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परम भक्त संत श्रीहरिहरबाबाजी की मार्मिक कथा
परम भक्त संत श्रीहरिहरबाबाजी की अधबुत कहानी - Full Story of परम भक्त संत श्रीहरिहरबाबाजी (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [परम भक्त संत श्रीहरिहरबाबाजी]- भक्तमाल


संत श्रीहरिहरबाबाजी महाराज एक अद्भुत और सिद्ध महात्मा थे। उन्होंने काशीक्षेत्रमें रहकर जो तपस्या की, वह संत-साहित्यकी एक महान् देन है। पुण्यसलिला भगवतो गङ्गाको गोदमें ही उन्होंने अपने जीवनका अधिकांश बिताकर जो वात्सल्य लाभ किया, वह उनकी गङ्गा-भक्ति और संयमपूर्ण आस्तिकताका परिचायक है। काशीमें आनेपर तीर्थयात्री उनका पवित्र दर्शन करते और अपने जन्म-जन्मके पाप धोकर अमित पुण्यका सञ्चय करनेका विश्वास करते थे। वे विश्वनाथकी नगरीमें शिवकी साधना कर, सत्यकी आराधना कर, सौन्दर्यरूप भगवान्‌को उपासना कर अमर हो गये। वे शाश्वत शान्तिऔर तपस्याकी प्रतिमूर्ति थे।

उन्होंने डेढ़ सौ साल पहले बिहार प्रान्तके छपरा जनपदके जाफरपुर ग्राममें एक कुलीन सरयूपारीण ब्राह्मण परिवारमें जन्म लिया था। उनका बचपनका नाम सेनापति तिवारी था। बाल्यावस्थासे ही उनमें वैराग्यका उदय हुआ। उन्होंने थोड़ा-बहुत संस्कृतका अध्ययन करके काशीकी यात्रा की। वे काशीमें श्रीवीतरागानन्दजी महाराजके साथ रहने लगे। वे जन्मजात संत थे ही, उनके हृदयमें पवित्र भावना उठी कि उसमें श्रीहरिहरका निवास है। वे काशीमें 'हरिहर भैया' के नामसे विख्यात थे। उन्होंने जीवनको कठोरतम तपस्याके चरणोंमें समर्पितकर दिया। उन्होंने शीतकालके कठोर जाड़ेको, ग्रीष्मकी | भयङ्कर लूको और पावसके काले-काले बादलोंको तथा प्रबल झंझावातको चुनौती दी। उन्होंने सदा गङ्गाजीकी स धारामें नावपर निवास करके भूखों रहकर, जलती बालुका खाकर श्रीरामकी उपासना करनेका दृढ़ सङ्कल्प किया। अभिनव तुलसीकी राममयी वाणीने, राम-नाम ध्वनिने काशीमें ही नहीं, भारतभरमें दूर-दूरतक भक्तिकी भागीरथी प्रवाहित कर दी। दूर-दूरके तीर्थयात्री उनका सन्देश भारतके पवित्र तीर्थोंमें, प्रमुख नगरोंमें पहुँचाकर भगवान् रामकी विजयिनी पताका फहराने लगे।

कुछ दिनोंतक वे हिंदूविश्वविद्यालयके सन्निकट गङ्गा-माताकी गोदमें रहकर अस्सी घाटपर चले आये। विश्वविद्यालयका एक छात्र उनकी नावपर जूता पहनकर चला गया। महाराजके शिष्योंने उसे ऐसा करनेसे रोका; पर उसकी उद्दण्डता और बढ़ गयी, कुछ छात्रोंको लाकर उसने बड़ा उत्पात किया। हरिहरबाबा तो क्षमाकी मूर्ति | थे, उन्होंने स्थान छोड़ दिया। महाभागवत मालवीयजी | उस समय काशीमें नहीं थे। उन्होंने काशी आनेपर |अस्सीघाटतक पैदल जाकर एक पैरपर खड़े होकर संतापराधके लिये क्षमा माँगी और महाराजसे उसी स्थानपर चलनेका अनुरोध किया। बाबा वहाँ न गये; पर उनके पवित्र दर्शनसे मालवीयजी महाराजको विश्वास हो गया कि उन्होंने क्षमा कर दिया।

श्रीहरिहरबाबा सब ऋतुओंमें गङ्गाके उस पार ही शौच आदिके लिये जाते थे। कभी-कभी तो नावकी प्रतीक्षा किये बिना ही तैरकर उस पार चले जाते थे, बादमें नावपर उधरसे आते थे। नावपर ही रहकर बड़ी शान्तिसे रामनामका आस्वादन किया करते थे। नौकापर शिष्योंद्वारा रामायण और श्रीमद्भागवत आदिका पाठ चलता रहता था। कीर्तन भी होता था। वे कहा करते थे कि 'यदि काशी और गङ्गाजीके बदले स्वर्ग भी मिले तो वह त्याज्य है।' उन्होंने वर्षों गङ्गाजीमें नंगे खड़े होकर सूर्यसे नेत्र मिलाकर तपस्या की थी। वे दिगम्बर वेषमें ही रहते थे। भगवान् शङ्कर और श्रीराममें उनकी अचल भक्ति और निष्ठा थी।

संवत् 2006 वि0 की आषाढ़ शुक्ल पञ्चमीको गङ्गाजीकी गोदमें ही उन्होंने महानिर्वाणका वरण किया।



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