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भक्त सेठ रमणलाल की मार्मिक कथा
भक्त सेठ रमणलाल की अधबुत कहानी - Full Story of भक्त सेठ रमणलाल (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्त सेठ रमणलाल]- भक्तमाल


सेठ रमणलालका देश-विदेशमें कई जगह कारोबार था। बड़ी-बड़ी नावोंमें देशसे माल विदेश भेजा जाता था और विदेश से यहाँ लाया जाता था। रमणलाल अत्यन्त साधु-स्वभावके भक्त पुरुष थे। भगवान्‌में उनका अगाध विश्वास था। वे श्रीमद्भगवद्गीताके बड़े विश्वासी थे। नित्य बड़े आदरसे भगवद्गीताका मनन करते और भगवान्‌के आज्ञानुसार पवित्र निष्काम जीवन बिताते हुए भगवत्प्रीत्यर्थ ही अपने वर्णाश्रम धर्मानुसार व्यापार आदि कार्य करते थे। उनकी धर्मपत्नी चम्पाबाई भी बड़ी हो भक्तिमती थी। घरमें श्रीगोविन्ददेवजीका विग्रह था और दोनों पति पत्नी स्वयं बड़े भक्तिभावसे नियमित भगवान्‌का अर्चन पूजन किया करते थे। दिनमें सेठ अपनी पैढ़ीपर जाते और लगभग छः घंटे काम-काज भलीभाँति सम्हालकर घर लौट आते। चार घंटे शौच-स्नान, भोजन-पान और अतिथि सत्कार आदिमें लगते, चार घंटे सोते शेष दस घंटे भजन-पूजन, स्वाध्याय जप और स्मरण ध्यान आदिमें बीतते। बड़ी ही नियमित और निर्मल जीवनचर्या थी। उनके आदर्श सद्व्यवहारसे सैकड़ों मुनीम गुमाश्ते और नौकर-चाकरोंकी तो बात ही क्या, दूर-दूरके लोग भी बड़े सन्तुष्ट थे। जो भी उनके सम्पर्क में आता, वही उनके प्रेम और सत्कारपूर्ण हितभरे व्यवहारसे मुग्ध हो जाता। वे बड़े व्यवहार कुशल और हिसाब-किताबके साफ थे; परंतु उनकी व्यवहारकुशलतामें कहीं भी उलकपट या परस्वत्वापहरणकी कल्पना भी नहीं थी। उनमें
परहितपरायणता और विनयशीलता तो कूट-कूटकर भरी थी। वे किसीपर कभी गुस्सा तो होते ही नहीं थे। सदैव
हँसमुख और विनय-विनम्र-नेत्र रहते थे। एक बार रसोइयाने भूलसे हलुएमें शक्करकी जगह नमकका पानी बनाकर डाल दिया और तरकारियोंमें नमककी जगह शक्कर डाल दी। वह अपनी पत्नीकी बीमारीके कारण रातभरका जगा हुआ था और पत्नीको रुग्णताकै कारण उसके मनमें चिन्ता भी थी। इसीसे भूल हो गयी। सेठ रमणलाल भोजन करने बैठे तो उन्हें हलुआ नमकीन और तरकारी मीठी किंतु बिना नमकको मालूमहुई। उन्होंने रसोइयेके चेहरेकी ओर देखा। उसका चेहरा उदास था। सेठने हार्दिक सहानुभूतिके स्वरमें उससे पूछा- 'महाराज ! आज उदास कैसे हो?' लाभशङ्कर रसोइयेने जवाब दिया- 'ब्राह्मणी बीमार है, इसीसे चेहरेपर कुछ मलिनता आ गयी होगी।' उसने रात जगनेकी बात नहीं कही। पर सेठ उसकी उनींदी आँखोंको देखकर ताड़ गये। उन्होंने कहा- 'लाभशङ्कर! तुम खाकर जल्दी घर चले जाओ-ब्राह्मणी अकेली है, उसे सँभालो; यहाँ दूसरा आदमी काम कर लेगा। तुम भला, आये ही क्यों? फिर भैया ! तुम्हारे घरमें दूसरा कोई है भी तो नहीं। तुम रातभर जगे भी होओगे! मैं एक आदमी भेजता हूँ, वह बैठेगा, तुम कुछ देर आराम कर लेना।' रसोइयाको मालिकके सहानुभूतिभरे शब्दोंसे बड़ी सान्त्वना मिली। वह मन-ही-मन आशीर्वाद देता हुआ घर चला गया।

लाभशङ्करके चले जानेपर सेठ रमणलालने अपनी पत्नी चम्पाबाईसे धीरेसे कहा-'देखो, बेचारा डरके मारे स्त्रीको बीमार छोड़कर कामपर आ गया। रातकी नींद थी और ब्राह्मणीकी चिन्ता थी। इससे उसने भूलसे हलुएमें नमक और तरकारियोंमें शक्कर डाल दी है। अगर इन चीजोंको घरके सब लोग - नौकर-चाकर आदि खायँगे तो बेचारे ब्राह्मणकी हँसी उड़ायेंगे और उसे भारी दुःख होगा। अतएव ये चीजें गोशालामें ले जाकर गायोंको खिला दो और जल्दीसे दूसरी बार हलुआ-तरकारी बनवा लो, जिसमें लाभशङ्करकी भूलका किसीको पता भी न लगे।' चम्पाबाईने वैसा ही किया। बात बहुत छोटी, परंतु इससे सेठ रमणलालकी विशालहृदयता और सदाशयताका पता लगता है!

कुछ दिनों बाद एक दिन चम्पाबाईने हँसते-हँसते लाभशङ्करको उसकी उस दिनकी भूलकी बात बतला दी। वह बेचारा सुनकर सकबका गया। उसने सेठके पास जाकर क्षमा माँगी। सेठने प्यार करते हुए उससे कहा- 'लाभशङ्कर! तुम्हारी जगह हम होते तो वैसी हालतमें हमसे तो कोई दूसरा काम ही नहीं बन पड़ता। तुमने इतनी सारी रसोई बना दी। नमक-शक्करमें जरा उलट-पुलट हो गयी तो इसमें अपराध क्या हो गया, जोक्षमा माँगते हो? तुम्हारी नीयत तो बुरी थी नहीं।' लाभशङ्करका हृदय कृतज्ञतासे भर गया। उसने विनयके साथ कहा—'सेठजी ! मैं जानता हूँ, आप बड़े दयालु हैं; पर आपने मुझे भूल बतायी क्यों नहीं?" सेठ रमणलाल बोले- 'भैया । उस दिन तुम पहलेसे ही दुःखी थे, तुम्हारी भूल बताकर मैं तुम्हारा दुःख ही तो बढ़ाता। फिर सच्ची बात तो यह है कि मुझसे कभी भूल न होती हो तो मैं तुम्हारी भूलकी चर्चा करूँ जब मैं खुद अनेकों भूलें करता हूँ, अच्छी हालत में भूल करता हूँ, तब तुमसे एक विशेष परिस्थितिमें बनी मामूली भूलकी चर्चा चलाकर नयी भूल क्यों करता। दूसरेकी भूलपर उसीको बुरा माननेका अधिकार हो सकता है, जिससे जीवनमें कभी भूल नहीं होती हो !'

एक बार सेठ रमणलालकी कुछ मालसे भरी नावें समुद्रमें डूब गयीं। मल्लाह तो सब बच गये, परंतु मालका कुछ भी हिस्सा नहीं बच पाया। सेठको समाचार मिला तो उन्होंने निर्विकार चित्तसे कहा- 'अवश्य ही यह कोई पापका पैसा था। नहीं तो, भगवान्‌के निर्भ्रान्त मङ्गल विधानमें नाव डूबनेका प्रसंग ही क्यों आता।' पीछे पता चला कि जहाँसे माल आ रहा था, वहाँके कर्मचारियोंने पैसा लोभसे अनुचित कमाई की थी। सेठ का भगवान्ते बड़ा मङ्गल किया जो पापसे लदी नावें राहमें डूब गयीं। कहीं वह पैसा घरमें आ जाता तो पता नहीं उससे हमलोगोंकी बुद्धि बिगड़नेपर क्या दशा होती।'

एक बार सेठ रमणलालकी किसी व्यापारकी शाखामें अनाजकी गोदामोंको लोगोंने लूट लिया। उनमें कई लाखका अनाज भरा था। इस खबरको सुनकर शहरके कुछ बन्धुबान्धव सहानुभूति दिखाने और हाल पूछने सेठके पास सबेरे ही आये। सेठ उस समय गीताका पारायण कर रहे थे। उनके चेहरेपर जरा भी उद्वेगका चिह्न नहीं था। स्वाभाविक शान्ति और प्रसन्नता निखर रही थी। उन्होंने समागत लोगोंसे पूछा, 'आज आपलोग इस समय घरपर कैसे पधारे? कोई मेरे योग्य खास सेवा हो तो आज्ञा कीजिये।' उन लोगोंने रमणलालके चेहरेपर कोई विकार न देखकर सोचा, 'शायद समाचार झूठा हो।'उन्होंने कहा- 'हमलोगोंने सुना था कि आपकी किसी शाखा में भारी डाका पड़ गया है; परंतु बड़ा अच्छा हुआ जो वह अफवाह झूठी निकली। भगवान्ने बहुत अच्छा किया। इसपर सेठ रमणलालने मुसकराते हुए कहा-'बत तो झूठी नहीं है पर आपका यह कहना सर्वथा सत्य है कि भगवान्ने बड़ा अच्छा किया। सचमुच श्रीभगवान्ने इसमें मेरा कई तरहसे बड़ा उपकार किया है। भगवान्के मङ्गलमय मर्मको तो भगवान् हो जानें पर मैंने इतना तो समझा है कि प्रथम तो उन्होंने मेरी परीक्षा की है कि धनके लुट जानेसे मुझको दुःख होता है या मैं उनके मङ्गलविधानका आनन्दके साथ स्वागत करता हूँ। दूसरे, उस प्रान्तमें इस समय अकालके लक्षण दिखलायी देने लगे थे मेरा विचार था कि मैं वहाँके संगृहीत अनाजमेंसे कुछ हिस्सा अकालपीड़ित भाई बहिनों की सेवामें समर्पण कर दूँ। उनके रूपमें भी तो मेरे भगवान् ही हैं। पर मैं देर कर रहा था और मेरे मनमें कुछ बचा रखनेका लोभ या भगवानको प्रेरणासे उन भगवत्स्वरूप लोगोंने स्वयं ही अपने-आप उस सारे संग्रहको बाँट लिया। मेरा काम हलका हो गया। तीसरे, यदि किसीने लोभवश हो कुछ लिया है तो लिया ही है न? मैंने तो किसीका कुछ नहीं छोना है। और चौथे, मेरा सद्भाव और भगवदाश्रयरूपी धर्म- धन तो पूरा-पूरा मेरे पास ही है। मैं समझता हूँ l

उसमें तो भगवत्कृपासे कुछ वृद्धि ही हुई है।' सेठ रमणलालकी बात सुनकर लोग उनके पवित्र भावोंकी प्रशंसा और उनके आचरणपर आश्चर्य करते हुए लौट गये!

सेठ जब छप्पन वर्षके हुए, तब उन्होंने पुत्र न होनेके कारण-अपने दौहित्र छगनलालको बुलाकर घरका सारा भार और सारा धन सौंप दिया और स्वयं पत्नीसहित नर्मदातटपर जाकर त्यागपूर्ण साधु-जीवन बिताते हुए अखण्ड भजन करने लगे। लगभग सत्तर सालकी उम्र होनेपर पति-पत्नी दोनोंको भगवान् श्रीगोविन्ददेवजीने दर्शन देकर कृतार्थ किया। इसके बाद लगभग तीन साल दोनों पूतात्मा पति-पत्नी एक हो दिन नश्वर शरीर छोड़कर नित्य भगवद्धामको सिधार गये।



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parahitaparaayanata aur vinayasheelata to koota-kootakar bharee thee. ve kiseepar kabhee gussa to hote hee naheen the. sadaiva
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kuchh dinon baad ek din champaabaaeene hansate-hansate laabhashankarako usakee us dinakee bhoolakee baat batala dee. vah bechaara sunakar sakabaka gayaa. usane sethake paas jaakar kshama maangee. sethane pyaar karate hue usase kahaa- 'laabhashankara! tumhaaree jagah ham hote to vaisee haalatamen hamase to koee doosara kaam hee naheen ban pada़taa. tumane itanee saaree rasoee bana dee. namaka-shakkaramen jara ulata-pulat ho gayee to isamen aparaadh kya ho gaya, jokshama maangate ho? tumhaaree neeyat to buree thee naheen.' laabhashankaraka hriday kritajnataase bhar gayaa. usane vinayake saath kahaa—'sethajee ! main jaanata hoon, aap bada़e dayaalu hain; par aapane mujhe bhool bataayee kyon naheen?" seth ramanalaal bole- 'bhaiya . us din tum pahalese hee duhkhee the, tumhaaree bhool bataakar main tumhaara duhkh hee to badha़aataa. phir sachchee baat to yah hai ki mujhase kabhee bhool n hotee ho to main tumhaaree bhoolakee charcha karoon jab main khud anekon bhoolen karata hoon, achchhee haalat men bhool karata hoon, tab tumase ek vishesh paristhitimen banee maamoolee bhoolakee charcha chalaakar nayee bhool kyon karataa. doosarekee bhoolapar useeko bura maananeka adhikaar ho sakata hai, jisase jeevanamen kabhee bhool naheen hotee ho !'

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लाली की सुनके मैं आयी
कीरत मैया दे दे बधाई
कोई पकड़ के मेरा हाथ रे,
मोहे वृन्दावन पहुंच देओ ।
मेरा अवगुण भरा रे शरीर,
हरी जी कैसे तारोगे, प्रभु जी कैसे
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छोडो छोडो जी छोडो जी तरसाना ।
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