उदयपुरके समीप श्रीरूपचतुर्भुज स्वामीका मन्दिर है। देवाजी पण्डा उसमें पुजारी थे। वे बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे, परंतु भगवान्की पूजा-अर्चना बड़ी श्रद्धाके साथ विधिपूर्वक करते थे। भगवान्में उनका विश्वास था जो भक्तिके लिये परमावश्यक साधन है। भगवान्की सेवासे उनका अज्ञान-अन्धकार नष्टप्राय हो चुका था।
एक दिनकी बात है- उदयपुर नरेश एक पहर रात बीतने के बाद मन्दिरमें आये। शयनकी आरती हो चुकी थी। भगवान् पौढ़ चुके थे। भगवान्को शयन कराकर देवाजीने भगवान्के गलेका पुष्पहार उतारकर अपने सिरपर रख लिया था और अन्तर्गृहके पट बंद करके वे मन्दिरसे बाहर आ रहे थे- इसी समय महाराणा वहाँ पहुँचे। दरवाजेपर अकस्मात् महाराणाको देखकर देवाजी घबराकर मन्दिरमें घुस गये और उन्हें पहनानेके लिये भगवान्की माला ढूँढ़ने लगे। उस दिन दूसरी माला थी नहीं, अतएव महाराणा नाराज न हों, इसलिये देवाजीने मस्तकपर धारण किया हुआ पुष्पहार उतार लिया और बाहर निकलकर महाराणाके गलेमें पहना दिया। सोचने-विचारनेके लियेतो समय ही कहाँ था। देवाजीके सिरके सारे बाल सफेद हो गये थे और बाल थे लंबे-लंबे दो-एक सफेद केश मालामें लगे महाराणाके गलेमें आ गये। राणाने वालोंको | देखकर व्यङ्गसे कहा-' पुजारीजी ! मालूम होता है भगवान्के सारे केश सफेद हो गये हैं।' देवाजीको इसका उत्तर देनेके लिये और कुछ भी नहीं सूझा, उन्होंने जल्दी-जल्दी में डरते हुए कह दिया- 'हाँ सरकार ठाकुरजीके सारे बाल सफेद हो गये हैं।' राणाको पुजारीके इस उत्तरपर हँसी आ गयी। साथ ही पुजारीके प्रति मनमें रोष भी आया। उन्होंने गम्भीर होकर कहा-'मैं कल सबेरे स्वयं आकर देखूंगा।' यों कहकर वे लौट गये।
देवाजीने उतावलीमें राणासे कह तो दिया, पर अब उनको बड़ी चिन्ता हो गयी। प्रातः काल राणा आयेंगे और भगवान्के सफेद बाल न पाकर न जाने क्या करेंगे। देवाजीकी आँखोंसे नींद उड़ गयी, खाया तो कुछ था ही नहीं। आँखोंसे आँसुओंकी धारा वह निकली। देवाजीने कहा—“मेरे स्वामी! मेरे मुँहसे सहसा ऐसी बात निकल गयी। तुम तो नित्य नव किशोर हो। तुम्हारे सफेद केशकैसे? पर सबेरे महाराणा आकर जब तुम्हारे काले बाल देखेंगे, तब तुम्हारे इस सेवककी क्या स्थिति होगी? राणाकी आँखोंमें यह सर्वथा मिथ्यावादी सिद्ध हो जायगा। मुझमें न भक्ति है न श्रद्धा है। मैं तो केवल तुम्हें तुलसी-चन्दन चढ़ाकर अपना पापी पेट भरता हूँ। तुम्हारी नहीं, मैं तो पेटकी ही पूजा करता हूँ; परंतु लोग मुझे तुम्हारी पूजा करनेवाला बतलाते हैं। सबेरे जब महाराणा मेरी बातको झूठ पाकर सबके सामने मेरी भर्त्सना करेंगे तब लोग यही कहेंगे कि कितना बड़ा मूर्ख है यह। कहीं भगवान्के-फिर एक मूर्तिके भी श्वेत केश होते हैं? कुछ लोग मुझे अत्यन्त डरपोक बतायेंगे और कुछ यह कहेंगे कि 'अजी ! भगवान् यदि आज भी सच्चे होते या भक्तवत्सल होते तो क्या बेचारे गरीब पुजारीकी बात न रखते?' जितने मुँह, उतनी बातें। नाथ! यह आपका अपराधी, दम्भी पुजारी उस समय कैसे मुख दिखलायेगा? और किसको क्या उत्तर देगा? पर प्रभो! मैं कैसे कहूँ कि तुम मेरी बात रखनेके लिये बुढ़ापा स्वीकारकर सफेद बालोंवाले बाबाजी बन जाओ? तुम्हें जो ठीक लगे, वही करो। "
यों कहकर देवाजी फुफकार मारकर रो पड़े। इसी प्रकार भगवान्को पुकारते और रोते-कलपते रात बीती। सारा जगत् सोता था। देवाकी करुण पुकार किसीने नहीं सुनी। जागते थे देवा और देवाके हृदय-देवता - जो सदा ही जागते हैं और सबकी गुप्त-से गुप्त बातोंको सुनते हैं। भृत्यवत्सल, शरणागतरक्षक भगवान्ने अपने पुजारी देवाजीकी करुण पुकार सुनी। भक्तकी बात रखनेके लिये भगवान्ने लीला की। चतुर्भुज भगवान्के सारे बाल सफेद हो गये! धन्य !
देवाजीने नहा-धोकर काँपते-काँपते अन्तर्गृहके किंवाड़ खोले, उनका हृदय भयके मारे धक् धक् कर रहा था। किंवाड़ खोलते ही देखा - कल्याणमय कृपा- कल्पतरु श्रीविग्रहके समत्त केश शुभ्र हो गये हैं। देवाके हृदयकी विचित्र दशा है - यह स्वप्न है कि साक्षात् ? करुणा वरुणालयकी इस अतुलनीय कृपा और दीनवत्सलताको देखकर प्रेमविह्वल और आनन्दोन्मत्त देवाकी बाह्य चेतना जाती रही। वे बेसुध होकर जमीनपर गिर पड़े।
बहुत देर बाद देवाकी समाधि टूटी। उनके दोनों नेत्रोंसे आनन्द और प्रेमके शीतल आँसुओंकी वर्षा हो रहीथी। इसी समय महाराणा परीक्षाके लिये पधारे। देवाजीको विकलतासे रोते देखकर उन्होंने समझा कि 'रात्रिको मुझसे | कह तो दिया, पर अब भयके मारे रो रहा है।' इतनेमें ही उनकी दृष्टि भगवान्के श्रीविग्रहकी ओर गयी, देखते है राणा आश्चर्य-सागरमें डूब गये-श्यामसुन्दरके समस्त केश सफेद चाँदी से चमक रहे हैं। महाराणाको विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने समझा - 'पुजारीने अपनी बात रखनेके लिये कहाँसे सफेद बाल लाकर चिपका दिये हैं।' राणाके मनमें परीक्षा करनेकी आयौ और उन्होंने अपने हाथसे भगवान् के सिरका एक बाल बलपूर्वक उखाड़ लिया। राणाने देखा - बाल उखाड़ते समय श्रीविग्रहको मानो दर्द हुआ और उनकी नाकपर सिकुड़न आ गयी। इतना ही नहीं, बाल उखड़ते ही सिरसे रक्तकी बूँद निकली और वह राणाके अंगरखेपर आ पड़ी। राणा यह देखते ही मूर्छित होकर जमीनपर गिर पड़े।
पूरा एक पहर बीतनेपर महाराणाको चेत हुआ। उन्होंने देवाजीके चरण पकड़कर कहा- 'प्रभो! मैं अत्यन्त मूद, अविश्वासी और नोचबुद्धि हूँ। मैंने वहां अपराध किया है। भक्त क्षमाशील होते हैं- ऐसा मैंने सुना है। आप मेरा अपराध क्षमा कीजिये मेरी रक्षा : कीजिये।' यों कहते-कहते महाराणा अपने आँसुओं से देवाजीके चरण धोने लगे। देवाजीने महाराणाको उठाकर हृदयसे लगा लिया- गद्गद वाणीसे कहा- 'यह सब मेरे प्रभुकी महिमा है मैं अशिक्षित गँवार केवल पेटकी | गुलामीमें लगा था। भगवान्की पूजाका तो नाम था। पर मेरे नाथ कितने दयालु हैं, जो मेरी मिथ्या पूजापर इ प्रसन्न हो गये और मुझ नालायककी बात रखनेके लिये उन्होंने अपने नित्यकिशोर सुकुमार विग्रहपर श्वेत केशोंकी विचित्र रचना कर ली। मैं क्या क्षमा करूँ मैं तो स्वयं अपराधी हूँ ! राजन् मैंने तो झूठ बोलकर आपका तथ भगवान् का भी अपराध किया था। पर वे ऐसे दीनवत्सल हैं कि अपराधीके अपराधपर ध्यान न देकर उसकी दीनतापर ही 'रीझ जाते हैं।' राणा तथा देवा दोनों ही भगवान्की कृपालुताका स्मरण करते हुए रो रहे थे! इस घटनाके बाद ही यह आज्ञा हो गयी कि आगेसे राणावंशमें राजगद्दीपर बैठनेके बाद कोई भी मन्दिरमें नहीं आ सकेंगे। जबतक कुमार रहेंगे, तभीतक आ सकेंगे।
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