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महान् भक्त विष्णुस्वामी की मार्मिक कथा
महान् भक्त विष्णुस्वामी की अधबुत कहानी - Full Story of महान् भक्त विष्णुस्वामी (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [महान् भक्त विष्णुस्वामी]- भक्तमाल


धर्मराज युधिष्ठिरके संवत् 2500 व्यतीत होनेपर अर्थात् विक्रमसे 600 वर्ष पूर्व द्रविडदेशके एक क्षत्रियः राजाके मन्त्री भक्त ब्राह्मणने भगवान्की बड़ी आराधना करके विष्णुस्वामीको पुत्रके रूपमें प्राप्त किया था। कोई कोई इनका समय विक्रमके बाद भी मानते हैं। भगवद्विभूतिस्वरूप होनेके कारण बचपन में ही इनमें अलौकिक गुण प्रकट हुए थे। इनकी जैसी अद्भुत प्रतिभा थी, वैसा ही सुन्दर शरीर भी था। यज्ञोपवीत-संस्कारके अस्तर थोड़े ही दिनोंमें इन्होंने सम्पूर्ण वेद-वेद पुराणादिका यथावत् ज्ञान प्राप्त कर लिया। 'यो यदंशः स तं भजेत्' के नियमानुसार अब ये परम सुखके अन्वेषणको ओर अग्रसर हुए। इन्होंने मर्त्यलोकसे लेकर ब्रह्मलोकतकपर विचार किया, परंतु इन्हें इनकी अभीष्ट वस्तुके दर्शन नहीं हुए।

अन्तत: इन्होंने उपनिषदोंकी शरण ली। बृहदारण्यक उपनिषद् के अध्याय 4 के ब्राह्मण 4 में स वा एष महानज आत्मा सर्वस्व वशी' से लेकर 'एष सेतुर्विधारण एषा लोकानामसंभेदाय' तक जो वर्णन हुआ है, उसीके अनुसार ईश्वरका निश्चय करके इन्होंने उपासना प्रारम्भ कर दी। इनका निश्चय दृढ़ था। प्रभुके साक्षात्कारपर इन्हें पूर्ण विश्वास था। इनकी उपासना बहुत दिनोंतक बड़ी श्रद्धा-भक्तिके साथ एक-सी चलती रही; परंतु अभिलाषा पूर्ण न हुई।

अब इन्होंने भगवद्वियोगमें अन्न-जलका त्याग कर दिया, परंतु भगवत्सेवा पूर्ववत् चलती रही। छः दिन बीत गये, शरीर शिथिल पड़ गया, परंतु उत्साहमें न्यूनता नहीं आयी। सातवें दिन इनकी विरह व्यथा इतनी तीव्र हो गयी कि इन्हें एक-एक क्षण कल्पके समान जान पड़ने लगा, जीना भारस्वरूप हो गया। तब इन्होंने अपने शरीरको विरहाग्रिमें जला देनेका निश्चय किया। इसी समय इनका हृदय प्रकाशसे भर गया और भगवत्प्रेरणा से आँखें खुलनेपर इन्होंने 'सन्तं वयसि कैशोरे' आदि श्लोक वर्णित किशोराकृतिवादनपर पीताम्बरधारी सखीद्वयसेवित त्रिभङ्गललित भगवान्श्यामसुन्दरका सुर-मुनिदुर्लभ दर्शन प्राप्त किया। उस समय इनकी जो दशा हुई, वह सर्वथा अवर्णनीय है। आनन्दपूर्ण हृदयसे इन्होंने भगवान्‌के चरणकमलोंपर सिर रख दिया एवं पुलकित शरीरसे अश्रुधारा बहाते हुए वहीं लोटने लगे। भगवान्ने इन्हें निज करकमलोंसे उठाकर हृदयसे लगाया एवं इनके सिर तथा पीठपर हाथ फेरकर कृतार्थ किया। थोड़ी देर बाद सँभलकर अञ्जलि बाँधकर इन्होंने भगवान्‌की स्तुति की। इनके मनमें उपनिषदोंके अभिप्रायके सम्बन्धमें कुछ सन्देह था, अतः उसका निवारण करनेके लिये भगवान्ने इन्हें अपने गुह्यतम तत्त्वका रहस्य बताया। भगवान्ने कहा- 'अपने मनमें इस सन्देहको तो स्थान ही मत दो कि मुझ पुरुषोत्तम भगवान्‌के, जो तुम्हारे सामने साकाररूपसे, साक्षात् प्रत्यक्ष होकर बात कर रहा हूँ, अतिरिक्त भी कोई दूसरा तत्त्व है। इसी साकाररूपसे एक, अद्वितीय त्रिविधभेदशून्य अनिर्वचनीय परम तत्त्व मैं हूँ। माया, जगत् आदि कुछ नहीं, सब में ही हूँ। जितने विरुद्ध धर्म दीखते हैं, सब मुझमें हैं। मैं ही सगुण-निर्गुण, साकार निराकार, सविशेष- निविशेष- सब कुछ हूँ । अतः यह शङ्का छोड़कर सर्वभावसे मेरा ही भजन करो।'

इसके पश्चात् विष्णुस्वामीसे भगवान्‌की बहुत देरतक बातचीत होती रही। इन्होंने आग्रह किया कि 'अब आप अन्तर्धान न हों, सर्वदा मुझे दर्शन दिया करें या अपने साथ ले चलें ।' भगवान्‌को तो इनसे भक्तिका प्रचार | कराना था। अतः एक मूर्ति बनानेवालेको बुलाकर दर्शन दिया और वैसी ही मूर्ति बनाकर स्थापित करके अर्चा सेवा करनेका आदेश दिया और स्वयं उसमें प्रवेश कर गये। विष्णुस्वामी उस विग्रहको साक्षात् भगवद्रूप मानकर अर्चा-पूजा करते हुए आनन्दसे जीवन बिताने लगे। ये 'श्रीकृष्ण तवास्मि' इस मन्त्रका जप करते थे।

भगवत्प्रेरणासे भक्तिकी संवर्द्धना करते-करते इनकी वृद्धावस्था आ गयी, तब इन्होंने शास्त्रमर्यादाके रक्षणके लिये त्रिदण्डसंन्यास ग्रहण किया और भगवच्चिन्तन करते-करते भगवान्के नित्यधाममें प्रवेश किया।इनके सम्प्रदायमें सात सौ आचार्य हुए हैं, उनमें एक बिल्वमंगल भी थे। ये बिल्वमंगल तीन-चार प्रसिद्ध बिल्वमंगलोंसे भिन्न हैं। जब इनके उपदेशसे अनधिकारी भी भक्तिराज्यमें प्रवेश करने लगे, तब इन्हें संसारकी व्यवस्था ठीक करनेके लिये अन्तर्धान होकर रहनेकी आज्ञा हुई। जिस समय आचार्य वल्लभ एक- दूसरे मतमेंमिलने जा रहे थे, तब स्वप्रमें प्रकट होकर बिल्वमंगलने उन्हें भगवान्‌का आदेश बताया और शुद्धाद्वैत अथवा पुष्टिमार्गका उपदेश किया।

इन्हीं श्रीविष्णुस्वामीके सिद्धान्तके आधारपर आचार्य वल्लभने अपना सिद्धान्त स्थिर किया और समय-समयपर भगवान्ने उनके सामने प्रकट होकर उसका समर्थन किया।



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dharmaraaj yudhishthirake sanvat 2500 vyateet honepar arthaat vikramase 600 varsh poorv dravidadeshake ek kshatriyah raajaake mantree bhakt braahmanane bhagavaankee bada़ee aaraadhana karake vishnusvaameeko putrake roopamen praapt kiya thaa. koee koee inaka samay vikramake baad bhee maanate hain. bhagavadvibhootisvaroop honeke kaaran bachapan men hee inamen alaukik gun prakat hue the. inakee jaisee adbhut pratibha thee, vaisa hee sundar shareer bhee thaa. yajnopaveeta-sanskaarake astar thoda़e hee dinonmen inhonne sampoorn veda-ved puraanaadika yathaavat jnaan praapt kar liyaa. 'yo yadanshah s tan bhajet' ke niyamaanusaar ab ye param sukhake anveshanako or agrasar hue. inhonne martyalokase lekar brahmalokatakapar vichaar kiya, parantu inhen inakee abheesht vastuke darshan naheen hue.

antata: inhonne upanishadonkee sharan lee. brihadaaranyak upanishad ke adhyaay 4 ke braahman 4 men s va esh mahaanaj aatma sarvasv vashee' se lekar 'esh seturvidhaaran esha lokaanaamasanbhedaaya' tak jo varnan hua hai, useeke anusaar eeshvaraka nishchay karake inhonne upaasana praarambh kar dee. inaka nishchay dridha़ thaa. prabhuke saakshaatkaarapar inhen poorn vishvaas thaa. inakee upaasana bahut dinontak bada़ee shraddhaa-bhaktike saath eka-see chalatee rahee; parantu abhilaasha poorn n huee.

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