जिला मधुवनी (बिहार) का एक गाँव है लोहना,जिसके सुदूर पूर्वमें एक प्राचीन मन्दिर है बाबा वीरेश्वरमहादेवका । ये वीरेश्वर महादेव भाषाके लचीलेपनकेकारण घिसते घिसते आज बाबा विदेश्वरके नामसे प्रसिद्ध हो गये हैं। वीरेश्वर महादेवका यह मन्दिर इलाकेका श्रेष्ठ दर्शनीय धर्मस्थल है। लोग रावणेश्वर वैद्यनाथ के रूपमें भी इन्हें आराध्य मानते हैं। सत्तर सालके अपने जीवनमें मैंने देखा है कि श्रद्धा और भक्ति केन्द्रभूत इन महादेवको कृपासे अनेक लोग मनोऽभिलषित फल प्राप्त करते आ रहे हैं और अन्तकालमें उन्होंने शिवसायुज्य भी प्राप्त किया है। इस गाँवको जब चिकित्साकी आज जैसी सुविधा प्राप्त नहीं थी, उस समयकी दीन-हीन जनता अशरण शरण इन महादेवकी सेवाकर दुःसाध्य रोगसे सर्वथा मुक्त होती रही है। १९६० के दशकमें दुःसाध्य गलित कुष्ठसे ग्रस्त यदुनाथ नामक एक ब्राह्मणने यथासम्भव डॉक्टरी चिकित्सा करवायी, किंतु जब एक-एक पैसेके लिये मुँहताज वह स्वस्थ न हो पाया, तब अशरण-शरण वीरेश्वरका शरणापन्न हो गया। यदुनाथने निःसहाय होकर भक्ति एवं समर्पणभावसे प्रतिदिन प्रातः सायं पोखरेसे जल भरकर भीतर और बाहर पूरे मन्दिर प्रांगणको साफ-सुथरा करना आरम्भ किया। यथासाध्य फूल-चन्दन और बेलपातीसे शंकरकी पूजा करना उसका नित्यव्रत हो गया। भगवान्की लीला देखिये! तीन-चार मासोंकी आराधनाके पश्चात् उसका कुष्ठ कम होते-होते पूरा ठीक हो गया।
लोहना ग्रामके समीपका ही एक सहदेव नामक व्यक्ति माथेमें कीड़े हो जानेसे निरन्तर छटपटाता रहता था। किसी भी समय वह चैनसे सो नहीं पाता था। दिनरात कीड़ोंके काटते रहने से वह बेचैन रहता था। कहीं चल-फिर नहीं सकता था। आर्थिक दृष्टिसे विपन्न उसे किसीने वीरेश्वर महादेवकी सेवा करनेको कहा। सहदेवको भी यह सदुपदेश जँच गया। महादेवकीसेवाकी भावना जग गयी। 'महादेव महादेव, हर-हर महादेव, जय शिव जय शिव' जपते-जपते उसके माथेके कीड़े नष्ट हो गये। चिकित्साके लिये किसी वैद्यके पास जानेकी उसमें क्षमता नहीं थी, अतः वह महावैद्यके पास आ गया और महावैद्यने उसकी निःशुल्क चिकित्साकर उसको स्वस्थ कर दिया। अपार लीला है आशुतोष वीरेश्वरकी । ये अनन्य मनसे पूजा करनेवालेको कभी निराश नहीं करते। जबतक अनन्य मनसे भक्ति भावना नहीं की जायगी, तबतक उद्धार सम्भव नहीं। देवी-देवताओंको नैवेद्य चढ़ा देनेमात्रसे अभिलाषाकी पूर्ति नहीं होती। देवताको तो निश्छल भक्ति चाहिये। वीरेश्वर महादेवने मरणोन्मुख युवकको स्वस्थ कर दिया। जब अन्तकाल आता है, तब उनकी कृपा कैसे होती है, इसकी झाँकी देखिये
१९५०-६० ई० के मध्य लोहना गाँवके पं० मोक्षानन्द झा श्रीसम्पन्न थे। महाराज दरभंगाकी कृपासे उन्हें किसी चीजकी कमी नहीं थी। भरा-पूरा परिवार था। उनका शरीर भी स्वस्थ था। किसी रोगकी कोई आशंका भी नहीं थी, किंतु कैसी दैवी कृपा होती है! एक दिन अपनी विशाल सम्पत्ति और परिजनोंको छोड़कर वे घरमें सबको यह बताकर कि मैं अब गृहत्याग करके बाबा वीरेश्वरकी शरणमें जा रहा हूँ, वहाँसे लौटनेका कोई विचार भी नहीं है, जानेका उपक्रम करने लगे। सभी लोग अचानक सकतेमें आ गये कि आखिर इनके मनमें ऐसा वैराग्य कैसे आ गया? घरके लोग इस विचारको सुनकर सन्न रह गये।
सूचना पाते ही सारे सगे-सम्बन्धी मिलनेके लिये आने लगे। पण्डित मोक्षानन्दने सबका त्याग करके भगवान् वीरेश्वरकी शरण ग्रहण कर ली। इस घटना के ठीक पन्द्रहवें दिन पं० मोक्षानन्द झाने मन्दिरके सामने पीपलवृक्षके नीचे प्राण त्यागकर वास्तविक मोक्षका आनन्द प्राप्त कर लिया।हमारे बड़े चाचा पण्डित लक्ष्मीनाथ झाने अपनेपारिवारिक जनको कह दिया था कि यदि मैं मरनेके समय बोलनेकी स्थितिमें न रहूँ, तो नित्य आराध्य मेरे शालग्रामको मेरी छातीपर मेरे दाहिने हाथसे पकड़वा देना और विदेश्वर बाबाका दर्शन भी अवश्य करा देना। आश्चर्य है, अन्तकाल समीप आनेकी स्थितिमें दोनों पुत्रोंकी अनुपस्थितिमें उनके सबसे छोटे भाई ० सीतानाथ झाले बड़े भाईको सायंकाल मन्दिर पहुँचा दिया और कहा भाईजी विदेश्वर स्थान आ गये १० लक्ष्मीनाथ झाने आँखें खोलकर पीपलके पेड़के नीचेसे ही वीरेश्वरका दर्शन किया और सदाके लिये आँखें मूंद लीं।
पं० लक्ष्मीनाथ झाके अनुज पं० पुण्यनाथ झाके मरणासन्न होनेका समाचार मिलते ही उनके अनुज पं० सीतानाथ झा प्रयागसे आ गये और भाईका नाड़ी परीक्षण किया। सब कुछ अनुकूल लगा। किंतु दूसरे दिन प्रातः पाँच बजे ही अग्रजने अपने अनुनको बुलवा लिया और कहा- 'मुझे विदेश्वर स्थान जाना है।' भावविभोर अनुजने कहा- 'ऐसा क्यों? अभी तो ऐसी स्थिति नहीं आयी है।' पुण्यनाथजीने कहा 'भाई! वीरेश्वरनाथका बुलावा आ गया है, इसलिये मुझे विदेश्वर स्थानमें ले चलो' जैसी आपकी इच्छा, ऐसा कहकर सीतानाथजीने कुछ लोगोंको साथ लेकर पुण्यनाथजीको वहाँ पहुँचा दिया। श्रीवीरेश्वर स्थान पहुँचनेपर शिष्य मकेश्वर झाने गुरुका नाही परीक्षण किया। नाड़ीमें कोई प्रतिकूलता नहीं थी, अतः परिसर में ही स्थित एक धर्मशाला में गुरुके रहने की व्यवस्था कर दी। इलाके के सभी परिचित जन उन्हें देखनेके लिये आने लगे। उनके वहाँ पहुँचने के अगले दिन सुबह गुरुने शिष्य मकेश्वरसे कहा- अब ले चलो मन्दिरके सामने पीपल वृक्षके नीचे सभी लोगों बातें करते-करते धीरे-धीरे उनकी वाणी अवरुद्ध होने लगी। एक पुत्रने शालग्रामकी पूजाकर उन्हें चरणोदकपिला दिया। अपराह्न साढ़े तीन बजेके बाद पुण्यनाथजीने परिजनोंके मुखसे भगवद्गीताके श्लोकोंको सुनते हुए परमधामकी महायात्रा कर ली।
गाँवके वयोवृद्ध टूना झाने चार दिनतक विदेश्वरधाममें रहकर शिवसायुज्य प्राप्त किया। विदेश्वरधाम पहुँचनेपर उन्होंने मृत्युतिथिकी घोषणा कर दी और ऐसा ही हुआ भी था। ऐसी ही अनेक आँखोंदेखी घटनाएँ हैं, जो हमें भगवत्कृपाप्राप्तिका ज्ञान करा देती हैं।
गाँवके एक सज्जन पण्डित दुर्गानाथ झाकी मृत्युकी घटना ग्रामवासियोंको आज भी आश्चर्यचकित कर देती है। लगभग १५ दिनोंतक ज्वरग्रस्त रहनेके बाद ५ अगस्त १९६५ को उन्होंने अपने बान्धवोंको बुलाकर कहा- 'मुझे विदेश्वर स्थान ले चलें।' भाई तो हक्का बक्का रह गये और बोले-'ऐसी कोई प्रतिकूल परिस्थिति तो है नहीं, जिससे आपको विदेश्वर ले चलें।' किंतु भाईके हठके सामने अनुजका कुछ भी वंश नहीं चला। सभी परिजनोंको बुलाया गया और सात बजे प्रातः सभी चले वीरेश्वर स्थानकी ओर। 1 उनके बड़े पुत्रको एक डॉक्टरको बुलानेको भेजा गया। पुत्र डॉक्टरको सूचना देकर जबतक पहुँचा, दुर्गानाथजी शिव सायुज्य प्राप्त कर चुके थे। विदेश्वर पहुँचकर दुर्गानाथजीने अपने लोगों से मन्दिर से जानेको कहा, वे मन्दिर गये, दर्शन किया और दस मिनटमें ही महाप्रस्थान किया। अद्भुत महिमा है वीरेश्वर महादेवकी! जिनपर कृपा हुई, उनको बुला लिया और पूर्णतः स्वस्थ कर दिया तथा अन्तकालमें अपने लोककी महायात्रा करा दी।
हम स्पष्टतः डंके की चोटपर कह सकते हैं कि पंगुको पर्वतकी चोटीपर पहुँचाना, मूकको वाक्प्रखर बनाना उन परमेश्वरके बायें हाथका खेल है। महादेव यदि रुद्र बनते हैं तो आशुतोष बननेमें भी कोई समस्या नहीं है। हाँ, आराध्यके प्रति अनन्य श्रद्धा और भक्ति होनी चाहिये। [प्रो० श्रीइन्द्रनाथजी झा]
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lohana graamake sameepaka hee ek sahadev naamak vyakti maathemen keeda़e ho jaanese nirantar chhatapataata rahata thaa. kisee bhee samay vah chainase so naheen paata thaa. dinaraat keeda़onke kaatate rahane se vah bechain rahata thaa. kaheen chala-phir naheen sakata thaa. aarthik drishtise vipann use kiseene veereshvar mahaadevakee seva karaneko kahaa. sahadevako bhee yah sadupadesh janch gayaa. mahaadevakeesevaakee bhaavana jag gayee. 'mahaadev mahaadev, hara-har mahaadev, jay shiv jay shiva' japate-japate usake maatheke keeड़e nasht ho gaye. chikitsaake liye kisee vaidyake paas jaanekee usamen kshamata naheen thee, atah vah mahaavaidyake paas a gaya aur mahaavaidyane usakee nihshulk chikitsaakar usako svasth kar diyaa. apaar leela hai aashutosh veereshvarakee . ye anany manase pooja karanevaaleko kabhee niraash naheen karate. jabatak anany manase bhakti bhaavana naheen kee jaayagee, tabatak uddhaar sambhav naheen. devee-devataaonko naivedy chadha़a denemaatrase abhilaashaakee poorti naheen hotee. devataako to nishchhal bhakti chaahiye. veereshvar mahaadevane maranonmukh yuvakako svasth kar diyaa. jab antakaal aata hai, tab unakee kripa kaise hotee hai, isakee jhaankee dekhiye
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