चन्द्रवंशमें सुवीर नामसे प्रसिद्ध एक राजा हो गये। हैं। दक्षिण भारतके नारायणपुरमें उनकी राजधानी थी। महाराज सुवीरके रानी नन्दिनीके गर्भ से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम तोण्डमान रखा गया। राजकुमार तोण्डमान बड़े वीर थे। पाँच ही वर्षकी अवस्थासे उनके हृदय में भगवान् विष्णुकी भक्ति प्रकट हो गयी थी। युवा होनेपर पाण्ड्य- नरेशकी सुन्दरी पुत्री पद्माके साथ उनका विवाह हुआ। विभिन्न देशोंकी अनेक राजकुमारियोंने भी स्वयंवरसभामें उनका वरण किया था। उन्हें देवराज इन्द्रकी भाँति ऋद्धि सिद्धि एवं सुख-भोगकी सामग्री सुलभ थी; तो भी वे उनमें आसक्त न होकर सदा भगवान्के चिन्तनमें ही संलग्र रहते थे।
एक दिन राजकुमार तोण्डमान पिताकी आज्ञासे वेङ्कटगिरिके समीप शिकार खेलनेके लिये गये। शिकारमें वे उन्हीं हिंसक जीवोंका वध करते थे, जो प्रजाके लिये भय उपस्थित करनेवाले थे। स्वर्णमुखरी नदी पार करके ब्रह्मर्षि शुक और रेणुका देवीका दर्शन करते हुए तोण्डमान जब पश्चिम दिशाकी ओर बढ़े, तब एक जगह उन्हें पंचरंगा तोता दिखायी दिया। वह देखनेमें बड़ा ही सुन्दर था और भगवान् श्रीनिवासका नाम रट रहा था। उसकी दिव्य आकृति और मधुर बोलीपर राजकुमार मुग्ध हो गये और उसे पकड़नेके लिये उसका पीछा करने लगे। तोता उड़कर वेङ्कटाचलके शिखरपर जा पहुँचा। तोण्डमान भी उसका अनुसरण करते हुएगिरिराजपर चढ़ गये। परंतु वहाँ वह तोता कहीं नहीं दिखायी दिया। पास ही श्यामाकवन था। निषादराज वसु, जो भगवान् श्रीनिवासके अनन्य भक्त थे, उस वनकी रखवाली कर रहे थे। राजकुमारको आते देख उन्होंने उनकी अगवानी की और उन्हें प्रणाम करके विनीतभावसे दोनों हाथ जोड़कर कहा-'युवराज! स्वागत है! कहिये, आपकी क्या सेवा करूँ?'
राजकुमार बोले- 'वनेचर! इधर एक पँचरंगा तोता उड़ता हुआ आया है। क्या तुमने उसे देखा है? वह 'श्रीनिवास श्रीनिवास' की रट लगा रहा था। मैं उसीको ढूँढता हूँ; बताओ, वह किधर गया है?'
वसुने कहा- 'युवराज! वह भगवान् श्रीनिवासका तोता है, उसे श्रीदेवी और भूदेवीने पाल-पोसकर बड़ा किया है। उसे कोई पकड़ नहीं सकता। भगवान्को वह शुक बहुत ही प्रिय है। अब मैं भगवान्की आराधनाके लिये जाता हूँ; जबतक लौटकर न आऊँ, तबतक आप यहीं वृक्षके नीचे विश्राम करें।'
राजाने कहा- 'निषादराज! मैं भी भगवान्के दर्शन करूंगा, मुझे अपने साथ ले चलो।'
'वसुने 'बहुत अच्छा' कहकर युवराजको अपने साथ ले लिया। स्वामिपुष्करिणीमें युवराजसहित विधिपूर्वक स्नान करके वह दिव्य विमानमें विराजमान भगवान् श्रीनिवासके समीप गया। तोण्डमानने देखा, बिल्ववृक्षके नीचे भगवान्का दिव्य विमान प्रकाशित हो रहा है।उसके भीतर भगवान् श्रीनिवास विराज रहे हैं, परम सुन्दरी श्रीदेवी और भूदेवी उनकी सेवामें संलग्न हैं। उनके श्रीअङ्गोंकी श्यामलता अलसीके फूल-सी सुशोभित हो रही थी। नेत्र खिले हुए कमलदलकी भाँति सुन्दर एवं विशाल थे। चार भुजाएँ थीं। भगवान्के अङ्ग अङ्गसे उदारता प्रकट हो रही थी उनके मुखारविन्दपर मन्द मुस्कराहटकी छटा मनको मोह लेती थी। श्रीअङ्गॉपर पीताम्बरकी अपूर्व शोभा थी। शङ्ख, चक्र आदि आयुध मूर्तिमान् होकर भगवान्की सेवा कर रहे थे। युवराज भगवान्का यह अद्भुत स्वरूप देखकर मुग्ध हो गये और उन्होंने अपना तन, मन, धन एवं जीवन उन्हींके चरणों में न्यौछावर कर दिया। उन दिनों वहाँ गये हुए सभी बड़भागी भलोंको उनके प्रत्यक्ष दर्शन होते थे। निषादराजने भगवान्का पूजन करके उन्हें मधुमिश्रित सावाँका भात निवेदन किया और प्रसाद लेकर राजकुमारके साथ वे पुनः अपनी कुटीपर लौट आये। रातमें उनकी कुटीपर रहकर राजकुमारने सत्सङ्गका सुख उठाया और प्रात:काल सेवकोंसहित अपने नगरको प्रस्थान किया। मार्गमें उन्हें शुकमुनि तथा रेणुका देवीका भी कृपाप्रसाद प्राप्त हुआ।
कुछ दिनों बाद राजा सुवीरने अपने पुत्रको राज्य दे स्वयं वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण किया। महाराज तोण्डमान धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करते हुए भगवान्की आराधनामें तत्पर रहने लगे। एक दिन निषादराज वसु राजद्वारपर उपस्थित हुए। सूचना पाकर महाराजने उन्हें दरबारमें बुलाया और स्वागत सत्कार करके पूछा-'निषादराज! कैसे पधारे हो?'
वसुने कहा- 'राजन्! मैंने वनमें एक बड़े आश्चर्यकी बात देखी है। रातमें एक श्वेत रंगका वाराह आकर मेरा सावाँ चरने लगा। यह देख मैंने हाथमें धनुष लेकर उसका पीछा किया। वाराह मुझे देखते ही हवा हो गया। मैंने भी पीछा नहीं छोड़ा। स्वामिपुष्करिणीके तटपर जाकर वह वाराह एक बाँबीमें घुस गया। तब मैं क्रोधमें आकर उस बाँबीकी ही खोदने लगा इतनेमें ही मूच्छित होकर गिर पड़ा। उसी समय मेरा पुत्र भी वहाँ आपहुँचा। मुझे मूर्छित देख वह भगवान् मधुसूदनको स्तुति करने लगा। तब भगवान् वाराहका मुझमें आवेश हुआ। उन्होंने मेरे पुत्रसे कहा- 'निषादराज वसु शीघ्र ही महाराज तोण्डमानके पास जाकर मेरा सारा वृत्तान्त उनसे कहे। राजा काली गौके दूधसे मेरा अभिषेक करते हुए इस वल्मीकको धो डालें। इसके भीतर एक सुन्दर शिला प्राप्त होगी, उसे लेकर शिल्पीद्वारा मेरी वाराह मूर्तिका निर्माण करायें, जिसमें मैं भूमिदेवीको अपने बायें अमें लेकर खड़ा रहूँ। मूर्ति तैयार हो जानेपर बड़े-बड़े मुनीश्वरों और वैखानस महात्माओंद्वारा उसकी स्थापना कराकर स्वयं तोण्डमान भी उसकी पूजा करें।' यो कहकर भगवान् वाराहने मुझे छोड़ दिया। तब मैं पूर्ववत् स्वस्थ हो गया। देवाधिदेव भगवान् वाराह आपसे क्या कराना चाहते हैं, यह बतानेके लिये ही मैं आपकी सेवामें उपस्थित हुआ हूँ।'
राजाने भगवान्की इस आज्ञाको बड़ी प्रसन्नताके साथ शिरोधार्य किया। ग्वालोंको आज्ञा दे दो- 'मेरे यहाँ जितनी भी काली और कपिला गौएँ हैं, उन सबको बेङ्कटाचलपर ले चलो।' मन्त्रियोंको आदेश मिला - 'कल ही यात्रा करनी है, इसको समुचित व्यवस्था की जाय।' तदनन्तर तोण्डमान अन्तःपुरमें गये और सभी रानियोंसे वाराह भगवान्का वह आदेश सुनाकर रातमें वहीं सोये। सपने में भगवान् श्रीनिवासने उन्हें बिलका मार्ग दिखलाया और राजद्वारसे लेकर बिलके समीपतक पल्लव बिछवा दिये। सवेरे उठनेपर राजाने अपना स्वप्न लोगोंपर प्रकट किया और द्वारपर बिछे हुए पल्लव वहाँ प्रत्यक्ष दिखायी दिये।
महाराजने शुभ मुहूर्तमें यात्रा की और बिलके समीप पहुँचकर वहाँ एक सुन्दर नगर बसाया। भगवान्के आदेशके अनुसार उन्होंने मूर्ति निर्माण प्रतिष्ठा और पूजनका कार्य बड़ी धूम-धाम से सम्पन्न किया। वे प्रतिदिन बिलके मार्गसे आकर भगवान्को प्रणाम करते और लौट जाते थे। एक दिन राजाके यहाँ एक ब्राह्मण देवता अपनी पत्नीके साथ पधारे और इस प्रकारबोले- 'महाराज। मैं वसिष्ठकुलमै उत्पन्न सामवेदी ब्राह्मण हूँ। मेरा नाम वीरशर्मा है। हम दोनों दम्पति घरसे तीर्थयात्रा के लिये निकले हैं; परंतु गर्भवती होनेके कारण मेरी पत्नीसे चला नहीं जाता। अतः आप इसे अन्त: पुरमें रखकर तबतक इसकी रक्षा करें, जबतक मैं तीर्थयात्रा से लौट न आऊँ।' राजाने 'तथास्तु' कहकर उसकी रक्षाका भार ले लिया। ब्राह्मणदेवता निश्चिन्त होकर चले गये। महाराजने सेवकोंको आज्ञा देकर ब्राह्मणीके लिये अन्तःपुरमें एक एकान्त गृहकी व्यवस्था करा दी और एक बार छः महीनेके लिये अन्न दिलवा दिया। ब्राह्मणी पतिव्रता और लज्जावती थी। वह किसी भी परपुरुषसे बात नहीं करती थी। छः महीनेतक वह उस अन्नसे निर्वाह करती रही। दैववश राजाको ब्राह्मणीकी याद न रही। छः महीने बाद अन्नका अभाव हो गया, तो भी ब्राह्मणीने स्वयं मुँह खोलकर माँगा नहीं। बेचारी भूखकी पीड़ा सहती हुई मर गयी। ब्राह्मणदेवता तीर्थयात्रा पूरी करके दो वर्ष बाद लौटे, तबतक ब्राह्मणीके एकान्त निवासमें कोई नहीं गया था। ब्राह्मणने महाराजके दरवारमें उपस्थित हो गङ्गाजलसे भरी हुई एक शीशी भेंट की और अपनी पत्नीका कुशल- समाचार पूछा। महाराजको अब याद आयी। वे शङ्कित होकर अन्तःपुरमें गये। ब्राह्मणीको मृत्यु हो चुकी है यह जानकर वे चुपचाप बिलके मार्ग से भगवान् श्रीनिवासके समीप बेङ्कटाचलपर चले गये और भगवान्से सब समाचार कह सुनाया। भक्तवत्सल प्रभुने देखा, राजा तोण्डमान ब्रह्मशापसे भयभीत हैं। तब उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा- 'राजन् ! यहाँ पूर्वभागमें जो अस्थिसरोवर है, उसीमें द्वादशी तिथिको आकर ब्राह्मणीके शवको स्नान कराओ। वह 'जीवित हो जायगी।'भगवान् श्रीनिवासका यह वचन सुनकर राजा अपने नगरमें आये। फिर अपनी रानियों तथा ब्राह्मणीके शवको भी अलग-अलग डोलियोंमें बिठाकर भगवान्का दर्शन करनेके व्याजसे चले। अस्थिसरोवरमें पहुँचकर उन्होंने रानियोंको स्नान करनेकी आज्ञा दी। रानियोंने स्वयं स्नान करते समय ब्राह्मणीके शवको भी उस सरोवरके जलमें डाल दिया। भगवान्की कृपासे वह जी उठी। उसके सभी अङ्ग पूर्ववत् हो गये। तत्पश्चात् ब्राह्मणी रानियोंके साथ सरोवरसे बाहर आयी और तीर्थयात्रा से लौटे हुए अपने पूज्य । पतिसे प्रसन्नतापूर्वक मिली। राजाने बहुत धन देकर ब्राह्मणदम्पतिको आदरपूर्वक विदा किया। ब्राह्मणने अपनी स्त्रीका समाचार और भगवान् वेङ्कटेश्वरका अद्भुत | प्रभाव सुना। वे राजाको आशीर्वाद देकर प्रसन्नतापूर्वक अपने देशको लौट गये। एक दिन महाराजने एक भगवद्भक्त कुम्हार दम्पतिके परमधामगमनकी अद्भुत घटना अपनी आँखों देखी। फिर तो उनका मन इस संसारके सुखभोगसे सर्वथा विरक्त हो गया। उन्होंने अपने पुत्र श्रीनिवासको राज्य देकर स्वयं वेङ्कटाचलपर बड़ी भारी तपस्या की। भगवान्ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया और कहा- 'राजन्! वर माँगो' राजाने भगवान्के नित्य धाममें रहकर उनकी सेवाका सौभाग्य माँगा । भगवान्ने 'एवमस्तु' कहकर भक्तको अनुगृहीत किया। राजाने प्रभुके चरणोंमें साष्टाङ्ग प्रणाम करके इस नश्वर देहको त्याग दिया और विष्णु सारूप्य प्राप्त करके दिव्य विमानपर जा बैठे। उस समय देवता और गन्धर्व आकाशसे फूलोंकी वृष्टि करते हुए उनके सौभाग्यकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। इस प्रकार राजा तोण्डमानने अपनी अनन्य भक्तिके प्रभावसे भक्तवत्सल श्रीहरिका जरा- मृत्युरहित पुनरावृत्तिशून्य वैकुण्ठधाम प्राप्त किया।
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