole taaipakee koee prati thee, kintu us pratiko beecha-beechamense kholakar kaee sthaanonpar unase angulee phiravaakar dekh liya ki ve jis panktipar angulee phiraate the, usaka unake mukhase shuddh uchchaaran hota tha .yah tathy unhen mainne batalaaya to ve bhaava-vihval ho gaye, unakee aankhonse anu bahane lage. gadgad svaramen bole

'mujh jaise saadhaaran vyaktipar bhagavaan‌kee itanee kripaa!' isake baad ve mujhe mile prayaag shuseemen aur haridvaar men tal the to grihastha-veshamen hee, kintu paidal akele poore bhaaratakee teerthayaatra kar rahe the. teen baar unhonne lagaataar yah paidal teerthayaatra kee aur chauthee baar aisee hee yaatra karate dvaaraka pahunche to shreedvaarakaadheeshake darshan karate samay hee mandiramen unaka shareer chhoot gayaa.

yah ghatana itane vistaarase deneka kaaran yah hai ki main isamen bahut kuchh pratyaksh saakshee raha hoon. sunee sunaayee baat naheen hai aur paath tatha kanhaaeekee kripaaka achchha udaaharan hai.

shreemadbhaagavatake prasiddh kathaavaachak evan vidvaan pandit shreenaathajee puraanaachaary (vrindaavana) ise 'granth kripaa' kahate hain. unaka kahana hai- 'geeta, shreemadbhaagavat, shreeraamacharitamaanas - jaise granth mantraatmak hain aur chetan hain. inaka shraddhaapoorvak aashray liya jaay to paath karanevaalepar ye kripa karate hain.

vrindaavanamen anaaj mandeemen lagabhag san 37-38 men ek atyant vriddh mahaatmaake darshan kiye the. unaka naam shree avadhadaasajee thaa. ve shreemadbhaagavatako hee aaraadhy maanate the aur sada bhaagavataka maasik kramase paath karate the. vriddhaavastha men drishtilop ho jaanepar bhee aasanapar baithakar granth saamane rakhakar paath karate the. granth to unhen kanthasth tha aur usee anumaanase panne ulatate jaate the.

kahaneka taatpary hai ki aap apane aaraadhy ishtake charit, gun aadi jisamen hon, us granthako nishthaapoorvak apanaakar usaka nity paath karenge to aapapar grantha- kripa bhee hogee aur aapamen ishtake prati bhaktika jaagaran hogaa.

[ shree sudarshanasinhajee 'chakra' ]

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