वैष्णवोंके प्रमुख चार सम्प्रदायोंमें से एक सम्प्रदाय है द्वैताद्वैत या निम्बार्क सम्प्रदाय। निश्चितरूपसे यह मत बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है। श्रीनिम्बार्काचार्यजीने परम्पराप्राप्त इस मतको अपनी प्रतिभासे उज्ज्वल करके लोकप्रचलित किया, इसीसे इस द्वैताद्वैत मतकी निम्बार्क सम्प्रदाय के नामसे प्रसिद्धि हुई।
ब्रह्म सर्वशक्तिमान् हैं और उनका सगुणभाव हो मुख्य है। इस जगत्के रूपमें परिणत होनेपर भी वे निर्विकार है। जगत्से अतीतरूपमें से निर्गुण है। जगत्की सृष्टि, स्थिति एवं लय उनसे ही होते हैं। वे जगत्के निमित्त एवं उपादान कारण हैं। जगत् उनका परिणाम है। और वे अविकृत परिणामी हैं। जीव अणु है और ब्रह्मका अंश है। ब्रह्म जीव तथा जडसे अत्यन्त पृथक् और अपृथक् भी हैं। जीव भी ब्रह्मका परिणाम तथा नित्य है।
इस सृष्टिचक्रका प्रयोजन ही यह है कि जीव भगवानकी प्रसन्नता एवं उनका दर्शन प्राप्त करें। जीवके समस्त क्लेशोंकी निवृत्ति एवं परमानन्दको प्राप्ति भगवान्को प्राप्तिसे ही होगी। ब्रह्मके साथ अपने तथा जगत्के अभिन्नत्वका अनुभव ही जीवको मुक्तावस्था है। यह भगवत्प्राप्ति से ही सम्पन्न होती है। उपासनाद्वारा ही ब्रह्मको प्राप्ति होती है। ब्रह्मका सगुण एवं निर्गुण दोनों रूपोंमें विचार किया जा सकता है; किंतु जोवकी मुक्तिका साधन भक्ति हो है। भक्तिसे ही भगवान्को प्राप्ति होती है। सत्कर्म एवं सदाचार के द्वारा शुद्धजि भगवत्कथा एवं भगवान्के गुणगण-श्रवणसे भगवान्की प्रसन्नता प्राप्त करनेकी इच्छा जाग्रत होती है, तब मुमुक्षु पुरुष सद्गुरुकी शरण ग्रहण करता है। गुरुद्वारा उपदिष्ट उपासनाद्वारा शुद्धचित्तमें भक्तिका प्राकट्य होता है। यहाँ भक्ति जीवको भगवत्प्राप्ति कराकर मुक्त करती है।
थोड़े में द्वैताद्वैतमतका सार यही है। भगवान् नारायणने हंसस्वरूपसे ब्रह्माजीके पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन एवं सनत्कुमारको इसका उपदेश किया। सनकादि कुमारोंसे इसे देवर्षि नारदजीने पाया और देवर्षिने इसका उपदेश श्रीनिम्बार्काचार्यजीको किया। यह इस सम्प्रदायको परम्पराहै। श्रीनने अपने ब्रह्मसूत्रोंके भाष्य में 'अस्मद
गुरवे नारदाय' कहा है। सनकादि कुमारोंका भी उन्होंने
स्मरण किया है उसी ग्रन्थमें गुरुपरम्परामें। देवर्षि
नारदजीने श्रीनिम्बार्काचार्यजीको 'गोपालमन्त्र' की दीक्षा
दी, ऐसी मान्यता है। भक्तोंके मतसे द्वापरमें और सम्प्रदायके कुछ विद्वानोंके मतसे विक्रमकी पाँचवीं शताब्दीमें श्रीनिम्बार्काचार्यजीका प्रादुर्भाव हुआ। दक्षिण भारतमें वैदूर्यपतन परम पवित्र तोर्थ है। इसे दक्षिणकाशी भी कहते हैं। यही स्थान एकनाथजीको जन्मभूमि है। यहीं श्रीअरुणमुनिजीका अरुणाश्रम था श्री अरुणमुनिजीकी पत्नी जयन्तीदेवीको गोदमें जिस दिव्य कुमारका आविर्भाव हुआ, उसका नाम पहले नियमानन्द हुआ और यही आगे श्रीनिम्बार्काचार्यजीके नामसे प्रख्यात हुए।
श्रीनिम्बार्काचार्यजीके जीवनवृत्तके विषयमें इससे अधिक ज्ञात नहीं है। वे कब गृह त्यागकर व्रजमें आये, इसका कुछ पता नहीं है। व्रजमें श्रीगिरिराज गोवर्धनके समीप ध्रुवक्षेत्रमें उनकी साधन भूमि है। एक दिन समीपके स्थानसे एक दण्डी महात्मा आचार्यके समीप पधारे। दो शास्त्रज्ञ महापुरुष परस्पर मिले तो शास्त्रचर्चा चलनी स्वाभाविक थी । समयका दोमेंसे किसीको ध्यान नहीं रहा। सायङ्कालके पश्चात् आचार्यने अतिथि यतिसे प्रसाद ग्रहण करनेके लिये निवेदन किया। सूर्यास्त होनेके पश्चात् नियमतः यतिजी भिक्षा ग्रहण नहीं कर सकते थे। उन्होंने असमर्थता प्रकट की। परन्तु आचार्यजी नहीं चाहते थे कि उनके यहाँ आकर एक विद्वान् अतिथि उपोषित रहें। आश्रमके समीप एक नीमका वृक्ष था. सहसा उस वृक्षपरसे चारों ओर प्रकाश फैल गया। ऐसा लगा, जैसे नीमके वृक्षपर सूर्यनारायण प्रकट हो गये हैं। कोई नहीं कह सकता कि आचार्यके योगबलसे भगवान् सूर्य यहाँ प्रकट हो गये थे या श्रीकृष्णचन्द्रका कोटिसूर्यसमप्रभ सुदर्शन चक्र, जिसके आचार्य मूर्त अवतार थे, प्रकट हो गया था। अतिथिके प्रसाद ग्रहण कर लेनेपर सूर्यमण्डल अदृश्य हो गया। इस घटनासे आचार्य निम्बादित्य यानिम्बार्क नामसे विख्यात हुए। आचार्यका वह आश्रम 'निम्बग्राम' कहा जाता है। यह गोवर्धनके समीपका निम्बग्राम है, माटके समीपका नीमगाँव नहीं। वे यतिजी उस समय जहाँ आश्रम बनाकर रहते थे, वहाँ आज यतिपुरा नामक ग्राम है।
श्रीनिम्बार्काचार्यजीका वेदान्तसूत्रोंपर भाष्य 'वेदान्तसौरभ' और 'वेदान्तकामधेनुदशश्लोक' ये दो ग्रन्थ ही उपलब्ध हैं। ये दोनों ग्रन्थ ही अत्यन्त संक्षिप्त हैं। इनके अतिरिक्त गीताभाष्य, कृष्णस्तवराज, गुरुपरम्परा, वेदान्ततत्त्वबोध, वेदान्तसिद्धान्तप्रदीप, स्वधर्माध्वबोध, ऐतिह्यतत्त्वसिद्धान्त, राधाष्टक आदि कई ग्रन्थ आचार्यने लिखे थे।
श्रीनिम्बार्काचार्यजीके शिष्य हुए श्रीनिवासाचार्यजी। इन्होंने आचार्यके ब्रह्मसूत्रभाष्यपर 'वेदान्तकौस्तुभ' नामक ग्रन्थ लिखकर उसकी व्याख्या की। इस 'वेदान्तकौस्तुभ' की टीका आगे चलकर काश्मीरी केशव भट्टाचार्यजीने की। श्रीनिवासाचार्यजीके पश्चात् शिष्यपरम्परासे ग्यारहवें आचार्य हुए श्रीदेवाचार्यजी। इन्होंने 'वेदान्तजाह्नवी' तथा 'भक्तिरत्नावली' नामक दो ग्रन्थ लिखे, जिनका सम्प्रदायमें अत्यन्त सम्मान है।
श्रीदेवाचार्यजीके दो शिष्य हुए-श्रीसुन्दर भट्टाचार्यजी तथा श्रीव्रजभूषण देवाचार्यजी इन दोनों आचार्योंकी परम्परा आगे चलकर विस्तीर्ण हुई। श्रीसुन्दर भट्टाचार्यजीकी शिष्यपरम्परामें सत्रह भट्टाचार्य आचार्य और हुए। इनमें सोलहवें काश्मीरी श्रीकेशव भट्टाचार्यजी हुए। काश्मीरी केशव भट्टाचार्यजीके शिष्य श्रीभट्टजीने 'युगल-शतक' की रचना की। यही ग्रन्थ 'आदि वाणी' कहा जाता है। श्रीभट्टजीके भ्रातृवंशज गोस्वामी अब भी निम्बार्क सम्प्रदायकी सीधी परम्परामें ही हैं। श्री भट्टजीके प्रधान शिष्य श्रीहरिव्यासजी हुए। इनके अनुयायी आगे चलकर अपनेको 'हरिव्यासी' कहने लगे। श्रीहरिव्यासजीके बारह शिष्य हुए, जिनमें श्रीशोभूरामदेवाचार्य, श्रीपरशुराम देवाचार्य, श्रीघमण्डदेवाचार्य तथा श्रीलपरागोपालदेवाचार्य अपनी प्रमुख विशेषताओंके कारण उल्लेखनीय हैं। इनमेंसेश्रीशोभूरामदेवाचार्यजीकी शिष्यपरम्परामें चतुर-चिन्तामणिकी परम्परा इस समय देशमें अधिक व्यापक है। श्रीपरशुराम देवाचार्य श्रीमहाराजकी परम्पराको ही सर्वेश्वरकी अर्चा प्राप्त है और निम्बार्कसम्प्रदाय के पीठाधिपति इसी परम्पराके आचार्य होते हैं। व्रजमें जो रासलीलाका वर्तमान प्रचार है. वह श्रीधमण्डदेवाचार्यजीको भावुकता प्रादुर्भूत परम्परा है। श्रीलपरागोपालदेवाचार्यजीके शिष्य श्रीगिरिधारी शरणदेवाचार्यजी जयपुर, ग्वालियर आदि अनेकों राजकुलोंके गुरु हुए हैं। श्रीहरिव्यासदेवजीकी यह शिष्य-परम्परा है। उनके वंशज अपनेको 'हरिव्यासी' नहीं मानते। वे निम्बार्क सम्प्रदायकी सोधी परम्परामें हैं।
श्रीदेवाचार्यजीके दूसरे शिष्य श्रीब्रजभूषणदेवाचार्यजीकी परम्परामें श्रीरसिकदेवजी तथा श्रीहरिदासजी हुए हैं। ऐसी भी मान्यता है कि महाकवि जयदेव इसी परम्परामें हैं। श्रीरसिकदेवजीके आराध्य श्रीरसिकविहारीजी तथा श्रीहरिदासजीके आराध्य श्रीबाँकेविहारीजी हैं। हरिदासजी के अनुपाधियोंकी एक परम्पराके लोग अपनेको 'हरिदासी' कहते हैं। इनका मुख्य स्थान वृन्दावनमेंटटीस्थान है। कृष्णप्रणामी या प्रणमीसम्प्रदाय के आद्याचार्य श्रीप्राणनाथजीको जीवनीमें उनको हरिदासजीका शिष्य कहा गया है। इस प्रकार 'कृष्ण प्रणामी परम्परा भी निम्बार्क-सम्प्रदायकी हरिदासजीकी परम्पराकी ही शाखा है। इस प्रणामी सम्प्रदायका मुख्यपीठ पन्ना (बुन्देलखण्ड) में है।
श्रीनिम्बार्काचार्यजी तथा उनकी परम्पराके अधिकांश आचार्योंकी यह प्रधान विशेषता रही है कि उन्होंने दूसरे आचार्योंके मतका खण्डन नहीं किया है। श्रीदेवाचार्यजीने ही अपने ग्रन्थोंमें अद्वैतमतका खण्डन किया है। श्रीनिम्बार्काचार्यजीने प्रस्थानत्रयीके स्थानपर प्रस्थानचतुष्टयको प्रमाण पाना और उसमें भी चतुर्थ प्रस्थान श्रीमद्भागवतको परम प्रमाण स्वीकार किया। अनेक वीतराग, भावुक भगवद्भक्त इस परम्परामें सदा ही रहे हैं।
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