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श्रीहनुमानजीकी कृपाकी अनुभूतियाँ

(१)

रामायण पाठ-प्रेमी 'वानर'

यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनं तत्र तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम्। बाष्पवारिपरिपूर्णलोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तकम् ॥

भक्तराज महावीरकी एक अपूर्व कहानी मैंने कई वर्षों पूर्व एक स्टेशनमास्टर के मुखसे सुनी थी। उनका नाम तो मैं भूल गया हूँ, परंतु घटना याद है, जो इस प्रकार है- उन स्टेशनमास्टरको इच्छा हुई कि मैं श्रीरामचरितमानसका अध्ययन करूँ इसलिये एक विद्वान् रामायणीको उन्होंने आचार्यरूपसे ग्रहण किया। प्रथम दिन जब पाठ आरम्भ हुआ तो उन्होंने क्या देखा कि रेलिंगके बाहर एक बन्दर बैठा हुआ है। दूसरे दिन फिर रामायण पाठ चल रहा था, एकाएक वही बन्दर आया और रेलिंगके भीतर आकर बैठ गया। क्रमशः प्रतिदिन वह (बन्दर) निकट आता चला गया। कुछ दिनोंमें वह आकर स्टेशनमास्टर महाशयकी गोदमें बैठने लग गया। वे भी दिन-प्रतिदिन उसकी गतिविधिको परख रहे थे। पाठ आरम्भ होनेपर वह नित्य आता और पाठ समाप्तिपर चला जाता। अब वह बन्दर उन स्टेशनमास्टरके कन्धेपर बैठने लगा। नित्य आने-जानेसे स्टेशनमास्टर महोदयको भी उस बन्दरसे प्रेम-सा हो गया। उन्हें उससे डर नहीं लगता था। तदनन्तर एक दिन रामायण-अध्ययनके समय वह बन्दर स्टेशनमास्टर महाशयके मस्तकपर चढ़ गया और उनका बाल पकड़कर बैठ गया। भक्त स्टेशनमास्टरके बालोंमें कुछ कसक होने लगी, उन्होंने माथा हिलाया, तब उस बन्दरने वालोंको पकड़को कुछ ढीला कर दिया। वहाँ जबतक रामायण पाठ होता रहा, उतने दिनोंतक वे 'वानर' (हनुमान) नित्यप्रति आते रहे। पाठ-समाप्तिके पश्चात् फिर किसीने उनका दर्शन नहीं किया। यह लीला श्रीजानकी मैयाके प्यारे पुत्र, राक्षस वंशरूपी तृण-मण्डलके लिये प्रचण्ड दावानलरूप, भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके अनन्य सेवक और हमलोगोंके परम रक्षक श्रीमहावीरजीकी ही है। इसमें मुझे कोई संदेह नहीं है।

(२)

जब हनुमानजीने स्वयं प्रसाद ग्रहण किया

यह बात प्राय: ९० वर्ष पूर्वकी है। एक दिन संध्या समय तेतरिया ग्रामकी ठाकुरवाड़ी (मन्दिर)-में एक क्षीणकाय सज्जन उपस्थित हुए। रात्रिमें भगवान् श्रीवंशीधरका प्रसाद ग्रहण किया। दूसरे दिन प्रातः काल एक भक श्रीमहावीरजीके भोगके लिये एक मन आटा, घी, सूजी, चीनी, आलू आदि लेकर उपस्थित हुआ; क्योंकि श्रीमहावीर- जीने कृपा करके उसकी मनौती पूर्ण की थी। इसीलिये उसने प्रसादके लिये यह सामान प्रस्तुत किया था।

पुजारीने आसपासके ग्रामोंके ब्राह्मणोंको प्रसाद पानेके लिये निमन्त्रित किया। मध्याह्नमें आरती होनेके पश्चात् ब्राह्मणोंको भोजनके लिये बुलाने लगे तो उन्होंने कहा ‘पहले नये अतिथिको भोजन कराइये।' उनके कहे अनुसार अतिथि महाराज ( वहाँ भोजनार्थ आये हुए एक अपरिचित) को एक मनुष्यके भोजनयोग्य (व्यंजन, हलुआ आदि) |परोसा गया। उन्होंने वह सब भोजन तुरंत पा लिया। पुनः दो व्यक्तियोंके तृप्त होनेयोग्य भोजन परोसा गया, उसे भी उन्होंने तुरंत उदरस्थ कर लिया। फिर इस बार इन्हें तीन चार व्यक्तियोंके तृप्त होनेयोग्य भोजन दिया गया। अब तो अन्य ब्राह्मण लोग भी उन अपूर्व भोजनकर्ताका दर्शन करनेके लिये उनके निकट आकर बैठ गये। अतिथि महाराज बिना कुछ बोले उसे भी चट कर गये। इस प्रकार क्रमशः | जो कुछ बना था, वह सब उनकी जठराग्निकी आहुति में चढ़ा दिया गया। अनुमानत: दो-ढाई सेर प्रसाद शेष बचा, तब वे (अतिथिदेव) कहने लगे- 'बस रहने दीजिये, अब आप सब लोग प्रसाद पाइये।'

आचमनके पश्चात् मुखशुद्धिके लिये हरीतकी (हरें) ग्रहण करके वे अतिथि महाशय अपने आसनपर जाकर बैठ गये। उसके बाद वे कब अदृश्य हो गये, यह कोई न जान सका। वे स्वयं महावीर हनुमानजी ही थे, जिनके उद्देश्यसे यह प्रसाद बनाया गया था। वे ही कृपा करके उसे ग्रहण कर गये।



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