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भक्त बालकराम की मार्मिक कथा
भक्त बालकराम की अधबुत कहानी - Full Story of भक्त बालकराम (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्त बालकराम]- भक्तमाल


भक्त बालकरामजी राजनगर नामक गाँवमें रहते थे। छोटा-सा गाँव था । अधिकांश ब्राह्मणोंकी बस्ती थी । बालकरामजी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। पिता-माता बड़े धर्मशील और सात्त्विक थे। बालकरामजीको छोटी उम्र में छोड़कर ही दोनों परलोक सिधार गये थे। बालकरामजीको इनकी विधवा बूआने पाला था। वहीं गाँव में एक पण्डितजीकी पाठशाला थी। बालकरामजीने उसीमें संस्कृतकी शिक्षा पायी थी। माता-1 -पिता न होनेसे इनके विवाहकी किसीने चेष्टा नहीं की। स्वयं ये जन्मसे ही विरक्तस्वभावके थे, इसलिये इनके मनमें कभी विवाह करनेकी कल्पना आयी ही नहीं । अतएव ये नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे। शरीर बड़ा सुडौल, सुन्दर गौरवर्ण था, बड़े सधे हुए सजीले जवान थे। आँखोंमें अद्भुत तेज था। ये तड़के तीन बजे उठते और हाथ-मुँह धोकर भगवान् श्रीसीतारामजीके ध्यानमें बैठ जाते। दो घंटे ध्यानमें बिताकर - उठकर शौच, स्नान-सन्ध्यादिसे निवृत्त होकर-फिर ध्यानमें बैठते । बारह बजे उठकर खानेको कुछ बना लेते और भगवान्‌को निवेदन करके प्रसादरूपमें पा लेते। इसकेबाद चौबीस घंटे कुछ भी खानेसे काम नहीं। दिनभर कुटिया बंद रखते और अखण्ड भजन करते। शामको सूर्यास्तके लगभग दो घंटे पहले कुटियासे निकलते। उस समय गाँवके लोग जुट जाते। विविध परमार्थ-चर्चा चलती। आप सबसे भजन करनेको कहते। बीच-बीचमें भागवतके श्लोक और मानसजीकी चौपाइयाँ सुना सुनाकर लोगोंकी भजन-निष्ठा बढ़ाते। फिर बस शौच स्नान-सन्ध्यासे निवृत्त होकर सन्ध्या होते ही किवाड़ ढक लेते।

भजनमें बहुत बड़ी निष्ठा थी। आठों पहर इनके मुखसे भगवान्का पवित्र नामोच्चारण होता रहता।

एक बार आप सन्ध्यासे कुछ पहले कुटियासे बाहर अकेले बैठे हुए श्रीरामनामका जप कर रहे थे, इतनेमें ही एक सुन्दरी स्त्रीने आकर चरणोंमें प्रणाम किया और कुछ फल-फूल सामने रखकर कहा-'महाराजजी ! मैं अमुक गाँवके जमींदारकी पुत्रवधू हूँ। मेरे कोई सन्तान नहीं है। मैंने सुना है, आप बड़े महात्मा हैं; इसीलिये अकेली आपकी सेवामें आयी है। आप आशीर्वाद दे दें तो मेरी गोद जरूर भर जायगी। आप दयालु हैं। मैं आपसे आँचल पसारकर भीख माँगती हूँ।'

बालकरामजीने बड़े सङ्कोचसे कहा- 'बहिन! तुम्हें अकेले घरसे बाहर निकलकर इस प्रकार किसी भी पुरुषके पास नहीं जाना चाहिये। पता नहीं, महात्माओंके वेषमें कितने स्वार्थी लोग घूमते हैं। फिर बहिन ! मेरे पास तो कोई भी सिद्धि नहीं है, न कोई मन्त्रबल या तपोबल ही है, जिससे मैं तुम्हें आशीर्वाद दे सकूँ। मैं तो अकिञ्चन दीन ब्राह्मण हूँ। प्रभुके नामपर पेट भरता हूँ। मुझे इस बातसे बड़ी लज्जा होती है कि लोग मुझे भक्त या महात्मा मानते हैं। मैं तो महात्मा और भक्तोंकी चरणरज पानेका भी अधिकारी नहीं हूँ। बहिन ! जाओ, रातको घरसे बाहर रहना ठीक नहीं भगवान्‌का स्मरण करो, उन्हींसे प्रार्थना करो; वे जो उचित समझेंगे, वही करेंगे; उसीसे तुम्हारा परम कल्याण होगा। इसमें जरा भी शङ्का न करो!'

बालकरामजीकी बात सुनकर उसे बड़ी निराशा हुई, परंतु बेचारी क्या करती। लौट चली बालकरामजीनेकहा- "तुम्हारा घर दो कोस दूर है, अँधेरा हो रहा है। सावधानीसे जाना। भगवान् मङ्गल करेंगे। कोई सङ्कट आये तो 'श्रीसीताराम सीताराम' कहना।" जमींदार- वधू दो चार खेत आगे बढ़ी थी कि उसके गहने देखकर चोरोंने उसे घेर लिया। चोर, जब वह आयी थी, तभीसे इसी ताकमें थे उसने अपनेको बड़े सङ्कटमें देखा और विश्वास करके मन-ही-मन प्रार्थना करती हुई 'सीताराम सीताराम पुकारने लगी। इतनेमें ही उसने देखा एक श्यामसुन्दर सशस्त्र नवयुवक दौड़ा आ रहा है और उसके पीछे-पीछे भक्त बालकरामजी दौड़ रहे हैं। देखते-ही-देखते नवयुवकने आकर चोरोंपर गहरी चोट की। चोर उसी क्षण प्राण लेकर चम्पत हो गये। जमींदार वधूने देखा-श्यामसुन्दर नवयुवक और बालकरामजी दोनों ही नहीं दिखायी दे रहे हैं। उसने सोचा, सपना तो नहीं आ गया। पर राह चलतेमें सपना कैसा? वह आश्चर्यचकित हो रही इतनेमें ही उसके घरके कुछ आदमी, जिनको वह बुला आयी थी, आ पहुँचे और वह उनके साथ घर लौट गयी। परंतु बालकरामजीकी निःस्पृहता, शान्ति, सरलता, साधुता और निरभिमानताका तथा श्रीश्यामसुन्दरकी झाँकीका उसके मनपर बहुत ही सात्त्विक प्रभाव पड़ा। वह समझ गयी कि मुझे चोरोंसे बचानेवाले साक्षात् भगवान् श्रीराघवेन्द्र ही थे और यह सब उनके भक्त श्रीबालकरामजीकी कृपासे ही हुआ। हो न हो, आज मेरे लिये बड़ा ही दुर्दिन था, न मालूम कितनी अशुभ घटना घटनेवाली थी। पर मैं महात्माकी कुटियापर पहुँच गयी, जिससे मेरी अद्भुत प्रकारसे रक्षा हो गयी। सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह हुआ कि उसके मनसे अब सन्तानकी कामना ही दूर हो गयी और उसके बदले में भगवान के भजनकी कामना जाग उठी उसका अन्तःकरण क्षणोंके साधुसङ्गसे निर्विषय हो गया। उसने इसी बहाने भगवान्‌के दुर्लभ दर्शन भी पा लिये। साधुसङ्गसे क्या नहीं होता।

उसने घर पहुँचकर अपना मन भजनमें लगाया और आगे चलकर वह बहुत ऊँची स्थितिमें पहुँच गयी। कहते हैं कि भगवान् श्रीराघवेन्द्रकी उसपर अपार कृपा हुई। फिर वह जब चाहती, तभी उसे भगवान्के दुर्लभदर्शन होते। भगवान् के साथ उसका नित्य-सम्बन्ध हो गया।

भक्त बालकरामजीने यह बात किसीसे नहीं कही। पता नहीं, उन्हें प्रभुकी इस लीलाका पता भी था या नहीं। जमींदार वधूके द्वारा ही कुछ समय बाद लोगोंको इस चमत्कारका पता लगा था।

एक बार रामनवमीके अवसरपर भक्त बालकरामजीकी इच्छा श्रीअवधयात्रा करनेकी हुई। वे लोटा, डोरी तथा झोला-माला लेकर निकल पड़े। राजनगर अयोध्यासे तीन सौ कोस था। रामनवमीमें कुल तीन दिन शेष रह गये थे। बालकरामजीकी रामनवमीको ही पहुँचकर भगवान्का मङ्गल जन्ममहोत्सव देखनेकी प्रबल इच्छा थी। पर कोई उपाय था नहीं। उनको अपनेमें कोई चमत्कार या सिद्धि कभी दीखी ही नहीं। उनका अवलम्बन तो था एकमात्र श्रीभगवान्‌का नाम-जप करना और उनकी रूप-सुधा-माधुरीका ध्यान नेत्रोंसे अनवरत पान करना। राहमें सन्ध्या हो गयी। वे एक तालाबके पास पहुँचे। तटपर एक बड़ा पुराना बरगदका पेड़ था । उन्होंने वहीं रात बितानेका विचार किया। तालाब में स्नान-सन्ध्या करके वहीं ध्यान करने बैठ गये। कुछ ही क्षणोंमें वे भगवान्की रूपमाधुरीमें छक गये। उनकी समाधि लग गयी। प्रातः काल समाधि टूटी तो देखते हैं,श्रीअयोध्याजीमें मैया सरयूजीके तटपर पीपल के पेड़के नीचे बैठे हुए हैं और भगवान् कोसलेन्द्र सामने खड़े हँस रहे हैं। बालकरामजी मुग्ध हो गये। उनका शरीर प्रेमानन्दसे पुलकित हो गया। वाणी रुक गयी। आँखोंसे प्रेमाश्रुधारा बह चली। उसी भावमें मस्त हुए अवधेशके मन्दिरकी ओर चल पड़े। उन्होंने स्पष्ट देखा - श्रीकोसलेन्द्र उनके आगे-आगे चल रहे हैं और वे मानो खिंचे हुए बेबस उनके पीछे चले जा रहे हैं। मन्दिरमें पहुँचते ही कोसलेन्द्रका वह स्वरूप छिप गया। अब बालकरामजीको होश आया। मन्दिरमें जन्मोत्सवकी तैयारी हो रही थी। पुजारीजीको भगवान्ने स्वप्नमें पहले ही बालकरामजीका परिचय दे दिया था। पुजारीजीने उनको पहचान लिया, अच्छी तरह आवभगत की; परंतु बालकरामजीका भाव-मद तो अभी उतरा नहीं था। वे उसी नशेमें चूर भगवान्‌के सामने नाचने लगे। भगवान् श्रीराम, भरतलालजी, लक्ष्मणजी और शत्रुघ्रजीकी मङ्गलमय प्राकट्यकी झाँकी उनके सामने थी। वे उसी भावमें निमग्न थे। लोगोंने देखा एकाएक उनका ब्रह्मरन्ध्र फटा और उसमें रामकी ध्वनि हुई। शरीर निर्जीव होकर वहीं | गिर पड़ा। उनकी क्या गति हुई होगी, इसका अनुमान । तो सभी कर सकते हैं।



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