स्वयम्भूनारदः शम्भुः कुमारः कपिलो मनुः ।
प्रह्लादो जनको भीष्मो वलिवैयासकिर्वयम् ॥
द्वादशैते विजानीमो धर्मं भागवतं भटाः ।
गुह्यं विशुद्धं दुर्बोधं यं ज्ञात्वामृतमश्नुते ॥
(श्रीमद्भा0 6 3 20-21)
श्रीधमराजजीने अपने दूतोंको भागवताचायका वर्णन करते हुए कहा-'शूरो ! जिस रहस्यमय दुर्बोध विशुद्ध भागवतधर्मको जानकर प्राणी अमृतत्व प्राप्त कर लेता है, उसे भगवान् ब्रह्मा, भगवान् शङ्कर, देवर्षि नारद, सनकादि कुमार, महर्षि कपिल, महाराज मनु भक्तराज प्रह्लाद, महाराज जनक, श्रीभीष्मजी दैत्यराज बलि, महामुनि शुकदेवजी और मैं ये बारह आचार्य ही जानते हैं।"
ऊपरके इन बारह भागवताचार्यों में भी भगवान् ब्रह्माका नाम प्रथम है। सृष्टिके आदिमें भगवान् शेषशायीकी नाभिसे एक निखिललोकात्मक ज्योतिर्मय कमल प्रलय सिन्धुमें प्रकट हुआ और उसी कमलकी कर्णिकापर ब्रह्माजी प्रकट हुए। पहले तो ब्रह्माजीने यह देखनेके लिये कि यह कमल कहाँसे निकला है, उसके नाल छिद्रमें प्रवेश किया और सहस्र दिव्य वर्षोंतक वे उस नालका पता लगाते रहे। जब कोई पता न लगा, तब निराश होकर वे कमलपर लौट आये। उसी समय उन्हें अव्यक्त वाणीमें 'तप' यह शब्द दो बार सुनायी पड़ा। दीर्घकालतक ब्रह्माजी तप करते रहे। तपके द्वारा चितके सर्वथा निशल होनेपर उन्हें अपने अन्तः करणमें ही भगवान् शेषशायीके दर्शन हुए। ब्रह्माजीके द्वारा स्तुति किये जानेपर भगवान्ने उन्हें भागवत-तत्त्वका चार श्लोकोंमें उपदेश किया। वही मूल चतुःश्लोकी भागवत है। भगवान्ने कहा-
'ब्रह्माजी | विज्ञानके सहित जो मेरा परम गोपनीय ज्ञान है, उसे उसके रहस्य एवं अङ्गोंके साथ मैं उपदेश कर रहा हूँ, आप उसे ग्रहण करें। मैं जिस प्रकारका हूँ,मेरा जो भाव है, जो रूप है, जो गुण है और जो कर्म हैं, उन सबका यथावत् तत्त्वज्ञान आपको मेरी कृपासे हो।' इस प्रकार दो श्लोकोंमेंसे पहलेमें ज्ञानकी महत्ता बताकर दूसरेमें भगवान्ने बताया कि उपदेश आनेवाला भगवत्स्वरूप भगवद्भाव, भगवान्के लीलारूप, गुण एवं कर्मादि भगवान् के अनुग्रहसे स्वयं ब्रह्माजीके हृदयमें स्फुरित हो जायेंगे। इन दोनों श्लोकोंके पश्चात् चार श्लोकोंमें मूल भागवतका भगवान्ने उपदेश किया
'सृष्टिसे पूर्व केवल मैं ही था। सत्, असत् या उससे परे मुझसे भिन्न कुछ नहीं था। सृष्टि न रहनेपर (प्रलयकालमें) भी मैं ही रहता हूँ। यह सब सृष्टिस्वरूप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टि, स्थिति तथा प्रलयसे बच रहता है, वह भी मैं ही हूँ।'
'जो मुझ मूल तत्त्वको छोड़कर प्रतीत होता है और आत्मामें प्रतीत नहीं होता, उसे आत्माकी माया समझो। जैसे (वस्तुका) प्रतिविम्व अथवा अन्धकार (छाया) होता है।'
'जैसे पञ्चमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और (आकाश) संसारके छोटे-बड़े सभी पदार्थोंमें प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्वमें व्यापक होनेपर भी उससे असम्पृक्त हूँ।'
'आत्मतत्त्वको जानने की इच्छा रखनेवालेके लिये इतना ही जानने योग्य है कि अन्वय (सृष्टि) तथा व्यतिरेक (प्रलय) क्रममें जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा रहता है, वही आत्मतत्त्व है।'
इस चतुःश्लोकीका उपदेश करके भगवान्ने एक श्लोकमें उसका माहात्म्य बतलाते हुए कहा- 'ब्रह्माजी ! आप परम समाधिके द्वारा इस मत (विचार) - पर स्थिर हो ऐसा करनेपर कल्पोंका विकल्प (संकल्प-सृष्टि) करते हुए आप कभी मोहित नहीं होंगे।"इस प्रकार साक्षात् भगवान् से ब्रह्माजीने सृष्टिके आदिमें तत्वज्ञान प्राप्त किया एवं उनके हृदयमें भगवान्की अनुकम्पासे भगवान्की अपार महिमा तथा उनके अनन्त दिव्य नित्य रूप, गुण एवं लीलाओंका प्रकाश हुआ। ब्रह्माजीने देवर्षि नारदके पूछनेपर उन्हें इस भागवत तत्त्वका उपदेश किया और भगवत्कृपासे हृदयमें स्फुरित भगवल्लीलाओंमेंसे मुख्य चौबीस अवतारोंके चरित सूत्ररूपमें सुनाये। देवर्षि नारदजीने वह तत्त्वज्ञान एवं भगवच्चरित भगवान् व्यासको सुनाया और व्यासजीने उसे श्रीमद्भागवतके रूपमें अठारह सहस्र श्लोकोंका रूप देकर शुकदेवजीको पढ़ाया। इस क्रमसे श्रीमद्भागवतका लोकमें विस्तार हुआ।
जब भी पृथ्वी असुरोंके अधर्म-भारसे पीड़ित होती है तो वह देवताओंके साथ सृष्टिकर्ताके समीप जाकर अपना दुःख निवेदन करती है। भगवान् ब्रह्मा देवताओंके साथ उन जगदाधार परम प्रभुकी स्तुति करते हैं और तब जैसा भी भगवान्का आदेश होता है, वैसा कार्य करनेका आदेश वे देवताओंको देते हैं। इस प्रकार अधिकांश भगवान् के अवतार ब्रह्माजीकी प्रार्थनासे ही होते हैं और उन अवतारोंके समय ब्रह्माजी समय-समयपर भगवान्की लीलाके दर्शन करने पधारते हैं।
जब भगवान् वामनने दैत्यराज बलिके यज्ञमें बलिसे तीन पग पृथ्वीके दानका संकल्प करा लिया और पृथ्वी नापते समय अपने विराट् रूपको प्रकट करके उन्होंने अपना दाहिना पैर स्वर्गकी ओर उठाया, तब भगवान्का वह चरण ब्रह्मलोकतक पहुँच गया। उस समय ब्रह्माजीने बड़ी ही श्रद्धासे भगवानके उस चरणको धोया और उसकी पूजा की। भगवान्के उस चरणके अँगूठेके नखसे इस ब्रह्माण्डका बाह्यावरण तनिक फट गया और उस छिद्रसे ब्रह्माण्डसे बाहरका ब्रह्मवारि भगवान्के श्रीचरणपर आ गया। ब्रह्माजीने भगवान्का चरणोदक वह 'ब्रादव'अपने कमण्डलुमें भर लिया और वे सदा उस चरणोदकको अपने साथ ही रखते हैं। महाराज भगीरथके तप करनेपर उसी कमण्डलुसे जो थोड़ा जल ब्रह्माजीने छोड़ दिया, वही तीन रूपमें हो गया। स्वर्गमें मन्दाकिनी, पातालमें भोगवती तथा पृथ्वीपर गङ्गाजीके रूपमें भगवान्का वही परमपावन चरणोदकरूप साक्षात् ब्रह्मद्रव प्रवाहित हो रहा है।
ब्रह्माजीने स्वयं अपने हृदय एवं मनको स्थितिका | वर्णन करते हुए कहा है-'मेरी वाणी कभी असत्यकी ओर प्रवृत्त नहीं होती, मेरा मन कभी असत्यकी ओर नहीं जाता, मेरी इन्द्रियों कभी असन्मार्गकी ओर नहीं झुकर्ती; क्योंकि मैं हृदयमें सदा ही बड़ी उत्कण्ठासे श्रीहरिको धारण किये रहता हूँ।" बस, यही तो 'भागवतधर्मका' आदर्श है।'
इस प्रकार भागवतधर्मके प्रथमाचार्य ब्रह्माजीने अपनी स्थितिके द्वारा प्राणियोंको यह भी बताया है कि वाणी से असत्य भाषण न हो, मन कुमार्गमें न जाय, इन्द्रियाँ विषयोंमें प्रवृत्त न हों, इसका एकमात्र उपाय है कि. भगवान्को उत्कण्ठापूर्वक हृदयमें धारण किया जाय। चित्तको सब प्रकारसे उन प्रभुमें ही लगाये रखा जाय।
भगवान्को शरणागति- भगवान्का हो जाना ही सारे दुःख, क्लेश और बन्धनोंका नाश करनेवाला है। इसपर ब्रह्माजी भगवान्की स्तुति करते हुए कहते हैं-'जबतक मनुष्य आपके अभयप्रद चरणारविन्दोंका आश्रय नहीं लेता, तभीतक उसे धन, घर और बन्धुजनोंके कारण प्राप्त होनेवाले भय, शोक, दीनता और अत्यन्त लोभ आदि सताते हैं और तभीतक उसे 'मेरेपन' का आग्रह रहता है, जो दुःखकी एकमात्र जड़ है। श्रीकृष्ण ! तभीतक राग-द्वेष आदि चोर पीछे लगे हैं, तभीतक घर कैदखाने की तरह बाँधे हुए है और तभीतक मोहकी बेड़ियाँ पैरोंमें पड़ी है जबतक यह जीव आपकी शरणमें नहीं आ जाता आपका नहीं हो जाता। '
svayambhoonaaradah shambhuh kumaarah kapilo manuh .
prahlaado janako bheeshmo valivaiyaasakirvayam ..
dvaadashaite vijaaneemo dharman bhaagavatan bhataah .
guhyan vishuddhan durbodhan yan jnaatvaamritamashnute ..
(shreemadbhaa0 6 3 20-21)
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