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[ श्रीशिवरामकिंकर] भगवान के एक भक्त की जिज्ञासा शांत करने की लीला

श्रीशिवरामकिंकर महाशय (१८६०-१९२९ ई०) भगवान् के अनुगत अनन्य भक्त थे। व्यावहारिक जीवनमें इन्हें जैसे आवश्यकतानुसार अपेक्षित वस्तु यथासमय अयाचित प्राप्त हो जाती थी, तत्त्वज्ञानके सम्बन्धमें भी यही स्थिति थी। इनके जीवनकी निम्नांकित घटनासे यह स्पष्ट हो जायगा।

पाणिनि व्याकरणपर पतंजलिकृत महाभाष्य पढ़नेकी इनकी बलवती इच्छा थी; किंतु उस समय बंगदेशमें पाणिनि व्याकरणका प्रचार अधिक नहीं था। अतः महाभाष्य पढ़ाने योग्य पंडित विरले ही मिलते थे। इस विषयके दो विद्वान् सर्वाधिक प्रसिद्ध थे- पंडित तारानाथ तर्कवाचस्पति और महामहोपाध्याय पं० गोविन्द शास्त्रीजी वाराणसी संस्कृत कॉलेजके प्राध्यापक पं० दामोदर शास्त्रीके भाई थे। शिवरामकिंकरजी उनसे पढ़ना चाहते थे। यही भाव लेकर ये उनके पास गये और पढ़ानेकी प्रार्थना की। उस समय उनके पास कॉलेजके कई विद्यार्थी बैठे हुए थे, अतः शास्त्रीजीने इनसे कहा, 'आज नहीं होगा, किसी दूसरे दिन आना।'

जब ये दूसरे दिन गये, तब भी उन्हें पढ़ानेका अवकाश नहीं था। तीसरे दिन बुलाया, फिर भी समय न दे सके। इसका कारण यह था कि वे बाहरके विद्यार्थियोंको पढ़ाने में यह सोचकर रुचि कम लेते थे कि इससे प्राध्यापकका गौरव नहीं बढ़ता। तीसरे दिन कोरा उत्तर पाकर शिवरामकिंकर हताश हो गये। चलते समय उन्होंने शास्त्रीजीके पैर पकड़कर अत्यन्त दीन भावसे निवेदन किया, 'अवश्य थोड़ा समय दीजिये, कोई दूसरा पढ़ानेवाला नहीं है।' किंतु शास्त्रीजी पसीजनेके स्थानपर क्रुद्ध हो गये। उन्होंने पैर झटककर कहा, 'यहाँसे चले जाओ। मुझे फुरसत नहीं है।'

शास्त्रीजीके इस प्रकारके व्यवहारसे शिवरामकिंकर मर्माहत हो गये। 'मैं तो इनके पास केवल ज्ञान प्राप्तिके उद्देश्यसे आया था, किसी लौकिक स्वार्थकी पूर्तिके लिये नहीं, इसपर इन्होंने हमारा इतना अपमान किया, यह सोचकर वे बहुत दुखी हुए। इन्होंने वहीं संकल्प किया, अब मैं किसी मनुष्यके पास ज्ञानार्जनके लिये नहीं जाऊँगा। इस घटनासे चित्तमें बहुत निर्वेद रहा घर जाकर भोजन नहीं किया। रातभर नींद नहीं आयी। मनमें बार-बारविचार उठता रहा कि मैं अभागा हूँ, जिज्ञासु है, और मुझे ज्ञानका देनेवाला कोई नहीं है। यह उनकी आँखें अँपने लगीं।

रातमें दो बजे के लगभग अकस्मात् इन्हें झटका लगा देखा कमरेमें दिव्य आलोकका प्रकाश हो रहा है। सामने शून्यमें एक महापुरुष खड़े दिखायी दिये जटाधारी, वृद्धशरीर निलम्बितश्मधु करुणनेत्र समागत महापुरुषने बहुत करणाभावसे शिवरामकिंकरसे पूछ 'तुमने आज भोजन नहीं किया। ऐसे ही पड़ रहे।' वे बोले, 'महात्मन्! मेरे मनमें अत्यन्त कष्ट है', इसके साथ उन्होंने शास्त्रीजीद्वारा किये गये तिरस्कारका वृत्तान्त रो-रोकर कह सुनाया, 'मैंने उनसे कोई अर्थ-याचना की नहीं, केवल ज्ञान- भिक्षाकी याचना की, वह भी नहीं मिली। उलटे घोर उपेक्षा सहनी पड़ी।

महापुरुषने सान्त्वना देते हुए कह 'घबड़ाओ मत। किसीने तुमको महाभाष्य नहीं पढ़ाया तो क्या हुआ? मैं पढ़ाऊँगा मैंने ही उसकी रचना की है, क्या पढ़ा नहीं सकता?' यह सुनकर शिवरामकिंकर महाशय गदगद हो गये और महापुरुषसे पढ़नेके लिये महाभाष्यकी प्रति सामने रख ली। इसके बाद महापुरुषने क्या पढ़ाया, इसका उन्हें पता नहीं, किंतु कुछ देरतक पढ़ाया, ऐसा इन्हें आभास हुआ। महापुरुष अन्तर्धान हो गये। उनके चले जानेके पश्चात् जब इन्हें लौकिक चेतना प्राप्त हुई तो उनका स्मरण कर रोने लगे। कृतज्ञतासे इनका हृदय भर गया। इस दर्शनका प्रभाव यह हुआ कि दूसरे दिन प्रातःकाल जब इन्होंने पढ़नेके उद्देश्यसे महाभाष्य खोला तो ऐसा लगा जैसे सबकुछ इनका पढ़ा हुआ है। समग्र महाभाष्य ज्ञान-गोचर हो गया। अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'आर्यशस्त्र प्रदीप' में इन्होंने पतंजलिके व्याख्यानका किसी-किसी स्थानमें उल्लेख किया है। विशेषरूपसे पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंगका रहस्य समझानेके विषयमें प्रवृत्ति-लक्षण और संस्त्यान- लक्षणका विश्लेषण बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।

इसी प्रकार योगत्रयानन्दजीने मुझे एक दूसरी घटना बतायी थी, जिसमें एक बार शिवरात्रिमहापर्वको रात्रिमें इन्होंने गौतम ऋषिसे न्यायशास्त्रका अध्ययन किया था। यह सब विषय साधारण मनुष्य-धारणाके अयोग्य है, परंतु सत्य है।



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[ shreeshivaraamakinkara] bhagavaan ke ek bhakt kee jijnaasa shaant karane kee leelaa

shreeshivaraamakinkar mahaashay (1860-1929 ee0) bhagavaan ke anugat anany bhakt the. vyaavahaarik jeevanamen inhen jaise aavashyakataanusaar apekshit vastu yathaasamay ayaachit praapt ho jaatee thee, tattvajnaanake sambandhamen bhee yahee sthiti thee. inake jeevanakee nimnaankit ghatanaase yah spasht ho jaayagaa.

paanini vyaakaranapar patanjalikrit mahaabhaashy padha़nekee inakee balavatee ichchha thee; kintu us samay bangadeshamen paanini vyaakaranaka prachaar adhik naheen thaa. atah mahaabhaashy padha़aane yogy pandit virale hee milate the. is vishayake do vidvaan sarvaadhik prasiddh the- pandit taaraanaath tarkavaachaspati aur mahaamahopaadhyaay pan0 govind shaastreejee vaaraanasee sanskrit kaॉlejake praadhyaapak pan0 daamodar shaastreeke bhaaee the. shivaraamakinkarajee unase padha़na chaahate the. yahee bhaav lekar ye unake paas gaye aur padha़aanekee praarthana kee. us samay unake paas kaॉlejake kaee vidyaarthee baithe hue the, atah shaastreejeene inase kaha, 'aaj naheen hoga, kisee doosare din aanaa.'

jab ye doosare din gaye, tab bhee unhen padha़aaneka avakaash naheen thaa. teesare din bulaaya, phir bhee samay n de sake. isaka kaaran yah tha ki ve baaharake vidyaarthiyonko padha़aane men yah sochakar ruchi kam lete the ki isase praadhyaapakaka gaurav naheen badha़taa. teesare din kora uttar paakar shivaraamakinkar hataash ho gaye. chalate samay unhonne shaastreejeeke pair pakada़kar atyant deen bhaavase nivedan kiya, 'avashy thoda़a samay deejiye, koee doosara padha़aanevaala naheen hai.' kintu shaastreejee paseejaneke sthaanapar kruddh ho gaye. unhonne pair jhatakakar kaha, 'yahaanse chale jaao. mujhe phurasat naheen hai.'

shaastreejeeke is prakaarake vyavahaarase shivaraamakinkar marmaahat ho gaye. 'main to inake paas keval jnaan praaptike uddeshyase aaya tha, kisee laukik svaarthakee poortike liye naheen, isapar inhonne hamaara itana apamaan kiya, yah sochakar ve bahut dukhee hue. inhonne vaheen sankalp kiya, ab main kisee manushyake paas jnaanaarjanake liye naheen jaaoongaa. is ghatanaase chittamen bahut nirved raha ghar jaakar bhojan naheen kiyaa. raatabhar neend naheen aayee. manamen baara-baaravichaar uthata raha ki main abhaaga hoon, jijnaasu hai, aur mujhe jnaanaka denevaala koee naheen hai. yah unakee aankhen anpane lageen.

raatamen do baje ke lagabhag akasmaat inhen jhataka laga dekha kamaremen divy aalokaka prakaash ho raha hai. saamane shoonyamen ek mahaapurush khada़e dikhaayee diye jataadhaaree, vriddhashareer nilambitashmadhu karunanetr samaagat mahaapurushane bahut karanaabhaavase shivaraamakinkarase poochh 'tumane aaj bhojan naheen kiyaa. aise hee pada़ rahe.' ve bole, 'mahaatman! mere manamen atyant kasht hai', isake saath unhonne shaastreejeedvaara kiye gaye tiraskaaraka vrittaant ro-rokar kah sunaaya, 'mainne unase koee artha-yaachana kee naheen, keval jnaana- bhikshaakee yaachana kee, vah bhee naheen milee. ulate ghor upeksha sahanee pada़ee.

mahaapurushane saantvana dete hue kah 'ghabada़aao mata. kiseene tumako mahaabhaashy naheen padha़aaya to kya huaa? main padha़aaoonga mainne hee usakee rachana kee hai, kya padha़a naheen sakataa?' yah sunakar shivaraamakinkar mahaashay gadagad ho gaye aur mahaapurushase padha़neke liye mahaabhaashyakee prati saamane rakh lee. isake baad mahaapurushane kya padha़aaya, isaka unhen pata naheen, kintu kuchh deratak padha़aaya, aisa inhen aabhaas huaa. mahaapurush antardhaan ho gaye. unake chale jaaneke pashchaat jab inhen laukik chetana praapt huee to unaka smaran kar rone lage. kritajnataase inaka hriday bhar gayaa. is darshanaka prabhaav yah hua ki doosare din praatahkaal jab inhonne padha़neke uddeshyase mahaabhaashy khola to aisa laga jaise sabakuchh inaka padha़a hua hai. samagr mahaabhaashy jnaana-gochar ho gayaa. apane prasiddh granth 'aaryashastr pradeepa' men inhonne patanjalike vyaakhyaanaka kisee-kisee sthaanamen ullekh kiya hai. vishesharoopase pulling tatha streelingaka rahasy samajhaaneke vishayamen pravritti-lakshan aur sanstyaana- lakshanaka vishleshan bahut hee mahattvapoorn hai.

isee prakaar yogatrayaanandajeene mujhe ek doosaree ghatana bataayee thee, jisamen ek baar shivaraatrimahaaparvako raatrimen inhonne gautam rishise nyaayashaastraka adhyayan kiya thaa. yah sab vishay saadhaaran manushya-dhaaranaake ayogy hai, parantu saty hai.

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