यन्नाम श्रुतिमात्रेण पुमान् भवति निर्मलः l
तस्य तीर्थपदः किं वा दासानामवशिष्यते ॥
(श्रीमद्भा0 9।5।16)
ओड़छा (बुन्देलखण्ड) के राज्यपुरोहित पण्डित सुमोखन शर्मा शुक्लकी धर्मपत्नीने मार्गशीर्ष कृष्णा पञ्चमी विक्रम संवत् 1567 को एक पुत्ररत्न पाया। बालकका नाम हरिराम रखा गया। पिताने यथावसर सब संस्कार कराये और अध्ययन कराया। यथासमय पुत्रका विवाह भी उत्तम कुलकी सुशीला कन्यासे कर दिया।
पण्डित हरिराम बहुत ही प्रतिभाशाली विद्वान् थे। बड़े-बड़े विद्वान् इस युवकसे शास्त्रोंका मर्म समझने आते थे। पिताके परलोकवासी होनेपर ओड़छानरेश राजा मधुकरशाहके ये राजपुरोहित हो गये। इन्हें वाद-1 द-विवाद करके पण्डितोंको पराजित करनेका व्यसन था। कहीं किसी विद्वान्का नाम सुनते तो वहीं शास्त्रार्थ करने पहुँच जाते। इनके साथ राज्यके अङ्गरक्षक रहते थे। एक बार ये काशी पधारे । वहाँके गण्यमान्य विद्वानोंसे भी शास्त्रचर्चा हुई और उसमें इनकी उत्कृष्टता रही। श्रावण मासमें बड़े विधि-विधानसे इन्होंने विश्वनाथजीका अभिषेक कराया। भगवान् आशुतोष प्रसन्न हुए । उसी रात स्वप्नमें एक साधुने इनसे शङ्का की - 'विद्याकी पूर्णता कब है?' इन्होंने उत्तर दिया- 'सत्यासत्यको जानकर प्राप्त करनेयोग्य पदार्थको प्राप्त करनेमें है।' साधुने कहा- 'पण्डितजी ! आप दूसरोंको जितना समझाते हैं, उतना स्वयं क्यों नहींसमझते? विद्याकी पूर्णता जब प्राप्त करनेयोग्य पदार्थको प्राप्त करनेमें है, तब वह वाद-विवादके द्वारा दूसरोंको लज्जित करनेसे क्या प्राप्त हो जायगा? वह पदार्थ तो भक्तिसे ही प्राप्य है। भगवद्भक्तिमें ही विद्याकी पूर्णता है। अपनी विद्याको पूर्ण करनेके लिये आपको भक्ति करनी चाहिये। अपूर्ण और अधूरी विद्या क्या आपको शोभा देती है?'
पण्डितजी जागे तो उनका विद्याका नशा उतर गया था। काशीमें जीतकर भी वे अपनेको हारा हुआ मान रहे थे और यही उनकी सच्ची विजय थी। उनके जीवनका मन्त्र हो गया- 'वही पढ़ विद्या, जामें भक्ति कौ प्रबोध होय।' काशीसे वे सीधे ओड़छा चले आये। अब उन्हें धन-दौलत, मान-प्रतिष्ठा आदि सब व्यर्थ मालूम होने लगा। किसी महापुरुषकी शरण ग्रहण करनेके लिये उनका हृदय ललक उठा। उसी समय महाप्रभु श्रीहितहरिवंशजीके शिष्य संत श्रीनवलदासजी ओड़छा | पधारे। पण्डित हरिरामको इनके सत्संगसे बड़ी तृप्ति हुई । | इनके उपदेशसे वे घर-द्वार छोड़कर सं0 1591 वि0 के कार्तिक मासमें वृन्दावन पहुँचे।
जब ये यमुना-स्नान करके श्रीहितहरिवंशजी महाप्रभुके पास पहुँचे, तब वे श्रीराधावल्लभजीको भोग प्रस्तुत - करनेके लिये रसोई बना रहे थे। उसी समय इन्होंने बातें करनी चाहीं । महाप्रभुने चूल्हेपरसे पात्र उतार दिया और जलसे अग्रिको शान्त कर दिया। इन्होंने कहा- 'रसोई औरचर्चा दोनों काम साथ हो सकते थे।' महाप्रभुने समझाया - दो स्थानोंपर मन लगाये रखना व्यभिचारात्मक चित्तवृत्ति है। यह कालसर्पसे ग्रसित है, अतः उस कालव्यालसे बचनेके लिये चित्तको सब ओरसे खींचकर श्रीश्यामाश्यामके चरणोंमें ही लगानेवाला धन्य है।' हरिरामजीने महाप्रभुसे दीक्षा ग्रहण कर ली। अब वे ओड़छाके राजपुरोहित नहीं रहें। उनका नाम हो गया व्यासदास सेवाकुञ्जके पास एक मन्दिर बनवाकर उसमें श्रीराधाकृष्णके युगल स्वरूपको पधराकर ये सेवामें लग गये।
कुछ दिनों बाद ओछानरेशने इनको लिया लाने के लिये अपने मन्त्रीको वृन्दावन भेजा। मन्त्रीने बहुत आग्रह अनुरोध किया, पर श्रीधाम वृन्दावन छोड़ना इन्होंने स्वीकार नहीं किया। मन्त्रीने देखा कि ये ऐसे नहीं चलेंगे तो श्रीहितमहाप्रभुजीसे प्रार्थना की। महाप्रभु स्वीकार कर लिया-स्नान करके आनेपर हम व्यासदाससे तुम्हारी बात कहेंगे। इनको जब इस बातका पता लगा कि गुरुदेव ओड़छा जानेकी आज्ञा देनेवाले हैं, तब ये यमुना किनारे झाडओंमें छिप गये। तीन दिनतक इनका कुछ पता ही न लगा। महाप्रभुने पता लगानेके लिये शिष्योंको भेजा। गुरुदेवका बुलावा सुनकर ये झाठ ओंमेंसे निकले और देरतक यमुना स्नान करते रहे। फिर बहुत सा कोयला घिसकर मुखपर पोत लिया और एक गधा साथ कर लिया। पूछनेपर बोले- 'जिनकी शरण में आकर मैंने श्रीधाम वृन्दावनका निवास पाया, वे ही मुझे यहाँसे बाहर जानेकी आज्ञा देनेवाले हैं। उनकी आज्ञासे इस दिव्यधामसे मुख काला करके गधेपर बैठकर मुझे नरक रूप संसारमें विवशतः जाना पड़ेगा। उस समय कोयला और गधा कदाचित् न मिले, इसलिये मैंने अभीसे इन्हें ले लिया है। यह समाचार महाप्रभुतक शिष्योंने पहुँचाया तो महाप्रभु बोले- 'मैं उस बड़भागीसे वृन्दावन छोड़नेके विषयमें एक शब्द भी नहीं कहूँगा। व्यर्थ ही मैंने उसके हृदयको क्लेश दिया। गुरुदेवकी इस बातका समाचार पाकर मुख धोकर व्यासदासजीने आकर उनके चरणोंमें प्रणाम किया। महाप्रभुने इनको उठाकर हृदयसे लगा लिया।
मन्त्रीका आग्रह बना ही था। उसने इनके साथ अपने आदमी कर दिये, जिससे ये कहीं छिप न जायें दूसरे दिन भगवान्का भोग लग जानेके पश्चात् भक्तोंकी पंगतबैठी। जब भक्त प्रसाद पाकर उठ गये, तब अपने नित्यके नियमानुसार व्यासदासजीने सभी भक्तोंकी पत्तलोंमेंसे उठाकर जूँठन- 'सीथ' ग्रहण किया। यह सब देखकर मन्त्रीने समझ लिया कि अब ये आधारसे गिर गये हैं। राजपुरोहित होनेयोग्य नहीं रहे हैं। मन्त्रीकी अश्रद्धा हो गयी। मन्त्रीने इनसे महाराजके नाम पत्र ले लिया और लौट गये।
मन्त्रीने ओछे जाकर राजा मधुकरशाहको पत्र दिया और बताया 'राजपुरोहित अब सबका जूठा खाने लगे हैं। वे यहाँ ले आने योग्य नहीं हैं?' राजा भगवद्भक्त थे। उनके ऊपर दूसरा ही प्रभाव पड़ा। वे सोचने लगे-'मेरे राजपुरोहित अब सच्चे महापुरुष हो गये हैं। यदि वे एक दिनको भी यहाँ आ जायें तो राज्य और राजमहल धन्य हो जाय।' अतः अब स्वयं राजा उन्हें मनाने वृन्दावन पहुँचे।
राजा मधुकरशाहने वृन्दावन आकर व्यासदासजीसे आग्रह प्रारम्भ किया-'अधिक नहीं तो एक दिनके लिये ही सही, आप ओड़छे एक बार अवश्य पधारें। ' व्यासदासजी इन्हें टालने लगे। कभी कोई फूल बंगला दर्शन करने को कहते, कभी कोई उत्सव महाराजके आग्रहसे संत भी इनसे कहने लगे कि एक दिनके लिये जाने क्या हानि है?' परंतु इन्होंने वृन्दावनसे बाहर न जानेका नियम कर लिया था। अन्तमें राजाने अपने कर्मचारियोंको बलपूर्वक इनको पालकीमें बैठाकर ले चलनेको कहा। इन्होंने कहा-'जब चलना ही है, तब मुझे अपने भाई-बन्धुओंसे मिल तो लेने दो!'
एक-एक कदम्ब या तमालसे भुजा फैलाकर व्यासदासजी मिलने लगे। देरतक उससे चिपटे रहते। फूट-फूटकर रो रहे थे। एकसे हटनेपर दूसरेसे जा चिपटते थे। कहते थे- 'तुम्हीं मेरे सर्वस्व हो। तुम्हीं मेरे पुरुषार्थ हो। तुम मुझपर दया क्यों नहीं करते? तुम मुझ दीनको क्यों छोड़ रहे हो? मुझसे ऐसा कौन-सा अपराध हो गया? तुमको छोड़कर मैं जी नहीं सकता।'
राजा मधुकरशाहका हृदय व्यासदासजीके लिये टूटा पड़ता था। वे किसी प्रकार एक बार इन्हें ओड़छा ले जाना चाहते थे। अन्तमें निराश होकर वे रो पड़े। हाथ जोड़कर चरणोंपर सिर रखकर क्षमा माँगते हुए बोले- 'आपने मेरे दुराग्रहसे बहुत कष्ट उठाया। आपके हृदयको स्वार्थवश मैंने बहुत व्यथा दी। इतनेपर भी आपने मुझेकठोर वचन नहीं कहे मेरे स्नेहको तोड़ा नहीं। मेरे अपराधको क्षमा कर दें। मैं अब और हठ नहीं करूँगा। आपकी जिसमें प्रसन्नता हो, वही करें। मुझे अपना अनुचर जानकर उपदेश करें।' व्यासदासजीने राजाको भगवद्भक्ति और संतसेवाका उपदेश किया। गुरुकी आज्ञासे ओछानरेश लौट आये।
राजपुरोहितानीजीने जब देखा कि मेरे पतिदेव राजाके जानेपर भी नहीं लौटे, तब वे स्वयं वृन्दावन पुत्रोंके साथ पहुँचीं व्यासदासजीने पूरी उदासीनता दिखायी। उन्हें भला, अब स्त्री-पुत्रसे क्या मोह? क्या प्रयोजन? लोगोंने सिफारिश की तो उन्होंने कहा- 'जो नारी परमार्थमें न लगी हो, उसे पास रखना तो यमके पाशमें अपने गलेको फैसा लेना है।'
पतिव्रता स्त्री पतिके चरणोंमें गिर पड़ी और उसने जैसे पतिदेव आज्ञा करें, वैसे ही रहना स्वीकार किया। व्यासदासजीने दीक्षा देकर उनका नाम 'वैष्णवदासी' रख दिया और संतोंकी सेवामें लगे रहनेका उन्हें उपदेश किया। माताने अपने पुत्रोंको भी पास रखनेकी अनुमति चाही। बहुत आग्रह करनेपर यह प्रार्थना भी स्वीकार हो गयी। पर पुत्रोंको दीक्षा व्यासदासजीने नहीं दी। उनमेंसे एक पुजने एक दिन संतस्वामी हरिदासजीको प्रशंसा की, तब आप उसपर प्रसन्न हो गये। उसे आपने स्वामीजीसे दीक्षा लेनेकी आज्ञा दे दी। वे 'चतुर युगलकिशोरदास' नामसे प्रसिद्ध हुए। संतोंमें इनका बहुत अनुराग था । वृन्दावन छोड़कर ये कहीं नहीं गये। इनके भावपूर्ण पद मिलते हैं।
व्यासदासी भगवान भगवद्धक तथा भगवप्रसाद के अनन्य भक्त थे। एक बार रासके समय श्रीराधारानीके चरणोंका नूपुर टूट गया, तब आपने यज्ञोपवीत तोड़कर उसे गूंथ दिया। लोगोंने पूछा- आपने यह क्या किया?" तो बोले-' अबतक तो इसका भार ही ढोता आया था। आज यह सफल हो गया।'
ये बड़े ही सहनशील थे। एक बार एक संत इनकी परीक्षा करने आये और कहने लगे 'मुझे बहुत भूख लगी है। शीघ्र भोजन कराओ।'
इन्होंने कहा- आप विराजे थोड़ी देरमें ही प्रभुको राजभोग लगेगा, तब भगवत्प्रसाद आप पा लेना। भोग लगे बिना कैसे आप भोजन कर सकते हैं।'संतने इतना सुनते ही गालियाँ देना प्रारम्भ किया। ये चुपचाप सुनते रहे। दर्शकोंमेंसे कुछको बुरा लगा। वे संतको मना करने लगे तो इन्होंने उनको रोक दिया। जब भगवान्का भोग लग गया, तब प्रसादका थाल लाकर संतके सामने रखकर नम्रतासे बोले-' प्रभु! आप पहले प्रसाद पा लें। जो गालियाँ शेष रह गयी हों, उन्हें फिर दे लेना।'
संत प्रसाद पाने बैठे और ये उनको हवा करने लगे। प्रसाद पाकर जूठी थाली संतने इनके सिरपर दे मारी। ये वह सब जूठन बटोरकर पाने लगे। अब तो वे संत इनके चरणोंपर गिर पड़े और बोले—'आपके धैर्य और साधु सेवाको धन्य है।'
श्रीठाकुरजीको एक बार ओडेसे आयी रखजटित वंशी धारण कराने लगे तो वंशी मोटी होनेसे प्रभुकी अँगुली किञ्चित् छिल गयी। इन्हें बड़ा दुःख हुआ वंशी मन्दिरमें रखकर जब ये बाहर आये, तब श्यामसुन्दरने स्वयं वंशी धारण कर ली। इसी प्रकार किसीकी भेजी जरकसी पाग ये ठाकुरजीको एक बार बाँध रहे थे, पर बहुत प्रयत्न करनेपर भी मनोऽनुकूल पाग बँधती नहीं थी। इन्होंने कहा-'मेरी बाँधी पसंद नहीं आती तो आप ही बाँधो।' पगड़ी रखकर ये मन्दिरसे बाहर आ गये। ठाकुरजीने स्वयं पगड़ी बाँध ली।
भगवान्के महाभाग भक्त उनसे नित्य अभिन्न होते हैं। ऐसे भक्तोंके सामने प्रभुकी लीला सदा ही प्रकाशित रहती है। व्यासदासजी ऐसे ही श्रीराधाकृष्णन सेवक थे। इनके व्रजभाषामें बड़े ही मधुर पद मिलते हैं। उनमेंसे कुछ नीचे उद्धृत किये जाते हैं-
हम कब होंहिंगे व्रजवासी।
ठाकुर नंदकिसोर हमारे, ठकुराइन राधा-सी।।
कब मिलिह वे सखी सहेली हरिवंसी हरिदासी।
बंसीबट की सीतल छैंयाँ सुभग नदी जमुना- सी
जाकी वैभव करत लालसा कर मीडत कमला सी
इतनी आस व्यास की पुजबहु वृंदा बिपिन बिलासी ॥
जो सुख होत भक्त पर आये।
सो सुख होत नहीं बहु सम्पति, बाँझहि बेटा जाये ॥
जो सुख भक्तनि की चरनोदक पीवत गात लगाये।
सो सुख सपने हूँ नहिं पैयत कोटिक तीरथ न्हाये ॥
जो सुख भक्तनि की मुख देखत उपजत दुख बिसराये।
सो सुख होत न कामिहि कबहूँ कामिनि उर लपटाये ॥
जो सुख होत भक्त वचननि सुनि नैनन नीर बहाये।
सो सुख कबहुँ न पैयत पितु घर पूत की पूत खिलाये ॥
जो सुख होत मिलत साधुनि साँ, छिन छिन रंग बढ़ाये।
सो सुख होत न रंक 'व्यास' को लंक सुमेरहि पाये ।।
साँचे मंदिर हरि के संत जिनि में मोहन सदा विराजत, तिनहिं न छोड़त अंत ॥
जिनि महँ रुचि कर भोग भोगवत पाँचौ स्वाद अदंत ।
जिनि महँ बालत हँसत कृपा करि चितवत नैन सुपंत ॥
अपने मत भागवत सुनावत रति दै रस बरवंत ।
जिनि में बसि संदेह दूरि करि देह धर्म परजंत ॥
जहाँ न संत तहाँ न भागवत भक्त सुसील अनंत।
जहाँ न 'व्यास' तहाँ न रास रस वृंदाबन कौ मंत॥
yannaam shrutimaatren pumaan bhavati nirmalah l
tasy teerthapadah kin va daasaanaamavashishyate ..
(shreemadbhaa0 9.5.16)
oda़chha (bundelakhanda) ke raajyapurohit pandit sumokhan sharma shuklakee dharmapatneene maargasheersh krishna panchamee vikram sanvat 1567 ko ek putraratn paayaa. baalakaka naam hariraam rakha gayaa. pitaane yathaavasar sab sanskaar karaaye aur adhyayan karaayaa. yathaasamay putraka vivaah bhee uttam kulakee susheela kanyaase kar diyaa.
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sant prasaad paane baithe aur ye unako hava karane lage. prasaad paakar joothee thaalee santane inake sirapar de maaree. ye vah sab joothan batorakar paane lage. ab to ve sant inake charanonpar gir pada़e aur bole—'aapake dhairy aur saadhu sevaako dhany hai.'
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bhagavaanke mahaabhaag bhakt unase nity abhinn hote hain. aise bhaktonke saamane prabhukee leela sada hee prakaashit rahatee hai. vyaasadaasajee aise hee shreeraadhaakrishnan sevak the. inake vrajabhaashaamen bada़e hee madhur pad milate hain. unamense kuchh neeche uddhrit kiye jaate hain-
ham kab honhinge vrajavaasee.
thaakur nandakisor hamaare, thakuraain raadhaa-see..
kab milih ve sakhee sahelee harivansee haridaasee.
banseebat kee seetal chhainyaan subhag nadee jamunaa- see
jaakee vaibhav karat laalasa kar meedat kamala see
itanee aas vyaas kee pujabahu vrinda bipin bilaasee ..
jo sukh hot bhakt par aaye.
so sukh hot naheen bahu sampati, baanjhahi beta jaaye ..
jo sukh bhaktani kee charanodak peevat gaat lagaaye.
so sukh sapane hoon nahin paiyat kotik teerath nhaaye ..
jo sukh bhaktani kee mukh dekhat upajat dukh bisaraaye.
so sukh hot n kaamihi kabahoon kaamini ur lapataaye ..
jo sukh hot bhakt vachanani suni nainan neer bahaaye.
so sukh kabahun n paiyat pitu ghar poot kee poot khilaaye ..
jo sukh hot milat saadhuni saan, chhin chhin rang badha़aaye.
so sukh hot n rank 'vyaasa' ko lank sumerahi paaye ..
saanche mandir hari ke sant jini men mohan sada viraajat, tinahin n chhoड़t ant ..
jini mahan ruchi kar bhog bhogavat paanchau svaad adant .
jini mahan baalat hansat kripa kari chitavat nain supant ..
apane mat bhaagavat sunaavat rati dai ras baravant .
jini men basi sandeh doori kari deh dharm parajant ..
jahaan n sant tahaan n bhaagavat bhakt suseel ananta.
jahaan n 'vyaasa' tahaan n raas ras vrindaaban kau manta..