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भक्त रसिकमुरारिजी की मार्मिक कथा
भक्त रसिकमुरारिजी की अधबुत कहानी - Full Story of भक्त रसिकमुरारिजी (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्त रसिकमुरारिजी]- भक्तमाल


भक्त रसिकमुरारिजी भगवान् श्यामसुन्दरके रूप-रस और लीला-माधुर्यके पूरे रसिक थे। वे दिव्य युगलस्वरूपके उपासक थे। श्यामाश्यामकी निकुञ्ज-लीलाका चिन्तन ही उनका परम धन था। नन्दनन्दन और रासेश्वरी रसमयी श्रीवृषभानुनन्दिनीका स्मरण ही उनके जीवनका आधार था। संत-सेवा और गुरुभक्तिमें उनकी दृढ़ निष्ठा थी। वे सरल और सरस स्वभावके रसिक प्राणी थे।

रसिकमुरारिजीके गुरु श्यामानन्दकी जागीर एक दुष्ट राजाने छीन ली। श्यामानन्दने उनको पत्र लिखा कि तुम जिस दशामें हो, उसीमें शीघ्र ही चले आओ। उस समय वे भोजन कर रहे थे। बिना हाथ-मुख धोये ही वे चल पड़े। गुरु आज्ञाकी मर्यादा ही ऐसी थी। गुरुका निवास सत्रह कोसकी दूरीपर था। श्यामानन्दजीने उन्हें उस दशामें देखकर बड़ा आश्चर्य प्रकट किया और उनकी कार्यतत्परता और आज्ञाकारिताकी बड़ी सराहना की। रसिकमुरारिने गुरुकी जागीर लौटानेके लिये राजाके पास जानेका निश्चय किया, किंतु उनके शिष्योंने उन्हें राजाकी दुष्टतासे अवगत कराया और जानेसे रोका। उन्होंने किसीकी बात नहीं मानी। राजाने उनके आनेकी बात सुनकर एक मतवाला दुष्ट हाथी उनके ऊपर छोड़नेका इरादा किया और सभासदोंसे कहा कि 'यदि उनमें कुछ शक्ति होगी तो हाथी उन्हें छोड़ देगा और इस तरह उनकी सिद्धिका भी पता चल जायगा।' पर यह सब कुछ तो बहाना था, वह तो उन्हें जानसे मारकर जागीर हड़प लेना चाहता था।

गजराज झूमता हुआ उनके पथपर मदोन्मत्त-सा विचर रहा था। श्यामा-श्यामके अनन्य सेवक रसिकमुरारिकीपालकी राजसभाकी ओर आ रही थी। वे निर्भयतापूर्वक प्रभुका स्मरण करते पालकीमें सवार होकर चले आ रहे थे। जीव चराचरमें भगवान् नन्दनन्दनके दर्शन करनेवाले रसिक भक्तने देखा कि कहारोंने पालकी रख दी और वे भाग खड़े हुए। सामने मदमत्त गजराज झूमता-झामता पहुँच गया। रसिकमुरारिको अपनी प्राणरक्षाकी चिन्ता नहीं थी। उन्हें तो गजराजको किसी तरह इस भयानक पापकर्मसे मुक्तकर भगवान्‌की भक्तिका माधुर्य चखाना था। उन्होंने कृपाभरी दृष्टिसे गजराजको देखा। प्रेमभरी मुसकान बिखेरकर कहा कि 'भैया! तुम चेतन हो, तुम्हारे रोम-रोममें भगवत्-सत्ता व्याप्त है, तुम हाथीका तमोगुण छोड़ दो। इस पापग्राहसे छुटकारा पानेके लिये भगवान्का स्मरण करो। भव-बन्धनसे मुक्ति मिल जायगी।' भक्तकी रसमयी वाणीके प्रभावसे गजराजका मद उतर गया। उसका हृदय भक्तिभावसे आह्लादित हो उठा। हाथीने नतमस्तक होकर रसिकमुरारिकी चरण वन्दना की। ऐसा लगता था कि तमोगुणने सत्त्वगुणकी प्रभुता स्वीकार कर ली। वह अधीर हो उठा, नयनोंसे अश्रुकी धारा बहने लगी। रसिकमुरारिने उसे श्रीकृष्ण नामसे अभिमन्त्रितकर कहा-' श्रीकृष्णका नाम माधुर्यका अनन्त सागर है। एक कणिकामात्रके संस्पर्शसे करोड़ों जन्मोंके पाप मिट जाते हैं। जीव उनके रूप-रसमें अवगाहनकर धन्य और कृतार्थ हो जाता है।' उन्होंने इस शिष्य हाथीका नाम 'गोपालदास' रखा। भक्त मुरारिके दर्शनसे राजाकी दुष्टताका नाश हो गया। उसने उनके चरण पकड़ लिये, क्षमा माँगी। श्यामानन्दकी जागीर लौटा दी। रसिकमुरारिकी गुरुभक्ति धन्य हो गयी।



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