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श्रीमत्स्वामी प्रणवानन्दजी महाराज की मार्मिक कथा
श्रीमत्स्वामी प्रणवानन्दजी महाराज की अधबुत कहानी - Full Story of श्रीमत्स्वामी प्रणवानन्दजी महाराज (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [श्रीमत्स्वामी प्रणवानन्दजी महाराज]- भक्तमाल


पूर्वबंगालके एक साधारण गाँवमें इस महापुरुषका जन्म हुआ था। इनके पिता जाग्रत् गृहदेवता नीलरुद्र महादेवके अनन्य उपासक थे। महादेवकी कृपासे ही उनको यह पुत्ररत्न प्राप्त हुआ था। बालकपनसे ही वे प्रायः उदास और अनासक्त भावमें रहते थे। बहुधा घरसे गायब हो जाते थे और माता-पिता जब व्याकुल होकर ढूँढने निकलते, तब किसी पेड़के नीचे अकेले उनको ध्यानस्थ सिद्धार्थके समान बाह्यज्ञानशून्य अवस्थामें बैठे हुए मिलते। बाल्यावस्थामें वे न तो अनावश्यक कोई बात बोलते और न अनावश्यक किसी वस्तुके लिये आग्रह करते थे। अनावश्यक किसी और उनकी दृष्टि न जाती और न अनावश्यक किसी दिशामें पैर रखते थे। मानो पूर्ण संयम ही बालमूर्तिमें इस धराधाममें अवतीर्ण हुआ था। उनका नाम विनोद रखा गया था। अब वे विद्यालय में पढ़नेके लिये जाने लगे। वहाँ भी छुट्टी होनेके बाद जब शिक्षक और छात्र क्लाससे बाहरनिकल जाते, तब विनोद प्रायः न जाने किस चिन्तामें मग्न बाह्यज्ञानशून्य बैठे ही रहते। वे शिक्षक और छात्र दोनोंको प्रिय थे, इसलिये कोई उनके इस भावमें बाधा नहीं डालता था। घरपर उनको बहुधा लोग रात्रिमें देरतक ध्यानमें बैठे पाते।

वे तुलसीके बड़े भक्त थे। अपने संघकी संन्यासी सन्तानको कहा करते थे कि 'तुलसी जाग्रत् देवता हैं। श्रद्धा और अनन्य भावसे देखनेपर कृपा प्रदान करती हैं।' सुनते हैं कि तुलसी वृक्षोंकी अधिष्ठात्री तुलसी देवीने उनको दर्शन देकर कृतार्थ किया था।

सरल और आडम्बरशून्य जीवनयापन करना ही उनकी महान् साधना थी। साधारण आलू और नून-भात ही उनका प्रधान भोजन था। भोजनमें अटूट संयम और अखण्ड ब्रह्मचर्य पालन करके उन्होंने अमित शक्ति सञ्चय कर ली थी। उनकी साधनकुटीमें सोने-बैठने के लिये एक तख्ता, कुछ पुस्तकें, देवताओंके चित्र तथाएक जोड़ा व्यायामके लिये विशाल मुगदर था। पहनने के लिये उनके पास सब ऋतुओंके लिये एक भगवाँ वस्त्र और ओढ़नेके लिये चादर रहती थी। रातको वे केवल एक घंटा सोते थे। आगे चलकर उन्होंने उसका भी त्याग कर दिया और लगातार छः वर्षोंतक निद्रारहित तपस्याका जीवन व्यतीत किया। एक बार वे नौ दिनोंतक लगातार समाधिमग्न अवस्थामें रहे। पहले शीतकालमें एक कम्बल ओढ़ते थे और बादको उसका भी त्याग कर दिया। वे प्रायः कहा करते थे कि 'उपादेय, गुरुपाक, पुष्टिकर भोजन करनेसे शरीरमें उत्तेजना आती है और शक्ति क्षीण होती है। अटूट ब्रह्मचर्यके पालनसे मेरे शरीर और मनमें असीम आनन्दकी अनुभूति होती है।'

1913 ई0 में 17 वर्षकी उम्र में उन्होंने योगिराज बाबा श्रीगम्भीरनाथजीसे दीक्षा ली। दीक्षा लेनेके बाद वे प्रायः बाह्यज्ञानशून्य ध्यानमग्न अवस्थामें या अर्द्धबाह्य अवस्थामें एकान्तमें पड़े रहते थे। बाबा गम्भीरनाथ उनको जंगल-झाड़ीमेंसे खोजकर निकाल लाते और कुछ भोजन कराते थे। उसके बाद नाथजीकी आज्ञासे वे काशीपुरीमें अस्सीघाटपर ध्यान-साधना करते रहे। उस समय उनकी अवस्था 20 वर्षकी थी। उन्होंने जिस स्थानपर सिद्धि प्राप्तकी थी, वहीं आज श्रीप्रणवमठ स्थापित है। उन्होंने बतलाया था कि 'रागादि रिपुओंका दलन और इन्द्रियसंयम ही धर्मसाधनाके मूल हैं। ब्रह्मचर्यका पालन करना ही सर्वश्रेष्ठ साधना है। समाहित मन ही निर्जन गुफा है, भगवत्कृपा-लाभके लिये निर्जन गिरि गुहाकी आवश्यकता नहीं है। मनको संयत और समाहित करनेके लिये सारे विषयोंमें संयमका अवलम्बन करना परमावश्यक है।'

‘वे कहते थे कि धर्मका प्राण अनुभूति, अनुष्ठान और निष्ठामें निहित है। शास्त्र पढ़कर या लोगोंके मुखसे सुनकर कभी धर्मकी प्राप्ति नहीं होती। त्याग, संयम, सत्य और ब्रह्मचर्य पालन ही धर्म-साधनाके मूल स्तम्भ हैं।'

'यत्र जीवस्तत्र शिव:' इस महामन्त्रकी साधनामें सिद्धि प्राप्त करके जातिको नवीन आदर्शमें गठित करनेके लिये आचार्य स्वामी प्रणवानन्दने अपने कर्ममय जीवनको लोकहितमें उत्सर्ग कर दिया था। भारतीय आर्यजातिके धर्म और साधनाको उन्होंने आधुनिक युगकी विकृतिसे मुक्त करनेका व्रत लिया था। उनका अध्यात्म-साधनासे समुज्ज्वल जीवनका महान् आदर्श हमारे लिये सत्य सिद्ध हो !



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[Bhakt Charitra - Bhakt Katha/Kahani - Full Story] [shreematsvaamee pranavaanandajee mahaaraaja]- Bhaktmaal


poorvabangaalake ek saadhaaran gaanvamen is mahaapurushaka janm hua thaa. inake pita jaagrat grihadevata neelarudr mahaadevake anany upaasak the. mahaadevakee kripaase hee unako yah putraratn praapt hua thaa. baalakapanase hee ve praayah udaas aur anaasakt bhaavamen rahate the. bahudha gharase gaayab ho jaate the aur maataa-pita jab vyaakul hokar dhoondhane nikalate, tab kisee peda़ke neeche akele unako dhyaanasth siddhaarthake samaan baahyajnaanashoony avasthaamen baithe hue milate. baalyaavasthaamen ve n to anaavashyak koee baat bolate aur n anaavashyak kisee vastuke liye aagrah karate the. anaavashyak kisee aur unakee drishti n jaatee aur n anaavashyak kisee dishaamen pair rakhate the. maano poorn sanyam hee baalamoortimen is dharaadhaamamen avateern hua thaa. unaka naam vinod rakha gaya thaa. ab ve vidyaalay men padha़neke liye jaane lage. vahaan bhee chhuttee honeke baad jab shikshak aur chhaatr klaasase baaharanikal jaate, tab vinod praayah n jaane kis chintaamen magn baahyajnaanashoony baithe hee rahate. ve shikshak aur chhaatr dononko priy the, isaliye koee unake is bhaavamen baadha naheen daalata thaa. gharapar unako bahudha log raatrimen deratak dhyaanamen baithe paate.

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'yatr jeevastatr shiva:' is mahaamantrakee saadhanaamen siddhi praapt karake jaatiko naveen aadarshamen gathit karaneke liye aachaary svaamee pranavaanandane apane karmamay jeevanako lokahitamen utsarg kar diya thaa. bhaarateey aaryajaatike dharm aur saadhanaako unhonne aadhunik yugakee vikritise mukt karaneka vrat liya thaa. unaka adhyaatma-saadhanaase samujjval jeevanaka mahaan aadarsh hamaare liye saty siddh ho !

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जो आया सो पछताया, जगत में किसने सुख
अपने दिल का दरवाजा हम खोल के सोते है
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बोलो राम राम राम, बोलो श्याम श्याम
ये सारे खेल तुम्हारे है
जग कहता खेल नसीबों का
ज़िंदगी मे हज़ारो का मेला जुड़ा
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एक बार आ गए तो कबू नहीं जायेंगे ॥
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