दुष्करः को नु साधूनां दुस्त्यजो वा महात्मनाम् यैः संगृहीतो भगवान् सात्वतामृषभो हरिः ॥
(श्रीमद्भा0 15 15)
"जिन लोगोंने सत्त्वगुणियोंके परमाराध्य श्रीहरिको हृदयमें धारण कर लिया है, उन महात्मा साधुओंके लिये भला, कौन-सा काम दुष्कर है और ऐसा कौन-सा त्याग हैं, जिसे वे नहीं कर सकते। अर्थात् वे सब कुछ करनेमें समर्थ हैं और सब कुछ त्यागने में भी समर्थ हैं।'
अम्बरीषजी सप्तद्वीपवती सम्पूर्ण पृथ्वीके स्वामी थे और उनकी सम्पत्ति कभी समाप्त होनेवाली नहीं थी। उनके ऐश्वर्यकी संसारमें कोई तुलना न थी। कोई दरिद्र मनुष्य भोगोंके अभाव में वैराग्यवान् बन जाय, यह तो सरल है; किंतु धन-दौलत होनेपर, विलास-भोगकी पूरी सामग्री प्राप्त रहते वैराग्यवान् होना, विषयोंसे दूर रहना महापुरुषोंके ही वशका है और यह भगवानुकी कृपासे ही होता है। थोड़ी सम्पत्ति और साधारण अधिकार भी मनुष्यको मदान्ध बना देता है; किंतु जो भाग्यवान् अशरण-शरण दीनबन्धु भगवान्के चरणोंका आश्रय ले लेते हैं, जो उन मायापति श्रीहरिकी रूप-माधुरीका सुधास्वाद पा लेते हैं, मायाकी मादकता उन्हें रूखी लगती है। मोहनकी मोहिनी जिनके प्राण मोहित कर लेती है, मायाका ओछापन उन्हें लुभानेमें असमर्थ हो जाता है। वे तो जलमें कमलकी भाँति सम्पत्ति एवं ऐश्वर्यके मध्य भी निर्लिप्त ही रहते हैं। वैवस्वत मनुके प्रपौत्र तथा राजर्षि नाभागके पुत्र अम्बरीषको अपना ऐश्वर्य स्वप्नके समान असत् जान पड़ता था। वे जानते थे कि सम्पत्ति मिलनेसे मोह होता है और बुद्धि मारी जाती है। भगवान् वासुदेवके भक्तोंको पूरा विश्व ही मट्टीके ढेलों-सा लगता है। विश्वमें तथा उसके भोगों में नितान्त अनासक्त अम्बरीषजीने अपना सारा जीवन रमात्माके पावन पाद-पद्मोंमें ही लगा दिया था। अम्बरीषने अपने मनको श्रीकृष्णके चरण चिन्तनमें, को उनके गुण गानमें, हाथोंको श्रीहरिके मन्दिरको ड़ने-बुहारनेमें, कानोंको अच्युतके पवित्र चरित सुनने में,नेत्रोंको भगवन्मूर्तिके दर्शनमें, अङ्गको भगवत्सेवकों स्पर्शमें, नासिकाको भगवान्के चरणोंपर चढ़ी तुलसीकी गन्ध लेनेमें, जिहाको भगवत्प्रसादका रस लेनेमें, पैरोंको श्रीनारायणके पवित्र स्थानोंमें जानेमें और मस्तकको हृषीकेशके चरणोंकी वन्दनामें लगा रखा था। दूसरे संसारी लोगोंकी भाँति वे विषय-भोगोंमें लिप्त नहीं थे। श्रीहरिके प्रसादरूपमें ही वे भोगोंको स्वीकार करते थे। भगवानके भक्तको अर्पण करके उनको प्रसता के लिये ही भोगोंको ग्रहण करते थे। अपने समस्त कर्म यज्ञपुरुष परमात्माको अर्पण करके, सबमें वही एक प्रभु आत्मरूपसे विराजमान हैं- ऐसा दृढ़ निश्चय रखकर भगवद्भक्त ब्राह्मणोंकी बतलायी रीतिसे वे न्यायपूर्वक प्रजापालन करते थे।
निष्कामभावसे यहाँका राजाने अनुष्ठान किया, विविध वस्तुओंका प्रचुर दान किया और अनन्त पुण्य-धर्म किये। इन सबसे वे भगवान्को ही प्रसन्न करना चाहते थे। स्वर्गसुख तो उनकी दृष्टिमें तुच्छ था। अपने हृदय सिंहासनपर वे आनन्दकन्द गोविन्दको नित्य विराजमान देखते थे। उनको भगवत्प्रेमकी दिव्य माधुरी प्राप्त थी। गृह, स्त्री, पुत्र, स्वजन, गज, रथ, घोड़े, रत्न, वस्त्र, आभरण आदि कभी न घटनेवाला अक्षय भण्डार और स्वर्गके भोग उनको नीरस, स्वप्नके समान असत् लगते थे। उनका चित्त सदा भगवान्में ही लगा रहता था।
'जैसा राजा, वैसी प्रजा।' महाराज अम्बरीषके प्रजाजन, राजकर्मचारी- सभी लोग भगवान्के पवित्र चरित सुनने, भगवान्के नाम गुणका कीर्तन करने और भगवान्के पूजन ध्यानमें ही अपना समय लगाते थे। भक्तवत्सल भगवान्ने देखा कि मेरे ये भक्त तो मेरे चिन्तनमें ही लगे रहते हैं, तो भक्तोंके योगक्षेमकी रक्षा करनेवाले प्रभुने अपने सुदर्शनचक्रको अम्बरीष तथा उनके राज्यको रक्षामें नियुक्त कर दिया। जब मनुष्य अपना सब भार उन सर्वेश्वरपर छोड़कर उनका हो जाता है, तब वे दयामय उसके योगक्षेमका दायित्व अपने ऊपर लेकर उसे सर्वथा निश्चिन्त कर देते हैं। चक्रअम्बरीषके द्वारपर रहकर राज्यकी रक्षा करने लगा।
राजा अम्बरीषने एक बार अपनी पत्नीके साथ श्रीकृष्णको प्रसन्न करनेके लिये वर्षकी सभी एकादशियोंके व्रतका नियम किया। वर्ष पूरा होनेपर पारणके दिन उन्होंने धूमधामसे भगवानकी पूजा की ब्राह्मणोंको गोदान किया। यह सब करके जब वे पारण करने जा रहे थे, तभी महर्षि दुर्वासा शिष्योंसहित पधारे। राजाने उनका सत्कार किया और उनसे भोजन करनेकी प्रार्थना की दुर्वासाजीने राजाकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और स्नान करने यमुना तटपर चले गये। द्वादशी केवल एक घड़ी शेष थी। द्वादशीमें पारण न करनेसे व्रत भङ्ग होता। उधर दुर्वासाजी आयेंगे कब, यह पता नहीं था। अतिथिसे पहले भोजन करना अनुचित था। ब्राह्मणोंसे व्यवस्था लेकर राजाने भगवान्के चरणोदकको लेकर पारण कर लिया और भोजनके लिये ऋषिकी प्रतीक्षा करने लगे।
दुर्वासाजीने स्नान करके लौटते ही तपोबलसे राजा के पारण करनेकी बात जान ली। वे अत्यन्त क्रोधित हुए कि मेरे भोजनके पहले इसने क्यों पारण किया। उन्होंने मस्तकसे एक जटा उखाड़ ली और उसे जोरसे पृथ्वीपर पटक दिया। उससे कालाग्निके समान कृत्या नामकी भयानक राक्षसी निकली। वह राक्षसी तलवार लेकर राजाको मारने दौड़ी। राजा जहाँ के तहाँ स्थिर खड़े रहे। उन्हें तनिक भी भय नहीं लगा। सर्वत्र सब रूपोंमें भगवान् ही हैं, यह देखनेवाला भगवान्का भक्त भला, कहीं अपने ही दयामय स्वामीसे डर सकता है? अम्बरीषको तो कृत्या भी भगवान् हो दीखती थी परंतु भगवान्का सुदर्शनचक्र तो भगवान्को आज्ञासे पहलेसे ही राजाकी रक्षामें नियुक्त था। उसने पलक मारते कृत्याको भस्म कर दिया और दुर्वासाकी भी खबर लेने उनकी ओर दौड़ा। अपनी कृत्याको इस प्रकार नष्ट होते और ज्वालामय कराल चक्रको अपनी ओर आते देख दुर्वासाजी प्राण लेकर भागे। वे दसों दिशाओंमें, पर्वतोंकी गुफाओंमें, समुद्रमे जहाँ-जहाँ छिपनेको गये, चक्र वहीं उनका पीछा करता गया। आकाश-पातालमें सब कहीं वे गये। इन्द्रादि लोकपाल तो उन्हें क्या शरण देते, स्वयं ब्रह्माजी और शङ्करजीने भी आश्रय नहीं दिया।दया करके शिवजीने उनको भगवान् के ही पास जानेको कहा। अन्तमें वे वैकुण्ठ गये और भगवान् विष्णुके चरणोंपर गिर पड़े। दुर्वासाने कहा-'प्रभो! आपका नाम लेनेसे नारकी जीव नरकसे भी छूट जाते हैं, अतः आप मेरी रक्षा करें। मैंने आपके प्रभावको न जानकर आपके भक्तका अपराध किया, इसलिये आप मुझे क्षमा करें।"
भगवान् अपनी छातीपर भृगुकी लात तो सह सकते हैं, अपना अपराध वे कभी मनमें ही नहीं लेते; पर भक्तका अपराध वे क्षमा नहीं कर सकते। प्रभुने कहा - 'महर्षि ! मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ। मैं तो भक्तोंके पराधीन हूँ। साधु भक्तोंने मेरे हृदयको जीत लिया है। साधुजन मेरे हृदय हैं और मैं उनका हृदय हूँ। मुझे छोड़कर वे और कुछ नहीं जानते और उनको छोड़कर मैं भी और कुछ नहीं जानता। साधु भक्तोंको छोड़कर मैं अपने इस शरीरको भी नहीं चाहता और इन लक्ष्मीजीको जिनकी एकमात्र गति में ही हूँ, उन्हें भी नहीं चाहता। जो भक्त स्त्री-पुत्र, घर-परिवार, धन-प्राण, इहलोक-परलोक सबको त्यागकर मेरी शरण आया है, भला मैं उसे कैसे छोड़ सकता हूँ। जैसे पतिव्रता स्त्री पतिको अपनी सेवासे वशमें कर लेती है, वैसे हो समदर्शी भक्तजन मुझमें चित्त लगाकर मुझे भी अपने वशमें कर लेते हैं। नश्वर स्वर्गादिकी तो चर्चा ही क्या, मेरे भक्त मेरी सेवाके आगे मुक्तिको भी स्वीकार नहीं करते। ऐसे भक्तोंके मैं सर्वथा अधीन हूँ। अतएव ऋषिवर! आप उन महाभाग नाभागतनयके ही पास जायें। यहाँ आपको शान्ति मिलेगी।'
इधर राजा अम्बरीष बहुत ही चिन्तित थे। उन्हें लगता था कि 'मेरे ही कारण दुर्वासाजोको मृत्युभयसे ग्रस्त होकर भूखे ही भागना पड़ा। ऐसी अवस्थामें मेरे लिये भोजन करना कदापि उचित नहीं है। अतः वे केवल जल पीकर ऋषिके लौटनेकी पूरे एक वर्षतक प्रतीक्षा करते रहे। वर्षभरके बाद दुर्वासाजी जैसे भागे थे, वैसे ही भयभीत दौड़ते हुए आये और उन्होंने राजाका पैर पकड़ लिया। ब्राह्मणके द्वारा पैर पकड़े जाने से राजाको बड़ा संकोच हुआ। उन्होंने स्तुति करके सुदर्शनको शान्त किया।महर्षि दुर्वासा मृत्युके भयसे छूटे। सुदर्शनका अत्युग्र ताप, जो उन्हें जला रहा था, शान्त हुआ। अब प्रसन्न होकर वे कहने लगे- 'आज मैंने भगवान्के दासोंका महत्त्व देखा। राजन्! मैंने तुम्हारा इतना अपराध किया था पर तुम मेरा कल्याण ही चाहते हो । जिन प्रभुका नाम लेनेसे ही जीव समस्त पापोंसे छूट जाता है, उन तीर्थपाद श्रीहरिके भक्तोंके लिये कुछ भी कार्य शेष नहीं रह जाता। राजन्! तुम बड़े दयालु हो। मेरा अपराध न देखकर तुमने मेरी प्राण-रक्षा की!'अम्बरीषके मनमें ऋषिके वाक्योंसे कोई अभिमान नहीं आया। उन्होंने इसको भगवान्की कृपा समझा। महर्षिके चरणोंमें प्रणाम करके बड़े आदरसे राजाने उन्हें भोजन कराया। उनके भोजन करके चले जानेपर एक वर्ष पश्चात् उन्होंने वह पवित्र अन्न प्रसादरूपसे लिया । बहुत कालतक परमात्मामें मन लगाकर प्रजापालन करनेके पश्चात् अम्बरीषजीने अपने पुत्रको राज्य सौंप दिया और भगवान् वासुदेवमें मन लगाकर वनमें चले गये। वहाँ भजन तथा तप करते हुए उन्होंने भगवान्को प्राप्त किया।
dushkarah ko nu saadhoonaan dustyajo va mahaatmanaam yaih sangriheeto bhagavaan saatvataamrishabho harih ..
(shreemadbhaa0 15 15)
"jin logonne sattvaguniyonke paramaaraadhy shreehariko hridayamen dhaaran kar liya hai, un mahaatma saadhuonke liye bhala, kauna-sa kaam dushkar hai aur aisa kauna-sa tyaag hain, jise ve naheen kar sakate. arthaat ve sab kuchh karanemen samarth hain aur sab kuchh tyaagane men bhee samarth hain.'
ambareeshajee saptadveepavatee sampoorn prithveeke svaamee the aur unakee sampatti kabhee samaapt honevaalee naheen thee. unake aishvaryakee sansaaramen koee tulana n thee. koee daridr manushy bhogonke abhaav men vairaagyavaan ban jaay, yah to saral hai; kintu dhana-daulat honepar, vilaasa-bhogakee pooree saamagree praapt rahate vairaagyavaan hona, vishayonse door rahana mahaapurushonke hee vashaka hai aur yah bhagavaanukee kripaase hee hota hai. thoda़ee sampatti aur saadhaaran adhikaar bhee manushyako madaandh bana deta hai; kintu jo bhaagyavaan asharana-sharan deenabandhu bhagavaanke charanonka aashray le lete hain, jo un maayaapati shreeharikee roopa-maadhureeka sudhaasvaad pa lete hain, maayaakee maadakata unhen rookhee lagatee hai. mohanakee mohinee jinake praan mohit kar letee hai, maayaaka ochhaapan unhen lubhaanemen asamarth ho jaata hai. ve to jalamen kamalakee bhaanti sampatti evan aishvaryake madhy bhee nirlipt hee rahate hain. vaivasvat manuke prapautr tatha raajarshi naabhaagake putr ambareeshako apana aishvary svapnake samaan asat jaan pada़ta thaa. ve jaanate the ki sampatti milanese moh hota hai aur buddhi maaree jaatee hai. bhagavaan vaasudevake bhaktonko poora vishv hee matteeke dhelon-sa lagata hai. vishvamen tatha usake bhogon men nitaant anaasakt ambareeshajeene apana saara jeevan ramaatmaake paavan paada-padmonmen hee laga diya thaa. ambareeshane apane manako shreekrishnake charan chintanamen, ko unake gun gaanamen, haathonko shreeharike mandirako da़ne-buhaaranemen, kaanonko achyutake pavitr charit sunane men,netronko bhagavanmoortike darshanamen, angako bhagavatsevakon sparshamen, naasikaako bhagavaanke charanonpar chadha़ee tulaseekee gandh lenemen, jihaako bhagavatprasaadaka ras lenemen, paironko shreenaaraayanake pavitr sthaanonmen jaanemen aur mastakako hrisheekeshake charanonkee vandanaamen laga rakha thaa. doosare sansaaree logonkee bhaanti ve vishaya-bhogonmen lipt naheen the. shreeharike prasaadaroopamen hee ve bhogonko sveekaar karate the. bhagavaanake bhaktako arpan karake unako prasata ke liye hee bhogonko grahan karate the. apane samast karm yajnapurush paramaatmaako arpan karake, sabamen vahee ek prabhu aatmaroopase viraajamaan hain- aisa dridha़ nishchay rakhakar bhagavadbhakt braahmanonkee batalaayee reetise ve nyaayapoorvak prajaapaalan karate the.
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