भगवान् भक्ति भावके भूखे हैं, धन-वैभवके नहीं। वे भक्तका हृदय देखते हैं। उसके द्वारा भेंट की जानेवाली वस्तु बहुमूल्य है या तुच्छ, इसको और उनकी दृष्टि नहीं जातो वे अपने प्रेमी भक्तके द्वारा प्रेमपूर्वक अर्पित किये हुए पत्र, पुष्प, फल, जल आदिको बड़े प्रेमसे भोग लगाते हैं। भक्त पुरुष चक्रवर्ती नरेश हो या अकिञ्चन भिक्षु दोनोंके लिये उनके हृदयमें समान आदर है। भक्तके हृदयमें तनिक भी अभिमानका अङ्कर उदित हो, यह भगवान्को सह्य नहीं है। अभिमानशून्य अकिञ्चन भक्त भक्तिभावका अभिमान रखनेवाले समृद्धिशाली पुरुषकी अपेक्षा भगवान के दरबारमें पहले पहुँचता है। प्राचीन कालको बात है। दक्षिण भारतकी काञ्ची नगरीमें चोल नामसे प्रसिद्ध एक राजा राज्य करते थे। उन्होंके नामपर उनके अधीनस्थ प्रदेशको भी चोल कहा जाने लगा। राजा बड़े धर्मात्मा थे; उनके राज्यमें कोई भी मनुष्य दरिद्र, दुःखी और पापाचारी नहीं था। एक दिन महाराज चोल अनन्तशयन नामक तीर्थमें गये। यह वही स्थान है, जहाँ जगदीश्वर भगवान् विष्णुने योगनिद्राका आश्रय लेकर शयन किया था। वहाँ राजाने भगवान् विष्णुके शेषशायी दिव्य विग्रहको विधिपूर्वक पूजा की, दिव्य मणियोंकी जगमगाती हुई माला भेंट की, मोतियोंक हार बढ़ाये तथा सुवर्णमय सुन्दर पुष्पोंसे भगवान्के श्री अङ्गको सजाया। फिर साष्टाङ्ग प्रणाम करके वे वहीं कुछ कालतक बैठे रहे। इसी समय एक ब्राह्मण-देवता वहाँ आये। वे भी काञ्ची नगरीके ही निवासी थे। उनका नाम विष्णुदास था। उन्होंने भगवान्की पूजाके लिये अपने हाथमें तुलसीदल और जल ले रखा था। भगवद् विग्रहके निकट जाकर ब्रह्मर्षिविष्णुदासने विष्णुसूक्तका पाठ करते हुए देवाधिदेव भगवान्को स्नान कराया और तुलसीदल एवं तुलसीमञ्जरीसे उनकी विधिवत् पूजा की। राजा चोलने दिव्य रत्नोंद्वारा जो भगवान्की पूजा की थी, वह सब तुलसीदलोंसे आच्छादित हो गयी। यह देख धन-वैभवका ही समादर करनेवाले राजा चोल कुपित होकर बोले-'विष्णुदास मैंने मणियों और सुवर्णोंसे भगवान्का जो भृङ्गार किया था, उसको कितनी शोभाहो रही थी। तुमने तुलसीदल चढ़ाकर उसे ढंक दिया। बताओ तो ऐसा क्यों किया? मैं समझता हूँ-तुम दरिद्र और गँवार हो, इसीलिये तुम्हारे द्वारा ऐसी भूल हुई है। तुम्हारे मनमें भगवान् विष्णुके प्रति भक्तिभावका सर्व अभाव प्रतीत होता है।'
राजाके इस प्रकार आक्षेप करनेपर विष्णुदासने कहा-'महाराज भक्ति क्या वस्तु है, इससे आप सर्वथा अपरिचित हैं। केवल राजलक्ष्मीके कारण आपको अपनी बेताका अहङ्कार हो गया है। बतलाइये, आजसे पहले आपने कितने वैष्णव व्रतोंका पालन किया है?'
विष्णुदासकी यह बात सुनकर राजा चोल हँस पड़े और उनका तिरस्कार करते हुए बोले- 'ब्राह्मण! तुम सदाके दरिद्र हो, मणियों तथा रत्नोंका मूल्य क्या जानो। भला, भगवान् विष्णुके प्रति तुममें भक्ति ही कितनी है। क्या तुमने भगवान् विष्णुको संतुष्ट करनेवाला कोई महान यज्ञ किया है? कभी बहुमूल्य वस्तुएँ दानमें दी हैं? आजतक एक भी भगवान्का मन्दिर बनवाया है? इतनेपर भी तुम्हें यह गर्व है कि मैं भगवान्का बड़ा भारी भक्त हूँ। अच्छा में देखूँगा, तुममें कितनी भक्ति है। आज यहाँ जितने ब्राह्मण उपस्थित हैं, वे सब मेरी बात सुन लें। आपलोग देखें, भगवान् विष्णुका दर्शन पहले मुझे होता है या इस विष्णुदासको। इसीसे किसमें कितनी भक्ति है, इसका निर्णय हो जायगा।'
यों कहकर राजा अपने भवनको चले गये। वहाँ उन्होंने महर्षि मुद्रलको आचार्य बनाकर महान् वैष्णवय प्रारम्भ किया। उधर विष्णुदास भगवान् विष्णुको सन्तुष्ट करनेवाले व्रत एवं नियमोंका पालन करते हुए वहाँ भगवान के मन्दिरके समीप टिक गये। वे माघ एवं कार्तिकके व्रतोंका पालन करते, तुलसीके बगीचे लगाते, सींचते और उनकी रक्षा करते थे। एकादशीको द्वादशाक्षर मन्त्रका जप तथा नृत्य, गीत आदि मङ्गलमय आयोजनोंके साथ पोडशोपचारसे भगवान्की पूजा करते चलते फिरते, सोते भगवान्का ही चिन्तन करते। उनकी दृष्टि सर्वत्र सम हो गयी थी। ये सब प्राणियों के भीतर एकमात्र भगवान् विष्णुको ही स्थित देखते थे। इस प्रकार राजाचोल और विष्णुदास दोनों भगवान्की आराधनामें संलग्न थे। एक दिन विष्णुदासने नित्य-कर्म करनेके पश्चात् भोजन
तैयार किया। किंतु जब वे भगवान्को भोग अर्पण करनेके | लिये गये, उस समय किसी अलक्षित व्यक्तिने आकर उसको चुरा लिया। विष्णुदासने लौटकर देखा भोजन नहीं है। परंतु उन्होंने दुबारा भोजन नहीं बनाया। क्योंकि ऐसा करनेपर सायङ्कालकी पूजाके लिये उन्हें अवकाश नहीं ●मिलता था। उन्होंने जो नियम ले रखा था, उसमें किसी भी कारणसे किञ्चित् भी त्रुटि हो, यह उन्हें स्वीकार नहीं था। दूसरे दिन पुनः उसी समयपर वे भोजन बनाकर ज्यों ही भगवान्को अर्पण करने लगे त्यों ही किसी अदृश्य व्यक्तिने पुनः सारा भोजन हड़प लिया। इस प्रकार लगातार सात दिनोंतक वे भूखे रह गये। इससे उनके मनमें बड़ा विस्मय हुआ। वे सोचने लगे 'कौन प्रतिदिन आकर मेरी रसोई उठा ले जाता है। यदि दुबारा रसोई बनाकर भोजन करता हूँ तो सायङ्कालकी उपासनामें त्रुटि आती है। यदि रसोई बनाकर तुरंत ही भोजन कर लेनेकी बात सोचूँ तो यह भी मुझसे न होगा। क्योंकि भगवान् विष्णुको सब कुछ अर्पण किये बिना कोई भी वैष्णव भोजन नहीं करता। आज सात दिन हो गये, मुझे अन्न नहीं मिला। इस प्रकार मैं व्रतपालनमें कबतक स्थिर रह सकता हूँ। अच्छा, आज रसोईकी रक्षापर भलीभाँति दृष्टि रखूँगा।'
ऐसा निश्चय करके वे भोजन बनानेके पश्चात् एकान्त स्थानमें छिपकर खड़े हो गये। इतनेमें ही उन्हें एक चाण्डाल दिखायी दिया, जो रसोईका अन्न उठा ले जानेके लिये तैयार खड़ा था। उसका शरीर अत्यन्त दुर्बल था। मुखपर दीनता छा रही थी। देहमें हाड़ और चामके सिवा और कुछ नहीं था। उसकी दयनीय दशा देख सबमें भगवान्का दर्शन करनेवाले विष्णुदासका हृदय दयासे भर आया। उन्होंने चाण्डालकी ओर देखकर कहा- 'भैया! जरा ठहरो तो, क्यों रूखा-सूखा खाते हो? यह घी तो ले लो।' विष्णुदासकी आवाज सुनते ही चाण्डाल भयभीत होकर बड़े वेगसे भागा और थोड़ी ही दूर जाते-जाते मूच्छित होकर गिर पड़ा। विष्णुदास हाथमें घीकी कटोरी लिये दौड़ते हुए उसके पास गये और उसे मूर्च्छित देख करुणावश अपने वस्त्रके छोरसेहवा करने लगे। इतनेमें वह उठकर खड़ा हो गया। विष्णुदासने देखा वह चाण्डाल नहीं, साक्षात् भगवान् नारायण सामने खड़े हैं। सब और दिव्य प्रकाश छा रहा है। चार हाथोंमें शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म शोभा पा रहे हैं। मुखपर मन्द मन्द मुसकान सुशोभित है और नेत्रोंसे स्नेह एवं वात्सल्यकी वर्षा हो रही है। अपने प्रभुको प्रत्यक्ष देखकर विष्णुदास हर्ष, रोमाञ्च एवं अश्रुपात आदि | सात्त्विक भावोंके वशीभूत हो गये। स्तुति और नमस्कार करनेमें भी समर्थ न हो सके। भगवान्ने अपनी भुजाएँ फैलाकर विष्णुदासको छातीसे लगा लिया और उन्हें अपने ही जैसा रूप देकर वे वैकुण्ठधामको ले चले।
उस समय यज्ञमें दीक्षित हुए राजा चोलने देखा, आकाशमें एक दिव्य विमान जा रहा है। उसपर विष्णुदास भगवान् के साथ बैठकर विष्णुधाममें जा रहे हैं। यह देखकर राजाने महर्षि मुद्रलको बुलाया और इस प्रकार कहा- जिसके साथ होड़ करके मैंने यह महायज्ञ प्रारम्भ किया था, वह ब्राह्मण मुझसे पहले ही वैकुण्ठ धामको जा रहा है। मैंने होम, यज्ञ, दान आदिके द्वारा | महान् धर्मका अनुष्ठान किया, तथापि अभीतक भगवान् मुझपर प्रसन्न नहीं हुए। विष्णुदासको केवल भक्तिके ही कारण भगवान्ने मुझसे पहले ही अपना लिया। जान पड़ता है भगवान् श्रीहरि केवल दान और यज्ञोंसे प्रसन्न नहीं होते। उनकी प्राप्तिमें विशुद्ध भक्ति ही प्रधान कारण है।'
यों कहकर राजाने अपने भानजेको राजसिंहासनपर अभिषिक्त कर दिया और स्वयं यज्ञशालामें जाकर यज्ञकुण्डके सामने खड़े हो गये। फिर भगवान् विष्णुको सम्बोधित करके तीन बार उच्चस्वरसे निम्राङ्कित वचन बोले-'भगवान् विष्णु आप मुझे मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा होनेवाली अविचल भक्ति प्रदान कीजिये।' यों कहकर वे सबके देखते-देखते अग्निकुण्डमें कूद पड़े। राजाका अभिमान गल चुका था। भक्तवत्सल भगवान् विष्णु उसी क्षण अग्निकुण्डमें प्रकट हो गये। उन्होंने राजाको छातीसे लगाकर एक श्रेष्ठ विमानपर बैठाया और उन्हें साथ ले वैकुण्ठधामको प्रस्थान किया।
यही विष्णुदास और चोल वैकुण्ठधाममें भगवान्
विष्णुके 'पुण्यशील' और 'सुशील' नामक पार्षद हुए l
bhagavaan bhakti bhaavake bhookhe hain, dhana-vaibhavake naheen. ve bhaktaka hriday dekhate hain. usake dvaara bhent kee jaanevaalee vastu bahumooly hai ya tuchchh, isako aur unakee drishti naheen jaato ve apane premee bhaktake dvaara premapoorvak arpit kiye hue patr, pushp, phal, jal aadiko bada़e premase bhog lagaate hain. bhakt purush chakravartee naresh ho ya akinchan bhikshu dononke liye unake hridayamen samaan aadar hai. bhaktake hridayamen tanik bhee abhimaanaka ankar udit ho, yah bhagavaanko sahy naheen hai. abhimaanashoony akinchan bhakt bhaktibhaavaka abhimaan rakhanevaale samriddhishaalee purushakee apeksha bhagavaan ke darabaaramen pahale pahunchata hai. praacheen kaalako baat hai. dakshin bhaaratakee kaanchee nagareemen chol naamase prasiddh ek raaja raajy karate the. unhonke naamapar unake adheenasth pradeshako bhee chol kaha jaane lagaa. raaja bada़e dharmaatma the; unake raajyamen koee bhee manushy daridr, duhkhee aur paapaachaaree naheen thaa. ek din mahaaraaj chol anantashayan naamak teerthamen gaye. yah vahee sthaan hai, jahaan jagadeeshvar bhagavaan vishnune yoganidraaka aashray lekar shayan kiya thaa. vahaan raajaane bhagavaan vishnuke sheshashaayee divy vigrahako vidhipoorvak pooja kee, divy maniyonkee jagamagaatee huee maala bhent kee, motiyonk haar baढ़aaye tatha suvarnamay sundar pushponse bhagavaanke shree angako sajaayaa. phir saashtaang pranaam karake ve vaheen kuchh kaalatak baithe rahe. isee samay ek braahmana-devata vahaan aaye. ve bhee kaanchee nagareeke hee nivaasee the. unaka naam vishnudaas thaa. unhonne bhagavaankee poojaake liye apane haathamen tulaseedal aur jal le rakha thaa. bhagavad vigrahake nikat jaakar brahmarshivishnudaasane vishnusooktaka paath karate hue devaadhidev bhagavaanko snaan karaaya aur tulaseedal evan tulaseemanjareese unakee vidhivat pooja kee. raaja cholane divy ratnondvaara jo bhagavaankee pooja kee thee, vah sab tulaseedalonse aachchhaadit ho gayee. yah dekh dhana-vaibhavaka hee samaadar karanevaale raaja chol kupit hokar bole-'vishnudaas mainne maniyon aur suvarnonse bhagavaanka jo bhringaar kiya tha, usako kitanee shobhaaho rahee thee. tumane tulaseedal chadha़aakar use dhank diyaa. bataao to aisa kyon kiyaa? main samajhata hoon-tum daridr aur ganvaar ho, iseeliye tumhaare dvaara aisee bhool huee hai. tumhaare manamen bhagavaan vishnuke prati bhaktibhaavaka sarv abhaav prateet hota hai.'
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vishnuke 'punyasheela' aur 'susheela' naamak paarshad hue l