श्रीजगन्नाथपुरीसे दस कोस दूर पीपलीचटी ग्राममें रघु केवटका घर था । घरमें स्त्री और बूढ़ी माता थी। सबेरे जाल लेकर रघु मछलियाँ पकड़ने जाता और पकड़ी हुई मछलियोंको बेचकर परिवारका पालन करता पूर्वजन्मके पुण्य संस्कारोंके प्रभावसे रघुके हृदयमें भगवान्की भक्ति थी। वह अत्यन्त दयालु था। मछलियाँ जब उसके जालमें आकर तड़पने लगतीं, तब उसका चित्त व्याकुल हो जाता। उसे अपने कार्यपर ग्लानि होती; परंतु जीवन निर्वाहका दूसरा कोई साधन न होनेसे वह अपने व्यवसायको छोड़ नहीं पाता था।
रघुने एक अच्छे गुरुसे दीक्षा ले ली थी। गलेमें तुलसीकी कण्ठी बाँध ली थी। सबेरे स्नान करके भगवनामका जप करता था। भागवत सुनना और सत्सङ्गमें जाना उसका दैनिक कार्य हो गया था। इन सबसे उसका अन्त:करण धीरे-धीरे शुद्ध हो गया। जीवमात्रमें भगवान् विराजमान हैं, यह बात उसकी समझमें आने लगी। जीव-हिंसासे उसे अब तीव्र विरक्ति हो गयी। रघुके लिये मछली पकड़ना बहुत ही क्लेशदायक हो गया। उसने इस कामकी छोड़ दिया। कुछ दिन तोघरके सञ्चित अन्नसे काम चला; पर सञ्चय था ही कितना । उपवास होने लगा । घरमें त्राहि-त्राहि मच गयी। पेटकी ज्वाला तथा माता और स्त्रीके तिरस्कारसे व्याकुल होकर रघुको फिर जाल उठाना पड़ा। वह स्वयं तो भूखसे प्राण दे सकता था, पर वृद्धा माता और पत्नीका कष्ट उससे सहा नहीं जाता था । पछताता, भगवान्से प्रार्थना करता वह तालाबपर गया। जाल डालनेपर एक बड़ी-सी लाल मछली उसमें आयी और जलसे निकालनेपर तड़पने लगी। रघुका हृदय छटपटा उठा। उसे स्मरण आया कि सभी जीवोंमें भगवान् हैं। उस तड़पती मछलीमें उसे स्पष्ट भगवान् प्रतीत होने लगे। इसी समय उसे माता और पत्नीकी भूखी आकृतिका स्मरण हुआ । दुःखी, व्याकुल रघुने मछलीको जालसे निकालकर पकड़ा और कहने लगा- 'मत्स्यरूपधारी हरि ! मेरे दुःखकी बात सुनो। तुम्हींने मुझे धीवर बनाया है। जीवोंको मारकर पेट भरनेके सिवा और कोई दूसरा उपाय मैं जीवन-निर्वाहका नहीं जानता। इससे तुमको मारनेके लिये मैं विवश हूँ। तुम हरि हो या और कोई, आज मेरे हाथसे बचकर नहीं जा सकते।'रघुने दोनों हाथोंसे जोरसे मछलीका मुख पकड़ा और उसे फाड़ने लगा। सहसा मछलीके भीतरसे स्पष्ट शब्द आया- 'रक्षा कर, नारायण! रक्षा कर।' रघु चकित हो गया। उसका हृदय आनन्दसे भर गया। मछलीको लेकर वह वनकी ओर भागा। वहाँ पर्वतसे बहुत-से झरने गिरते थे। उन झरनोंने अनेक जलकुण्ड बना दिये थे रघुने एक कुण्डमें मछली डाल दी।
रघु भूल गया कि वह कई दिनसे भूखा है। भूल गया कि घरमें माता तथा स्त्री उसकी प्रतीक्षा करती होंगी। वह तो कुण्डके पास बैठ गया। उसके नेत्रोंसे दो झरने गिरने लगे। वह भरे कण्ठसे कहने लगा- 'मछलीके भीतरसे मुझे तुमने 'नारायण' नाम सुनाया? अब तुम दर्शन क्यों नहीं देते? तुम्हारा स्वर इतना मधुर है तो तुम्हारी छवि कितनी सुन्दर होगी! मैं तुम्हारा दर्शन पाये बिना अब यहाँसे उहूँगा नहीं।'
रघुको वहाँ बैठे-बैठे तीन दिन हो गये। वह 'नारायण, नारायण' की रट लगाये था। नारायणमें तन्मय था। एक बूँद जलतक उसके मुखमें नहीं गया। दिन और रातका उसे पता ही नहीं था। भक्तकी सदा खोज-खबर रखनेवाले भगवान् एक वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें वहाँ आये और पूछने लगे- 'अरे तपस्वी! तू कौन है? तू इस निर्जन वनमें क्यों आया? कबसे बैठा है यहाँ ? तेरा नाम क्या है?"
रघुका ध्यान टूटा। उसने ब्राह्मणको प्रणाम करके कहा- 'महाराज! मैं कोई भी होऊँ, आपको मुझसे क्या प्रयोजन है। बातें करनेसे मेरे काममें विघ्न पड़ता है। आप पधारें।'
ब्राह्मणने तनिक हँसकर कहा-'मैं तो चला जाऊँगा: पर तू सोच तो सही कि मछली भी कहीं मनुष्यकी बोली बोल सकती है। तुझे भ्रम हो गया है। जब कुछ उस मछलीमें हैं ही नहीं, तब तुझे किसके दर्शन होंगे। तू यहाँ व्यर्थ क्यों बैठा है। घर चला जा "
रघु तो ब्राह्मणकी बात सुनकर चौंक पड़ा। उसने समझ लिया कि मछलीकी बात जाननेवाले ये सर्वज्ञ मेरे प्रभु ही हैं। वह बोला- भगवन्! सब जीवोंमें परमात्मा ही हैं, यह बात मैं जानता हूँ। मछलीके शरीरमेंसे वे हीबोलनेवाले हैं। मैं बड़ा पापी हूँ। जीवोंकी हत्या की है मैंने। क्या इसीसे आप मेरी परीक्षा ले रहे हैं? आप की 1 तो नारायण हैं। आप प्रकट होकर मुझे दर्शन क्यों नहीं देते। मुझे क्यों तरसा रहे हैं, नाथ।'
धलकी प्रेमभरी प्रार्थना सुनकर कृपासागर प्रभु अपने दिव्य चतुर्भुजरूपसे प्रकट हो गये। रघु तो एकटक देखता रह गया उस लावण्यराशिको वह आँसू बहाता हुआ प्रभुके चरणोंमें लोटने लगा। भगवान्ने उसे भक्तिका आशीर्वाद देकर और भी वर माँगनेको कहा। | रघुने हाथ जोड़कर कहा-'प्रभो। आपके दर्शन हो गये और आपने भजनका आशीर्वाद दे दिया, फिर अब माँगनेको क्या रहा। परंतु आपकी आज्ञा है तो मैं एक छोटी वस्तु माँगता हूँ। जातिसे धीवर हूँ मछली मारना मेरा पैतृक स्वभाव है। मैं यही वरदान माँगता हूँ कि मेरा यह स्वभाव छूट जाय। पेटके लिये भी मैं कभी हिंसा न करूँ। अन्त समयमें मेरी जीभ आपका नाम रटती रहे और आपका दर्शन करते हुए मेरे प्राण निकलें।' भगवान्ने रघुके मस्तकपर हाथ रखकर 'तथास्तु' कहा और अन्तर्धान हो गये।
भगवान्का दर्शन पाकर रघु सम्पूर्ण बदल गया। वह भगवन्नाम-कीर्तन करता हुआ घर आया। गाँवके लोगोंने उसे धिक्कारा कि माता और स्त्रीको निराधार छोड़कर वह भाग गया था। दया करके गाँवके जमींदारने बेचारी स्त्रियोंके लिये अन्नका प्रबन्ध कर दिया था। रघुने इसे भगवान्की दया ही मानी। यदि वह घरपर रहता तो जमींदार या कोई भी एक छटाँक अन्न देनेवाला नहीं था। अब वह प्रातः शौच-स्नानादिसे निवृत्त होकर भगवान्का भजन करता और फिर कीर्तन करता हुआ गाँवमें घूमता बिना माँगे ही लोग उसे बुलाकर अनेक पदार्थ देते थे। इस प्रकार अनायास उसका तथा परिवारका पालन-पोषण होने लगा। उसकी माता तथा स्त्री भी अब भजनमें लग गयीं। रघु अब भजनके प्रभावसे पूरा साधु हो गया। दिन-रात उसका मन भगवान्में लगा रहता था। वह नामकीर्तन करते-करते बेसुध हो जाता था। अब रघुकी स्थिति ऐसी हो गयी कि उनके मुखसेजो निकल जाता, वही सत्य हो जाता। वे वचनसिद्ध महात्मा माने जाने लगे। दूर-दूरसे नाना प्रकारकी कामनावाले स्त्री-पुरुषोंकी भीड़ आने लगी। रघु इस प्रपञ्चसे घबरा गये। मान-प्रतिष्ठा उन्हें विष-सी लगती थी। घर छोड़कर वे अब निर्जन वनमें रहने लगे और चौबीसों घंटे केवल भजनमें ही बिताने लगे।
एक दिन रघुको लगा कि मानो नीलाचलनाथ श्रीजगन्नाथजी उनसे भोजन माँग रहे हैं। इससे उन्हें बड़ा आनन्द हुआ। भोजन-सामग्री लेकर उन्होंने कुटियाका द्वार बंद कर लिया। भक्तके बुलाते ही भावके भूखे श्रीजगन्नाथ प्रकट हो गये और रघुके हाथसे भोजन करने लगे।
उधर उसी समय नीलाचलमें श्रीजगन्नाथजीके भोग मण्डपमें पुजारीने नाना प्रकारके पक्वान्न सजाये श्रीजगन्नाथजीके मन्दिरसे भोग मण्डप अलग है। भोग मण्डपमें एक दर्पण लगा है। उस दर्पणमें जगन्नाथजीके श्रीविग्रहका जो प्रतिबिम्ब पड़ता है, उसीको नैवेद्य चढ़ाया जाता है। सब सामग्री आ जानेपर पुजारी जब भोग लगाने लगा, तब उसने देखा कि दर्पणमें प्रतिबिम्ब तो पड़ता ही नहीं है। दर्पण जहाँ-का-तहाँ था, बीचमें कोई आड़ भी नहीं थी; पर प्रतिबिम्ब नहीं पड़ रहा था। घबराकर वह राजाके पास गया। उसने कहा- 'महाराज ! नैवेद्यमें कुछ दोष होना चाहिये। श्रीजगन्नाथ स्वामी उसे स्वीकार नहीं कर रहे हैं। अब क्या किया जाय।'
श्रद्धालु राजाने स्वयं देखा कि दर्पणमें प्रभुका प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता। उन्हें बड़ा दुःख हुआ। वे कहने लगे- 'पता नहीं मुझसे क्या अपराध हो गया कि मेरी सामग्रीसे अर्पित भोग प्रभु स्वीकार नहीं करते। मुझसे कोई अपराध हुआ हो तो प्रायश्चित्त करनेको मैं तैयार हूँ।'
राजा प्रार्थना करते हुए दुःखी होकर भगवान्के गरुड़ध्वजके पास जाकर भूमिपर ही लेट गये। भगवान्की लीलासे लेटते ही उन्हें तन्द्रा आ गयी। उन्होंने स्वप्रमें देखा कि प्रभु कह रहे हैं-'राजा! तेरा कोई अपराधनहीं तू दुःखी मत हो मैं नीलाचलमें था ही नहीं, तब प्रतिबिम्ब किसका पड़ता। मैं तो इस समय पीपलीचटी ग्राममें अपने भक्त रघु केवटकी झोपड़ीमें बैठा उसके हाथसे भोजन कर रहा हूँ। वह जबतक नहीं छोड़ता, मैं यहाँ आकर तेरा नैवेद्य कैसे स्वीकार कर सकता हूँ। यदि तू मुझे यहाँ बुलाना चाहता है तो मेरे उस भक्तको उसकी माता तथा स्त्रीके साथ यहाँ ले आ। यहाँ उनके रहनेको व्यवस्था कर।'
राजाका स्वप्र टूट गया। वे एकदम उठ खड़े हुए। पोड़ेपर बैठकर शीघ्रता से पीपलीचटी पहुंचे। पूछ पाछकर रघु केवटकी झोपड़ीका पता लगाया। जब कई बार पुकारनेपर भी द्वार न खुला, तब द्वार बल लगाकर स्वयं खोला उन्होंने कुटिएका दृश्य देखते ही मूर्तिकी भत हो गये। रोमाञ्चित शरीर रघु सामने भोजन रखे किसीको ग्रास दे रहा है। रघु दीखता है, अन दीखता है, ग्रास दीखता है; पर ग्रास लेनेवाला मुख नहीं दीखता। राजा चुपचाप खड़े रहे। वह अज्ञात मुख तो जिसे कृपा करके वह दिखाना चाहे, वही बड़भागी देख सकता है।
सहसा प्रभु अन्तर्धान हो गये। रघु जलसे निकाली मछलीकी भाँति तड़पने लगा। राजाने अब उसे उठाकर गोदमें बैठा लिया। रघुको होश आया। अपनेको राजाको गोदमें देख वे चकित हो गये। जल्दीसे उठकर वे राजाको प्रणाम करने लगे। उन्हें रोककर स्वयं पुरी नरेशने उनके चरणोंमें प्रणाम किया। श्रीजगन्नाथजीकी आज्ञा सुनकर रघुने नीलाचल चलना स्वीकार कर लिया। माता तथा पत्नीके साथ वे पुरी आये। उनके नीलाचल पहुँचते ही भोगमण्डपके दर्पणमें श्रीजगन्नाथजीका प्रतिबिम्ब दिखायी पड़ा।
पुरीके राजाने श्रीजगन्नाथजीके मन्दिरसे दक्षिण और रघुके लिये घरकी व्यवस्था कर दी। आवश्यक सामग्री भिजवा दी वहाँ रघु अपनी माता और स्त्रीके साथ भजन करते हुए जीवनपर्यन्त वहीं रहे।
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